देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में गांधी पर अध्ययन पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं, लेकिन महाराष्ट्र के वर्धा स्थित गांधी विचार परिषद में गांधी अध्ययन का तौर-तरीका न केवल अलग है, बल्कि अनूठा भी. गांधी विचार परिषद एक ऐसा अध्ययन संस्थान है, जो गांधी विचार के व्यवहारिक पाठ्यक्रम के ज़रिये लोगों को शिक्षित करता है. यह न स़िर्फ गांधी विचार का असर डालता है, बल्कि स्वयं के और सामाजिक बदलाव में सहायक की भूमिका भी निभाता है.
गांधी अध्ययन संस्थान या गांधी विचार परिषद की स्थापना सात अक्टूबर, 1987 को हुई थी. यह जमना लाल बजाज के जन्म शताब्दी वर्ष में उनकी स्मृति में शुरू किए गए प्रकल्पों में से एक है. इस संस्थान की खासियत यह है कि यहां प्रवेश के लिए किसी तरह के विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए जाते, बल्कि पूर्व छात्र ही दाखिले के लिए नए छात्रों के नाम प्रस्तावित करते हैं.
गांधी विचार के प्रति आकर्षित होकर गांधी अध्ययन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम के लिए यहां न स़िर्फ भारतीय, बल्कि सुदूर देशों के छात्र भी आते हैं और गांधी विचार को व्यवहार में अपना कर मौजूदा चुनौतियों का समाधान तलाशते हैं. यह संस्थान विचारकों, स्वैच्छिक-ज़मीनी संगठनों, धार्मिक समूहों, पंचायत प्रतिनिधियों, महिलाओं एवं असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को विभिन्न अवधियों के अध्ययन पाठ्यक्रमों के माध्यम के ज़रिये गांधी विचार से लैस करता है.
संस्थान के निदेशक भरत बताते हैं कि यहां की पूरी जीवनशैली आश्रम व्यवस्था पर आधारित है. दिनचर्या सुबह प्रार्थना से शुरू होती है, फिर श्रमदान, अध्ययन, स्वच्छता, खेती एवं कताई आदि कार्य किए जाते हैं. यहां छात्रों को नौ महीने तक रहना पड़ता है और गांधी द्वारा बताई गई दिनचर्या के मुताबिक अपना जीवन जीना पड़ता है. अध्ययन-मनन के साथ-साथ उन्हें सफाई, खेतों में श्रम और अपने भोजन का प्रबंध भी करना पड़ता है.
यह व्यवस्था आत्मानुशासन, परिश्रम एवं आत्मनिर्भरता के साथ सामंजस्य पूर्ण जीवन की एक नई दृष्टि विकसित करने में सहायक है. इसका उद्देश्य गांधी के विचारों का प्रचार-प्रसार कर ऐसे युवाओं को राष्ट्रहित में आगे लाना है, जो ईमानदारी एवं निष्ठा से समाज को व्यसन मुक्त बनाकर शांति और समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ा सकें.
सूडान के खार्तूम से आईं जिहान्द अब्दुल रहमान कहती हैं कि उन्होंने यहां गांधी के प्रयोग का वास्तविक अध्ययन करने के लिए दाखिला लिया. बकौल जिहान्द, गांधी ने पूरी दुनिया को बताया कि हिंसा पर काबू पाने का एकमात्र रास्ता अहिंसा है. नेपाल के बलराम दहल भी यहां अध्ययन कर रहे हैं. डीन एसके जोसेफ बताते हैं कि विदेशी छात्र हर सत्र में आते हैं, जिनमें नेपाल, ब्राजील, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मैक्सिको एवं भूटान के छात्रों की संख्या ज़्यादा होती है.
एम पीटर इंडोनेशिया के श्रम विभाग में अधिकारी थे. वह नौकरी छोड़कर यहां अध्ययन के लिए आए और जब स्वदेश वापस लौटे, तो इंडोनेशियाई सरकार ने उन्हें प्रोन्नति के साथ दोबारा नौकरी दी. परिसर का माहौल प्रकृति के काफी क़रीब है. भिन्न-भिन्न तरह के पेड़-पौधों से अटे पड़े परिसर में जल प्रबंधन अनुकरणीय है और जल के देशज ज्ञान पर आधारित है. परिषद के निदेशक भरत बताते हैं कि इस बार पाठ्यक्रम में जल प्रबंधन एवं पर्यावरण को भी शामिल किया गया है.
बीते 25 वर्षों से चल रहे पाठ्यक्रम में गांधी अध्ययन पर ज़्यादा जोर रहा है. श्रम, सफाई के साथ-साथ चरखा चलाना तो शामिल था, लेकिन जल प्रबंधन एवं पर्यावरण पर कुछ विशेष नहीं था. लेकिन, इस बार परिसर में जल संग्रहण की दिशा में किए गए प्रयोगों के बेहतर नतीजों से उत्साहित होकर पाठ्यक्रम में तब्दीली की गई और उसमें जल प्रबंधन एवं पर्यावरण को भी शामिल किया गया.
परिसर में जल प्रबंधन सुंदर तरीके से हो, इसकी परिकल्पना संस्थान के निदेशक ने पांच वर्ष पहले की थी और जब उनकी परिकल्पना ने साकार रूप धारण किया, तो उससे न स़िर्फ संस्थान की सूरत बदली, बल्कि आस-पास के इलाकों में पानी की समस्या का निराकरण भी होने लगा. संस्थान के छात्र अपने वाटर मॉडल का प्रचार आस-पास के इलाकों में भी कर रहे हैं. लंबे-चौड़े परिसर में जलापूर्ति का एकमात्र ज़रिया था बोरवेल, जिसका पानी खत्म होने की कगार पर था. धरती में जल का पुनर्भरण कैसे हो, इसकी एक रूपरेखा तय की गई.
हालांकि, बोरवेल के अलावा यहां एक कुआं भी है, लेकिन उसका भी पानी सूख रहा था. यह तय किया गया कि यहां के भूजल स्तर देशज तरीके से ठीक करके उसका बेहतर प्रबंधन किया जाए. इसके लिए यहां तीन-चार तालाब खोदे गए. नतीजा यह हुआ कि जल स्तर कायम रहा. यह तालाब छात्रों के श्रमदान और अन्य प्रयासों से खोदे गए.
परिसर को हरा-भरा रखना भी एक चुनौती भरा काम था. इसके लिए संस्थान के निदेशक ने ड्रिप एरिगेशन सिस्टम यानी टपक सिंचाई प्रणाली अपनाई. यह सिंचाई की एक उन्नत विधि है, जिसके प्रयोग से सिंचाई जल की पर्याप्त बचत की जा सकती है. यह विधि मृदा के प्रकार, खेत, जल स्रोत और किसान की दक्षता के अनुसार अपनाई जा सकती हैं. ड्रिप विधि की सिंचाई दक्षता लगभग 90 प्रतिशत है. इस विधि से उपज की उच्च गुणवत्ता, रसायन एवं उर्वरकों का दक्ष उपयोग, जल के विक्षालन-अप्रवाह एवं खरपतवारों में कमी और जल की बचत को सुनिश्चित किया जा सकता है.
इसके अलावा वर्षा जल के संरक्षण के लिए रेन वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम अपनाया गया. इसके तहत एक बड़ा टैंक बनवाया गया, जिसमें 25 हज़ार लीटर पानी संग्रहित रहता है. इसे आपात स्थिति के लिए सुरक्षित रखा जाता है. संस्थान सिंचाई की एक और पद्धति का इस्तेमाल कर रहा है, एमीटर एरिगेशन सिस्टम, जिसकी ईजाद वर्धा में ही हुई. इसमें पौधा अपनी ज़रूरत के अनुसार ही जल ग्रहण करता है. इस तकनीक को सेंटर र्ऑें रूरल साइंसेस ने भी मान्यता दी है.