राष्ट्रपति मुशर्रफ ने 23 अक्टूबर 2007 के गिलगिट दौरे के समय लीगल फ्रेमवर्क 1999 में संशोधन के पैकेज की घोषणा की. इस पैकेज के मुताबिक़, लेजिसलेटिव काउंसिल को विकसित करने के साथ ही लेजिसलेटिव असेंबली का गठन किया गया और उप मुख्य कार्यकारी अधिकारी को इसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया गया. कश्मीर मामलों के मंत्री को लेजिसलेटिव असेंबली का चेयरमैन बनाया गया था. उस समय असेंबली के सदस्यों के पास मुख्य कार्यकारी अधिकारी और उपाध्यक्ष के ख़िला़फ अविश्वास प्रस्ताव लाने का अधिकार था. इसके अलावा असेंबली को उत्तरी इलाक़ों के लिए वार्षिक बजट पारित करने का भी विशेषाधिकार दिया गया था.
उल्लेखनीय है कि पैकेज ने उत्तरी इलाक़े को आज़ाद जम्मू और कश्मीर (एजेके) के क़रीब ला दिया. यह सब कश्मीर मुद्दे के प्रति बग़ैर किसी पूर्वाग्रह के किया गया. इसीलिए पहली बार ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस (एपीएचसी) सहित सभी कश्मीरी नेतृत्व ने पैकेज का स्वागत किया. इसके पहले एजेके नेतृत्व और भारत अधिकृत कश्मीर की जनता ने इस रिफॉर्म का विरोध किया था. कश्मीर के मसले पर भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता प्रक्रिया का एजेके द्वारा स्वागत किया जा रहा था. दरअसल, सभी आधिकारिक समझौते उत्तरी इलाक़ों के लिए ज़रूरी थे. हालांकि 2007 के रिफॉर्म पैकेज में भी ख़ामियां हैं. सबसे ब़डी समस्या यह है कि इस पैकेज में कश्मीर मामलों के मंत्री के पास कई व्यापक शक्तियां हैं. वह लेजिसलेटिव असेंबली का पदेन चेयरमैन भी होता है. उदाहरण के तौर पर वह न तो असेंबली के प्रति जवाबदेह है और न ही इसके द्वारा उस पर महाभियोग लगाया जा सकता है. उसके ख़िला़फ अविश्वास प्रस्ताव भी नहीं लाया जा सकता है, जबकि वह लेजिसलेटिव द्वारा पारित किसी भी विधेयक पर वीटो का इस्तेमाल कर सकता है. साथ ही किसी भी क़ानून को प्रभावी बनाने के लिए उसकी मंजूरी आवश्यक है. चेयरमैन के अधिकारों को किसी फोरम पर चुनौती नहीं दी जा सकती है.
इसका निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि चेयरमैन को इतने सारे अधिकार और शक्तियां देकर संघीय सरकार ने सा़फ तौर पर एक ऐसा पैकेज दिया है, जो औपचारिक अधिक और लाभकारी कम है यानी बदतर है. इस पैकेज में न्यायिक सुधार के मुद्दे पर बिल्कुल चुप्पी बरती गई है, जबकि इसकी अदद ज़रूरत है. नतीजतन, पैकेज में कई अच्छे पहलू होने के बावजूद व्यापक तौर पर इसकी आलोचना की गई. आम धारणा यह है कि इन शक्तियों को एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी को बड़ी आसानी से सौंप दिया गया. एक सच्चे नेतृत्व और बुनियादी मानवीय अधिकारों के अभाव ने देश की राष्ट्रीय सुरक्षा पर गहरा असर डाला है. यदि गिलगिट-बलतिस्तान रणनीतिक तौर पर अहम हैं और वहां विविध पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं तो हालात पहले से भी ख़तरनाक हो जाते हैं. इस बात की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि उत्तरी इलाक़ा अंतरराष्ट्रीय तौर पर शक्तिशाली और प्रभावशाली इस्लामिक समुदायों का गढ़ है और यदि क़ानून व्यवस्था पूरी तरह बहाल नहीं की गई तो विदेशी शक्तियां इस इलाक़े में इन समुदायों की सुरक्षा के नाम पर हस्तक्षेप कर सकती हैं. उत्तरी क्षेत्र में ऐसी शक्तियों के लालच की वजह यह है कि उन्हें चीन को मात देने का अवसर मिल जाएगा, जो इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व पहले से बनाए हुए है. इसी तरह सुरक्षा एवं राजनीतिक प्रभाव की वजह से पाकिस्तानी शिया मुसलमानों का पड़ोसी ईरान से घनिष्ठ संबंध भी क़ायम हो जाएगा. पूरी दुनिया के शिया मुसलमान 1979 के बाद की ईरानी क्रांति से भावनात्मक तौर से जुड़े हुए हैं. ईरान पाकिस्तान में शिया मुसलमानों की सुरक्षा के प्रति काफी गंभीर है और यह बात ज़ाहिर हो चुकी है कि अतीत में कई शिया संगठनों को तेहरान से वित्तीय सहायता मिलती थी. इसीलिए शिया मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार के लिए अहम है. साथ ही ऐसा ईरान के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने के लिहाज़ से भी अहम है. संवैधानिक और राजनीतिक तकरारों के बावजूद गिलगिट में कई सामाजिक-आर्थिक विकास के क़दम उठाए जा रहे हैं. गिलगिट शहर पहले की अपेक्षा अधिक आधुनिक हो रहा है. नई सड़कों, भवनों और मोबाइल फोन कंपनी आदि से यह विकसित भी हो रहा है. काराकोरम हाईवे ने वाक़ई इस इलाक़े के लोगों की ज़िंदगी पूरी तरह बदल दी है. उत्तरी क्षेत्र के वाणिज्य मंडल के अध्यक्ष एवं मशहूर व्यापारी हाजी मोहम्मद हुसैन अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, 1984 तक मैं ख़ुद प्लास्टिक के बने जूते पहनता था और राशन, चीनी एवं घी के कंटेनर लिए पूरा दिन लाइन में गुज़ार देता था. जब चीन के साथ काराकोरम हाईवे से व्यापार शुरू हुआ तो उस व़क्त मैंने छोटे स्तर पर व्यापार शुरू किया. आज मैं एक बड़ा व्यापारी बन चुका हूं और हर साल इसमें करोड़ों का इज़ा़फा हो रहा है. अभी हाल में जितने भी लोग करोड़पति बने हैं, उसकी एकमात्र वजह है चीन के साथ व्यापार. देश के शहरी इलाक़ों में लकड़ी बेचना भी इस पीढ़ी की आय का एक प्रमुख स्रोत है. इस आर्थिक बदलाव का श्रेय भी आगा खां फाउंडेशन और कई ग़ैर सरकारी संगठनों को जाता है, जिन्होंने स्थानीय लोगों के रोज़गार के लिए कई परियोजनाएं शुरू कीं. स्थानीय शिक्षित लोगों के लिए भी कई लाभकारी नौकरियों के अवसर उपलब्ध कराए गए हैं. काराकोरम हाईवे के चौड़ीकरण और इलाक़े में रेलवे ट्रैक की घोषणा के बाद रीयल स्टेट के दाम आसमान छूने लगे हैं.
यह माना जा रहा है कि जब चीनी इंजीनियर और विशेषज्ञ इस परियोजना पर काम शुरू करेंगे तो रोज़गार के कई अवसर भी पैदा होंगे. एक बार जब रेलवे ट्रैक बिछ जाएगा तो रावलपिंडी और गिलगिट के बीच नौ घंटे की दूरी कम हो जाएगी. इसी तरह चीन के व्यापारिक केंद्र काशग़र और गिलगिट के बीच भी आठ घंटे की दूरी कम हो जाएगी. पाकिस्तान और चीन दोनों देशों ने सीमा पर रहने वाले अपने नागरिकों के लिए कई व्यापारिक साझेदारी के क़दम उठाए हैं.
इन क्षेत्रों में सूचना एवं संचार सुविधाओं ने स्थानीय और ग़ैर स्थानीय दोनों स्तरों के निवेशकों के लिए रास्ता खोल दिया है, जिससे दोनों देशों के बीच संबंधों का एक मज़बूत पुल तैयार हो रहा है. गिलगिट शहर में पठानकोट की अच्छी ख़ासी आबादी रहती है और स्थानीय व्यापारिक गतिविधियों पर भी उसका वर्चस्व है. यह जातीय लिंक सा़फ तौर पर व्यापारियों को लुभाएगा और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (एनडब्ल्यूएफपी) के व्यापारियों को अपना भाग्य आजमाने के लिए गिलगिट की ओर आकर्षित करेगा. हालांकि एक भय भी मौजूद है कि पख्तूनों के आने से स्थानीय आबादी कहीं अल्पसंख्यक न हो जाए. फिर भी शहर में किसी भी संगठित पख्तून विरोधी आंदोलन ने अपना सिर नहीं उठाया है. बदलता आर्थिक माहौल, नए व्यापारिक अवसर और ग़ैर सरकारी संगठनों के उदय जैसे कारकों ने लोगों की राजनीतिक एवं सामाजिक सोच पर भी का़फी व्यापक असर डाला है. उदाहरण के तौर पर कई लोगों के चीन के साथ व्यापारिक संबंध वैवाहिक संबंधों में बदल रहे हैं. चीनी भाषा सीखने का रुझान भी तेज़ी से बढ़ रहा है और कई बच्चे, ख़ासकर व्यवसायी इस भाषा को नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ मॉडर्न लैंग्वेज (एनयूएमएल) इस्लामाबाद में सीख रहे हैं. काराकोरम यूनिवर्सिटी भी चाइनीज़ स्टडी को फोकस कर रहा है और हर कोई इसके बेहतर नतीजे की कल्पना कर सकता है.
इन इलाक़ों में अभी भी राष्ट्रीय दैनिक समाचारपत्र एक दिन बाद पहुंचते हैं. इस तथ्य के बावजूद दर्ज़न भर चैनलों की पहुंच इन इलाक़ों में है, जो लोगों में राजनीतिक जागरूकता लाने का काम कर रहे हैं. कई स्थानीय समाचारपत्र और पत्रिकाएं बाज़ार में पकड़ बना रहे हैं. प्रकाशक समूह के-2 एक दैनिक और दो साप्ताहिक प्रकाशित कर रहा है, जो अच्छा-ख़ासा बिज़नेस कर रहे हैं. कई विभिन्न साप्ताहिकों ने सरकारी विभागों और एजेंसियों में व्याप्त भ्रष्टाचार की ख़बरों को छापने में स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता दिखाई, जिससे प्रशासन पर नियंत्रण रखने में मदद मिलती है. इस तरह नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमा रही है. विभिन्न संप्रदायों और जनजातियों में जनसांख्यकीय अनुपात का मुद्दा भी विभिन्न इलाक़ों में चर्चा का विषय बन रहा है. ख़ासकर गिलगिट में, जहां यह दो कारणों से तेज़ी से बढ़ रहा है. पहली बात यह कि चीन के साथ काराकोरम मार्ग से व्यवसाय का रास्ता खुलने से पूरे देश के व्यवसायी गिलगिट की ओर रुख़ कर रहे हैं. जबसे पाकिस्तान को शंघाई कारपोरेशन काउंसिल में पर्यवेक्षक का दर्ज़ा दिया गया और इस्लामाबाद एवं बीजिंग के बीच मुक्त व्यापार पर समझौता हुआ, तभी से पाकिस्तान की व्यापारिक गतिविधियों में उछाल दर्ज़ की जा रही है. इन्हीं कारणों से कई लोग अब इस शहर को अपना स्थायी निवास बना रहे हैं. जबसे पाकिस्तान की आबादी सुन्नी बहुल हुई है, इन शहरों में ज़्यादातर अप्रवासी इसी सुन्नी समुदाय के हैं. इस वजह से स्थानीय शिया मुसलमान इस सच्चाई से डर रहे हैं कि वे इस शहर में अल्पसंख्यक आबादी के तौर पर शुमार हो जाएंगे.
निष्कर्ष हाल में संवैधानिक पैकेज की घोषणा और उच्चतम न्यायालय के आदेश केबाद उत्तरी क्षेत्र संवैधानिक अधिकार और सत्ता हस्तांतरण का गवाह रहा है. हालांकि अभी का़फी कुछ किया जाना बाक़ी है. लोकतांत्रिक ढांचे एवं सामाजिक विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने की ज़रूरत है. नौकरशाही को अपनी शक्तियों के बंटवारे में परेशानियां ज़रूर आएंगी, लेकिन विश्वास की बहाली और लोगों के यक़ीन को क़ायम रखने का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है. नीतियां बनाते समय कुछ बिंदुओं पर खास ध्यान देने की ज़रूरत है.
हाल ही में घोषित पैकेज ने कश्मीर मामलों के मंत्री और उत्तरी क्षेत्र को व्यापक अधिकार दिए. इन अधिकारों को चुने हुए स्थानीय प्रतिनिधियों को स्थानांतरित किया जाना चाहिए, ताकि चेयरमैन की भूमिका को औपचारिक बनाया जा सके. जैसा कि एजेके के राष्ट्रपति के मामले में किया गया है. उत्तरी क्षेत्र में सांप्रदायिकता की इस बीमारी से निपटने के लिए व्यापक नीति बनाई जानी चाहिए. सांप्रदायिकता यहां दानव बन चुकी है, क्योंकि एक प्रभावशाली राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में कई विभिन्न संगठनों के स्वार्थ सामने आ रहे हैं. आज समय की मांग है कि जिन परिवारों ने संप्रदायवाद का ख़ामियाज़ा उठाया है, उनका आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक पुनर्वास ज़रूरी है. साथ ही 1988 से हुईं हिंसा की वारदातों की जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग का भी गठन किया जा सकता है, ताकि इन विवादों की वजह का पता लगाया जा सके, जिनके चलते इन क्षेत्रों में जान-माल का का़फी नुक़सान हुआ. इस आयोग के कार्यक्षेत्र का दायरा महज़ जांच और पड़ताल तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि क़ानून व्यवस्था को लागू करने के लिहाज़ से इसके पास ख़ुद की सुझाई स़िफारिशों को लागू करने का भी अधिकार होना चाहिए.
जब सांप्रदायिकता से निपटा जाए तो इस मामले में विदेशी ताक़तों के शामिल होने पर ध्यान ज़रूर दिया जाना चाहिए. पाकिस्तान-चीन का गर्मजोशी भरा संबंध, ख़ासकर ग्वादर बंदरगाह के निर्माण के बाद, कुछ क्षेत्रीय व अंतरराष्ट्रीय हितों के ख़िला़फ शुरू हुआ और इसीलिए उत्तरी क्षेत्रों में सांप्रदायिक अशांति के लिए इनकी भूमिका को कतई नकारा नहीं जा सकता है. यहां यह ध्यान देना ग़ैर ज़रूरी नहीं होगा कि कई बुद्धिजीवी और नीति निर्माता अमेरिका को सलाह दे रहे हैं कि वह शिया और सुन्नी के बीच विभाजन की खाई बढ़ा दे, ताकि मुस्लिम समाज आपस में बंटा रहे. इराक इसकी बेहतरीन मिसाल है. इसी आधार पर पाकिस्तान और ईरान में मतभेद पैदा करने की कोशिश जारी है. राजनीतिक दलों से संपर्क किया जाना चाहिए और उन्हें हर मुद्दे पर स्थानीय लोगों के विचार जानने में मदद करनी चाहिए. इसी तरह लेजिसलेटिव असेंबली को भी उचित महत्व और बजट तैयार एवं पारित करने के मामले में पूरा अधिकार दिया जाना चाहिए. क़ायदे-क़ानून के मुताबिक़, उत्तरी इलाक़ों में सेना और नौकरशाहों के हस्तक्षेप को पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए. ऐसा महसूस किया गया है कि यदि संशोधन समय पर नहीं किए गए तो ऐसी आवाज़ें वाशिंगटन और संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग से भी उठ सकती हैं. इसके अलावा गिलगिट-बलतिस्तान की सिविल सोसायटी और राजनीतिक नेतृत्व को यह बात समझनी चाहिए कि यह न स़िर्फ इस्लामाबाद की नाकामी और ख़ामी है, बल्कि मौजूदा हालात के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि अपने बुनियादी अधिकारों की दिशा में वे भी पर्याप्त नतीजे हासिल करने के लिए संयुक्त राजनीतिक मुहिम छेड़ने में असक्षम साबित हुए हैं. उनमें आंतरिक तौर पर मतभेद, सांप्रदायिकता और नौकरशाही के बीच समझौते ने उनके इस मिशन को बुरी तरह प्रभावित किया है. गिलगिट-बलतिस्तान के नेताओं को समान अधिकार हासिल करने और अपनी आवाज़ उठाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर लॉबी करने की ज़रूरत है. राजनीतिक दल और मीडिया ज़रूर उनका सहयोग करेंगे. मुल्क को एक साथ रखने के लिए उन्हें अपना संघर्ष इस तरह जारी रखना चाहिए कि कश्मीर की ऐतिहासिक और क़ानूनी प्रतिष्ठा पर किसी तरह की आंच न आने पाए.