संतोष भारतीय ओटीटी की वेबसीरीज ‘फर्जी’ देख कर विचलित हो गये। उन्होंने फर्जी के बहाने हमारी प्रभावित होती संस्कृति और वेबसीरीज़ पर सवाल उठाए। अभय दुबे शो में भी और अगले दिन भी। यह मानना तो मुश्किल है कि संतोष जी ने केवल फर्जी के अलावा कोई और वेबसीरीज़ नहीं देखी होगी । अगर ऐसा है तो आश्चर्य है और अगर ऐसा नहीं है तो भी आश्चर्य है। संतोष जी ने अभय दुबे शो में जिस अंदाज में यह विषय उठाया था उससे लगा था कि वे चाहते हैं अभय जी हिन्दू, हिंदुत्व और संस्कृति की दुहाई देने वाली आज की सरकार और आरएसएस पर जबरदस्त वार करें। लेकिन अभय जी ने तो यह कह कर सब कुछ तेल कर दिया (कृपया इस शब्द के लिए क्षमा करें लेकिन कुछ दूसरा सूझ नहीं रहा) कि संतोष जी यह तो बीसियों सालों से चल रहा है। संतोष जी को संतोष नहीं हुआ इसलिए उन्होंने अगले दिन फिर इसी विषय पर अपनी बात अकेले कही । संतोष जी की चिंता वाजिब है। लेकिन बहुत देर से आई । दूसरा, फर्जी के मैंने सारे (शायद पांच) एपीसोड देखे हैं । संतोष जी से कहना चाहूंगा कि फर्जी में इतना ज्यादा कुछ नहीं है जो दूसरी वेबसीरीज़ में होता है। न सेक्स है न हिंसा। लगभग नहीं। और गालियां भी वहीं तक हैं जो मंत्री और उसके मातहत के बीच चलती हैं । OTT हमारे यहां कुछ सालों से चल रहा है। मैंने कोई साल डेढ़ साल पहले हर्षद मेहता पर बनी ‘1992 स्कैम’ से वेबसीरीज देखनी शुरु की । इसके बाद असंख्य देख चुका हूं। बहुतों के तो नाम भी नहीं पता हैं। भूल चुका हूं। लेकिन कहना चाहूंगा कि यदि संतोष जी ने ‘सेक्रेड गेम्स’ देखी हो तो फर्जी को वे बहुत साफ सुथरी कहेंगे। कुछेक ‘पंचायत’, ‘गुल्लक’, ‘स्कैम 1992’ और ‘रॉकेट ब्यायज़’ जैसी वेबसीरीज को छोड़ कर कोई वेबसीरीज नहीं मिलेगी जिसमें गालियां, सीमाओं को अतिरंजित करते सेक्स की बेहूदगी और न देखी जाने वाली हिंसा आपको नहीं मिलेगी । सेक्रेड गेम्स तो इसकी मिसाल है। बावजूद इसके कि इसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी और सैफ अली खान जैसे मंझे हुए कलाकार हैं। सबसे ज्यादा गालियां, सेक्स और हिंसा नवाजुद्दीन सिद्दीकी के हिस्से में आयीं हैं। तो क्या संतोष जी ने फर्जी के अलावा और नहीं देखीं । ऐसा तो नहीं हो सकता , खैर । वैसे ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ से आप इसकी शुरुआत मान सकते हैं।
लेकिन संतोष जी का सवाल यह नहीं था । उनका सवाल इनका हमारे दैनंदिन जीवन और हमारी उज्जवल संस्कृति पर पड़ने वाला प्रभाव था । बेशक यह सही है लेकिन आप देखें कि सबके प्रिय कहे जाने वाले डा मनमोहन सिंह के समय में जो वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के जो द्वार खुले उसने समाज को कितना और कहां कहां तक बिगाड़ा है। ग्लोबलाइजेशन के जितने फायदे हुए होंगे उससे कहीं ज्यादा नुकसान हमारे समाज और हमारी संस्कृति का हुआ है। संतोष जी ने सही कहा मोबाइल क्रांति ने तो फायदे से ज्यादा जितना भी नुकसान किया है उसकी सीमा तक नहीं नापी जा सकती। आज हर बच्चे के हाथ में मोबाइल है। हर बच्चे का अपना अलग कमरा है । वर्जनाएं टूट चुकी हैं। बच्चा अपने कमरे में रात भर क्या देखता है किसको इसकी परवाह है । हम कह सकते हैं कि भारतीय और अन्य विकसित होते देशों की लगाम अब अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के साथ में हैं और सरकार बेबस है । अभय दुबे ने इस ओर इशारा भी किया था। OTT यानी over the top और इसे सेंसर करना सरकारों के हाथ में नहीं रह गया है। ये फिल्में नहीं हैं जिन्हें आप सेंसर कर सकते हैं । अखिलेंद्र प्रताप सिंह तो हमेशा कहते ही हैं कि सरकार के हाथ में कुछ नहीं है। सब कुछ अंतराष्ट्रीय संस्थाओं के हाथ में है । हम सब उनकी कठपुतलियां भर हैं। मोदी सरकार जिस दिशा में देश को ले जा रही है उसमें इन सब चीजों की भयानकता आने वाले दिनों में आप और देखिएगा। संतोष जी की चिंता हम सबकी चिंता है। मैं तो सेक्रेड गेम्स के टीजर मात्र से ही हिल गया था। बेशक हम सब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। हम चले जाएंगे। लेकिन आने वाली पीढ़ी (जिसे हम उस समय देख नहीं पाएंगे) उसका भविष्य कैसा होगा। इसकी हमें क्यों चिंता करनी चाहिए। लेकिन चिंता करना मानवीय प्रवृत्ति है । और यह हमारे स्वभाव में है। यह सरकार पूर्व की सरकारों से एकदम अलग है। इसे न देश की चिंता है न हमारी भावी पीढ़ी की । ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणाम हम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। तो संतोष जी हम सब इस वक्त महाभारत के पात्रों जैसे बन गये हैं जो खुली आंखों से सब कुछ देखते हुए भी बेबस हैं। आंदोलन भी इसका हल नहीं है। कोई सरकार अपना वजूद खतम होते नहीं देख सकती। समय अगर यही चाहता है तो आप सिर्फ चिंता कीजिए। हां, आज के अच्छे बुरे हिंदुस्तान के लिए आप मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं।
इस बार ‘सिनेमा संवाद’ में बेहतरीन कलाकार सतीश कौशिक के बहाने सिनेमा में हास्य पर चर्चा हुई । कार्यक्रम अच्छा और रोचक लगा लेकिन अमिताभ श्रीवास्तव को समझना चाहिए कि हर बार एक से चेहरे देख कर दर्शकों का वही हाल होगा जो ‘सत्य हिंदी’ के अन्य कार्यक्रमों का हो रहा है। बेशक आशुतोष जी कहते रहें कि हमारे दर्शक लाखों में हैं लेकिन वास्तविकता सब जानते हैं। पैनल में चेहरे देख कर ही चैनल बदल लेते हैं। कहीं ‘सिनेमा संवाद’ के साथ भी ऐसा न हो । अजय ब्रह्मात्मज का ‘पंचायत’ और ‘गुल्लक’ को हास्य के दायरे से बाहर रखना और स्पष्ट कहना कि मैं इन्हें हास्य नहीं मानता, परेशान करने वाला वक्तव्य रहा। ‘गुल्लक’ तो हास्य से भरपूर थी। कभी कभी अच्छे और मंझे हुए लोग भी ऐसी बातें कह जाते हैं जो गले से नहीं उतरतीं । आजकल हास्य कपिल शर्मा शो तक सिमटता जा रहा है। यह बात एक पैनलिस्ट ने कही भी । यानी ‘चलती का नाम गाड़ी’ से ‘चुपके चुपके’ और आज यहां कपिल शर्मा तक । हास्य कहां से कहां जाएगा …. फिर भी कुल मिलाकर अच्छा लगा।
कल की बात काफी लंबी हो गई थी। लेकिन राहुल गांधी पर कल जिस तरह चौतरफा हमले हुए उससे कई सवाल पैदा होते हैं । अडानी प्रकरण को छिपाना था या राहुल गांधी को हीरो बना कर भविष्य के लिए पिक्चर में रखना था या बाकी सत्र को इसी तरह तबाह करना था। जैसे कई सवाल हैं। बीजेपी कांग्रेस और राहुल के वजूद को अपने लिए शुभ मानती है , यह कहना तो कोई नयी बात नहीं है। इसके पीछे विपक्ष को खंडित रखना भी एक चाल हो सकती है । बहरहाल, बीजेपी जो न करे वही कम है यही मान कर कल का दिन देखिए।
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