पाकिस्तान से आने वाली ख़बरें चिंता पैदा कर रही हैं. किसी आम आदमी से बात हो रही हो या पत्रकार से, सांसद से या नौकरशाह से, बस एक बात कही जा रही है कि यहां के हालात अच्छे नहीं हैं. कितने अच्छे नहीं हैं, उसके जवाब में कहा जाता है कि बिल्कुल ही अच्छे नहीं हैं, बल्कि बहुत ख़राब हैं.

शायद पाकिस्तान में शासन करने वालों को भी लगने लगा है कि अगले दो महीने उनके और फौज़ के बीच की दूरी को कम कर उन्हें वहां से हटा सकते हैं. पाकिस्तान की फौज़ लोकतांत्रिक नहीं है, वह केवल फौज़ है और उसे नागरिक शासन करने का स्वाद पता है. भारत के लिए पाकिस्तान में फौज़ का आना काफी ख़राब होगा. इसके बाद आतंकवाद तो बढ़ेगा ही कुछ दूसरी समस्याएं भी बढ़ जाएंगी. अमेरिका क्या चाहेगा यह भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तानी सेना से उसके सीधे संबंध हैं.

महंगाई आसमान से भी ऊपर जा रही है और बहुत सी जगहों पर रोटी और अनाज के लिए दंगे हो रहे हैं. आम आदमी परेशान है और उसकी बातें सुनी नहीं जा रही हैं. बेरोज़गारी हद से ज़्यादा ब़ढ रही है. इसका सबसे ब़डा असर वहां की क़ानून व्यवस्था पर प़डा है. छीनाझपटी ब़ढ रही है और चोरी व डकैती की ख़बरें आम हो गई हैं. बेरोज़गार नौजवानों को लगता है कि नौकरी या काम न मिलने की हालत में चोरी डकैती, रोज़ी-रोटी का आसान रास्ता है. पुलिस के पास समय नहीं है कि लोगों को पक़डे या फिर उसकी साख इतनी गिर गई है कि कोई उसे भाव ही नहीं दे रहा है.
पाकिस्तान की पुलिस की हालत भारत की पुलिस से भी ख़राब है. आज़ादी के बाद वहां की पुलिस की ट्रेनिंग नए सिरे से हो, इसका़फैसला वहां के शासन ने नहीं लिया. छोटा देश और नया देश होने के नाते, उनके पास एक ब़डा मौक़ा था जिसे वहां की सरकार ने गंवा दिया. आज वहां की पुलिस के पास न नई ट्रेनिंग है और न ही मानवीयता, बल्कि वह वहां के सामंती तबके के हितों की पहरेदार बन गई है. वहां ज़्यादती का शिकार थाने में इसीलिए नहीं जाता कि क्योंकि उसे डर है कि उस पर और ज़्यादती होगी.
पाकिस्तान में, वहां की सरकार का, उसके राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की बात का, वहां के प्रशासन पर कोई असर नहीं प़ड रहा. सभी को लगता है कि यह सरकार आज है, कल नहीं होगी. प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गिलानी पीर साहब कहलाते हैं, वह अभी भी कुछ ख़ास मिलने वालों को गंडा ताबीज़ देते हैं. उनके खानदान में पीरी मुरीदी का सिलसिला चलता आ रहा है और वह इसे बढ़ा रहे हैं. वह आए थे राष्ट्रपति ज़रदारी के नुमाइन्दे बन कर, लेकिन अब उन्होंने अलग सत्ता केंद्र बना लिया है. पाकिस्तानी प्रशासन में सीधा बंटवारा दिखाई दे रहा है.
पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़रदारी को कभी भी जनसमर्थन हासिल नहीं रहा. बेनज़ीर भुट्‌टो अपनी ल़डाकू छवि और समझदार महिला की छाप की वजह से पाकिस्तान में हमेशा विकल्प के तौर पर देखी जाती रहीं. नवाज़ शरीफ भी इसी नज़र से देखे जाते रहे पर इसमें उनके पंजाबी होने का ब़डा हाथ रहा. पाकिस्तान की पूरी राजनीति पर पंजाब का हमेशा से दबदबा रहा है और सारे प्रमुख विभाग पंजाब से रिश्ता रखने वाले लोगों के पास ही रहे हैं. बेनज़ीर भुट्‌टो की हत्या के बाद भी लोग नहीं चाहते थे कि ज़रदारी प्रधानमंत्री बनें, इसीलिए गिलानी प्रधानमंत्री बने और एक चालाक समझौते के तहत ज़रदारी राष्ट्रपति बने. ज़रदारी पाकिस्तान के प्रशासन को चुस्त बनाने और वहां के लोगों में उत्साह भरने में बिल्कुल ही नाकाम रहे हैं. इसीलिए आज पाकिस्तान में रहने वाला हर इंसान अपने भविष्य को लेकर चिंतित है.
अमेरिका से मिलने वाली सहायता का इस्तेमाल पाकिस्तान में विकास के किसी प्रोग्राम में नहीं हो रहा है. न वहां अस्पताल हैं, न स्कूल-कॉलेज. ब़डे शहरों को, जैसे लाहौर, कराची और इस्लामाबाद को छो़ड दें, तो देहाती क्षेत्र भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों से ज़्यादा बुरी हालत में हैं. यहां तो फिर भी कुछ आवाज़ इस स्थिति के ख़िला़फ राजनैतिक दलों और अख़बारों में उठ जाती है पर पाकिस्तान में तो इसकी झलक भी नहीं मिलती. पाकिस्तान में विपक्ष नाम की कोई ताक़त है ही नहीं.
दहशतगर्दी या आतंकवाद का शिकार पाकिस्तान भारत से ज़्यादा है. वहां के आतंकवादी संगठनों को लगने लगा है कि पाकिस्तान की सरकार को अपने असर में लेना ज़्यादा आसान है. भारत में तो वे अपनी कार्यवाही शायद प्रैक्टिस की योजना के तहत कर रहे हैं. उनके नए नए आदेशों की वजह से पाकिस्तान का नागरिक अपने बच्चों और बच्चियों के न केवल भविष्य, बल्कि उनकी जान को लेकर भी चिंतित रहता है. बहुतों को डर लगा रहता है कि सुबह उनके घर से निकला लड़का या लड़की शाम को वापस आएगा भी या नहीं. पाकिस्तान की सरकार इस निराशा से नहीं लड़ पा रही है.
लोग मांग करने लगे हैं कि इससे अच्छी तो सेना थी. यह मांग वहां बढ़ रही है और लोकतंत्र के लिए ख़तरा पैदा कर रही है. लोकतंत्र के नाम पर शासन करने वाले लोग लूट तंत्र और दमन तंत्र की रक्षा करने वाले बन गए हैं. आज पाकिस्तान में फौज़ के आने की आहट सुनाई देने लगी है. सितम्बर तक इसका ख़तरा है, क्योंकि पाकिस्तानी फौज़ अगर कुछ करना चाहेगी तो उसके पास जुलाई और अगस्त अच्छे मौक़े हैं. भारत के साथ रिश्ते ठीक करने की पाकिस्तान की कोशिश को मैं इसी रोशनी में देखता हूं, क्योंकि विदेश सचिव, गृहमंत्री के साथ पाकिस्तान सरकार की न केवल बातचीत बल्कि उसकी बाद की प्रतिक्रिया भी स्वागत योग्य मानी जानी चाहिए.
शायद पाकिस्तान में शासन करने वालों को भी लगने लगा है कि अगले दो महीने उनके और फौज़ के बीच की दूरी को कम कर उन्हें वहां से हटा सकते हैं. पाकिस्तान की फौज़ लोकतांत्रिक नहीं है, वह केवल फौज़ है और उसे नागरिक शासन करने का स्वाद पता है. भारत के लिए पाकिस्तान में फौज़ का आना काफी ख़राब होगा. इसके बाद आतंकवाद तो बढ़ेगा ही, कुछ दूसरी समस्याएं भी बढ़ जाएंगी. अमेरिका क्या चाहेगा यह भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तानी सेना से उसके सीधे संबंध हैं. सेना भी अमेरिका को वो सारी जानकारियां देती है जो वह अपनी सरकार को भी नहीं देती. लेकिन सेना की महत्वाकांक्षा भी अमेरिकी दबाव को अस्वीकार कर सकती है क्योंकि यदि नागरिकों का गुस्सा अपनी अक्षम सरकार के ख़िला़फ बढ़ता है और उसे दहशतगर्दी महंगाई, बेकारी, क़ानून व्यवस्था जैसी स्थितियों से और दो चार होना पड़ता है तो फिर पाकिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था संकट में है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सितम्बर से पहले हमें पाकिस्तान में मार्शल लॉ देखने के लिए दिमाग़ बना लेना चाहिए, हालांकि हमारी मालिक से प्रार्थना है कि वह पाकिस्तान में ऐसा न होने दे.

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