संयुक्त राष्ट्रसंघ के वार्षिक अधिवेशन में इस बार अफगानिस्तान भाग नहीं ले पाएगा। जरा याद करें की अशरफ गनी सरकार ने कुछ हफ्ते पहले ही कोशिश की थी कि संयुक्तराष्ट्र महासभा के अध्यक्ष का पद अफगानिस्तान को मिले लेकिन वह श्रीलंका को मिल गया। देखिए, भाग्य का फेर कि अब अफगानिस्तान को स.रा. महासभा में सादी कुर्सी भी नसीब नहीं होगी। इसके लिए तालिबान खुद जिम्मेदार हैं। यदि 15 अगस्त को काबुल में प्रवेश के बाद वे बाकायदा एक सर्वसमावेशी सरकार बना लेते तो संयुक्तराष्ट्र संघ भी उनको मान लेता और अन्य राष्ट्र भी उनको मान्यता दे देते। इस बार तो उनके संरक्षक पाकिस्तान ने भी उनको अभी तक औपचारिक मान्यता नहीं दी है। किसी भी देश ने तालिबान के राजदूत को स्वीकार नहीं किया है। वे स्वीकार कैसे करते? खुद तालिबान किसी भी देश में अपना राजदूत नहीं भेज पाए हैं।
संयुक्तराष्ट्र के 76 वें अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपने प्रवक्ता सुहैल शाहीन की राजदूत के रूप में घोषणा की है। जब काबुल की सरकार अभी तक अपने आपको ‘अंतरिम’ कह रही है और उसकी वैधता पर सभी राष्ट्र संतुष्ट नहीं है तो उसके भेजे हुए प्रतिनिधि को राजदूत मानने के लिए कौन तैयार होगा ? सिर्फ पाकिस्तान और क़तर कह रहे हैं कि शाहीन को सं.रा. में बोलने दिया जाए लेकिन सारी दुनिया प्रधानमंत्री इमरान खान की उस भेंटवार्ता पर ध्यान दे रही है, जो उन्होंने बी.बी.सी. को दी है। उसमें इमरान ने कहा है कि यदि तालिबान सर्वसमावेशी सरकार नहीं बनाएंगे तो इस बात की संभावना है कि अफगानिस्तान में गृहयुद्ध हो जाएगा। अराजकता, आतंकवाद और हिंसा का माहौल मजबूत होगा। शरणार्थियों की बाढ़ आ जाएगी। उन्होंने औरतों पर हो रहे जुल्म पर भी चिंता व्यक्त की है। इसमें शक नहीं कि तालिबान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है।
उन्होंने कहा है कि संयुक्तराष्ट्र पहले उन्हें मान्यता दे तो वे दुनिया की सलाह जरुर मानेंगे। संयुक्त राष्ट्र के सामने कानूनी दुविधा यह भी है कि वर्तमान तालिबान मंत्रिमंडल के 14 मंत्री ऐसे है, जिन्हें उसने अपनी आतंकवादियों की काली सूची में डाल रखा है। सं. रा. की प्रतिबंध समिति (सेंक्शन्स कमेटी) ने कुछ प्रमुख तालिबान नेताओं को विदेश-यात्रा की जो सुविधा दी है, वह सिर्फ अगले 90 दिन की है। यदि इस बीच तालिबान का बर्ताव संतोषजनक रहा तो शायद यह प्रतिबंध उन पर से हट जाए। फिलहाल रूस, चीन और पाकिस्तान के विशेष राजदूत काबुल जाकर तालिबान तथा अन्य अफगान नेताओं से मिले हैं। यह उनके द्वारा तालिबान को उनकी मान्यता की शुरुआत है। वे हामिद करजई और डाॅ. अब्दुल्ला से भी मिले हैं याने वे काबुल में मिली-जुली सरकार बनवाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत क्या कर रहा है ? हमारे राजदूत, विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री सिर्फ बातों की जलेबियां उतार रहे हैं। सीधे अफगान नेताओं से बात करने की बजाय वे दुनिया भर के अड़ौसियों-पड़ौसियों से ‘गहन संवाद’ में व्यस्त हैं। वे यह क्यों भूल रहे हैं कि भारत के राष्ट्रहितों की रक्षा करना उनका प्रथम कर्तव्य है।