chauthन्य साधना पंथों और संप्रदायों के समान ही भारत में अघोरपंथियों के भी कई प्रसिद्ध केंद्र थे, जिन्हें स्थल कहते हैं. इनमें से कुछ प्रसिद्ध स्थल पश्‍चिम भारत में आबू पर्वत और गिरनार, पूर्व भारत में बोधगया तथा असम के कई स्थानों में, मध्य भारत में काशी तथा सिंध में हिंगलाज में विद्यमान हैं. अघोरियों का एक बहुत बड़ा केंद्र बड़ौदा में था, किंतु पिछले कई दशकों से वह निर्जन हो गया है. वहां अघोरेश्‍वर का मंदिर भी था, जिसके महंत अघोराचार्य थे. अघोर साधना की प्राचीनता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अरस्तू जैसे दार्शनिक एवं प्लिनी तथा मार्कोपोलो जैसे विश्‍व यात्रियों ने अघोरपंथियों के केंद्रों का उल्लेख किया है. ईरान देश में भी एक समय इनके केंद्र विद्यमान थे. संभवत: उन दिनों अघोरी शैव अपनी साधना, अपने सिद्धांत तथा अपने संप्रदाय के साथ सुदूर पश्‍चिम तक फैले हुए थे. इनमें पुरुष अघोरी साधु ही नहीं, अघोरिनें भी रहती थीं, जो दलों में स्थान-स्थान पर घूमा करती थीं. जो विवरण मिलते हैं, उनके अनुसार ये अघोरिनें सिर पर जटा बढ़ाए और फैलाए, गले में अनेक प्रकार की पत्थर एवं स्फटिक की मालाएं लटकाए, कमर में घाघरा बांधकर और हाथ में त्रिशूल लेकर चलती थीं.

ह्वेनसांग ने अघोरियों का वर्णन करते हुए लिखा है कि अघोरी लोग नंगे रहते हैं, भभूत रमाते हैं और हड्डियों की माला पहनते हैं. उसने निर्ग्रंथ (नग्न) कपालधारियों का भी उल्लेख किया है. संस्कृत के अनेक काव्यों और नाटकों में कापालिकों के अद्भुत वर्णन मिलते हैं. शंकर विजय में आनंद गिरि ने कापालिकों का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे शरीर पर चिता-भस्म रमाए रहते हैं, गले में खोपड़ियों की माला डाले रहते हैं, माथे पर काली रेखा का तिलक लगाते हैं और कमर में कभी-कभी व्याघ्र चर्म लपेटते हैं. बाएं हाथ से कपाल और दाएं हाथ में घंटी बजाते हुए, बार-बार शंभु, भैरव, कालिनाथ आदि शिव के नामों का उच्चारण करते रहते हैं.

कापालिक अपनी साधना के क्रम में बलि भी देते थे. भवभूति ने अपने मालती माधव में अघोरघंट नामक एक इसी प्रकार के कापालिक का चित्रण किया है. प्रबोध चंद्रोदय में भी कापालिक वृत का उल्लेख मिलता है. 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखित दविस्तां नामक ग्रंथ में ऐसे योगियों की चर्चा है, जो महामांस का सेवन तो करते ही थे, अन्य अखाद्य पदार्थों का प्रयोग भी इसलिए करते थे कि उनसे अद्भुत दृष्टि प्राप्त होती है. वाण ने अपने हर्षचरित में राजा पुष्पभूति के साथ अघोरी भैरवाचार्य की श्मशान साधना का अत्यंत विशद् वर्णन किया है, जिससे यह भी सिद्ध होता है कि तत्कालीन राजसभाओं पर इनका बड़ा प्रभाव था. कर्नल टॉड ने भी अपनी पुस्तक पश्‍चिम भारत की यात्रा में आबू पर्वत पर अवस्थित अघोरियों की टोली का वर्णन किया है.

पिछली तीन शताब्दियों से अघोरियों के जिस पंथ का व्यापक प्रचार हुआ, वह बाबा किनाराम द्वारा प्रवर्तित अघोर पंथ है, जिसका केंद्र काशी है. इस संप्रदाय के अघोरपंथियों को किनारामी भी कहा जाता है. इन साधकों ने इतनी तितिक्षा सिद्ध कर ली है कि इनके लिए सुख-दु:ख, शीत-उष्ण, भाव-अभाव सब समान हैं. इसीलिए ये साधक प्राय: नग्न और मौन रहते हैं. ये भिक्षाटन भी नहीं करते, जो कुछ उनके शिष्य उनके पास पहुंचा देते हैं, वही ग्रहण करके तृप्त रहते हैं. किनारामी पंथ में दीक्षित मुंडित मस्तक मुड़ियों को सरभंगी कहते हैं. सरभंगी और किनारामी दोनों ही महातत्वों का भक्षण करते हैं, किंतु केवल विरल अवसरों पर ही इस प्रकार का आचार विहित है.

शास्त्रीय ग्रंथों में देवानांप्रिय अयोध्या की चर्चा आती है, जिसका अर्थ है देवताओं की नगरी, जो अजेय है और जिसमें सभी देवताओं के साथ देवाधिपति शिव या राम का भी वास है. योगियों का कहना है कि आठ चक्र वाली और नौ द्वारों वाली शरीर नगरी ही गो अर्थात इंद्रियों अथवा देवताओं की शाश्‍वत आवास भूमि है. उसके बिना देवता प्रकट ही नहीं हो सकते. इसलिए शरीर अयोध्या है और आत्मा इस पुरी का राजा, शिव, इंद्र, ब्रह्मा या राम है. योगियों की शिवपुरी यही है. यही मन रूपी मणिकर्णिका है और अंत:करण रूपी ज्ञानवापी है, जिसमें षडरिपु रूपी म्लेच्छों से बचने के लिए आत्मा रूपी शिव का प्राकट्य हुआ है. यही मुक्ति भूमि काशी है और यह पंचकाशी (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय कोश) के बीच अवस्थित है. योगीजन इसी काशी में सदा निवास करते हैं. शरीर में मध्य देश नितंब को कहते हैं. दोनों नितंबों से तिर्यक (ड) की आकृति बनती है, जिस प्रकार दोनों पसलियों से कलेजे के पास मनुष्य शरीर में देवनागरी (ल) की आकृति बनती है. मध्यमावाणी वहीं अवस्थित है और उसी से जाप करना विहित बताया है. नितंब को स्पर्श करके (ड) की आराधना होनी चाहिए. यह अक्षर शिव तथा शिवा या काली का स्वरूप और बीज में मंत्र रूप है. मुख से लेकर गुदा तक एक ही महान स्रोत है.

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