प्रकाश करात का आरोप था कि अमेरिका को खुश करने के लिए भारत अपने न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल के ज़िम्मेदारी वाले क्लॉज को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है. परमाणु रिएक्टरों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन की निगरानी और न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल को लेकर माकपा की कई चिंताएं थीं. करात का कहना था कि फ्रांस और रूस ने भारत के साथ परमाणु रिएक्टर बेचने का करार किया है, लेकिन अमेरिका इससे पहले इस क्लॉज़ को बदलवाना चाहता है. भारत मुआवज़े के लिए हमारी बीमा कंपनियों के ज़रिये अमेरिकी कंपनियों को राहत देने का रास्ता खोलने की कोशिश में है, जो बिल्कुल ग़लत होगा. ग़ौरतलब है कि यह आशंका सच भी साबित हुई.
भारत में मेहमान को भगवान माना जाता है, लेकिन यहां भगवान के विरोध की भी परंपरा है. यही वजह है कि बहु-प्रचारित ओबामा का दौरा हुआ तो, लेकिन उसका विरोध भी हुआ. यह अलग बात है कि पहले की तुलना में विरोध की आवाज़ थोड़ी मद्धिम रही. इसकी राजनीतिक वजहें भी हैं. आज देश में विपक्ष की कमजोर स्थिति, खासकर वामपंथी पार्टियों की दुर्दशा की वजह से विरोध का स्वर उतना तीव्र नहीं गूंजा, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि लोकतंत्र में कमजोर विरोध की आवाज़ को स्थान ही न मिले. यह ज़रूरी है कि कम से कम विरोध की बुनियादी वजहों पर ज़रूर चर्चा हो. लेकिन, मौजूदा राजनीतिक हालात में इसकी गुंजाइश कम ही दिखती है.
पहले यह जानते हैं कि विरोध के स्वर कहां से निकले? मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कहना था कि मोदी सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के पूर्व ही अमेरिकी हितों के लिए काम कर चुकी है और ओबामा की यह यात्रा उसी क्रम का एक हिस्सा है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव प्रकाश करात का आरोप था कि अमेरिका को खुश करने के लिए भारत अपने न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल के ज़िम्मेदारी वाले क्लॉज को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है. परमाणु रिएक्टरों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन की निगरानी और न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल को लेकर माकपा की कई चिंताएं थीं. करात का कहना था कि फ्रांस और रूस ने भारत के साथ परमाणु रिएक्टर बेचने का करार किया है, लेकिन अमेरिका इससे पहले इस क्लॉज़ को बदलवाना चाहता है. भारत मुआवज़े के लिए हमारी बीमा कंपनियों के ज़रिये अमेरिकी कंपनियों को राहत देने का रास्ता खोलने की कोशिश में है, जो बिल्कुल ग़लत होगा. ग़ौरतलब है कि यह आशंका सच भी साबित हुई. मौजूदा बिल में प्रावधान था कि अगर रिएक्टर में हादसा होता है, तो उसे चलाने वाली कंपनी के साथ बेचने वाली कंपनी पर भी मुआवज़े के लिए दावा किया जा सकता है. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से पहले दोनों देशों के बीच परमाणु समझौते को लेकर कई विवाद थे, लेकिन अब इसमें बदलाव कर दिया गया है. सरकार समेत बीमा कंपनियां अब मुआवज़े का भुगतान करेंगी. इसके अलावा विरोध इस बात का भी था कि रिएक्टरों में इस्तेमाल और रिसाइकिल होने वाले ईंधन पर भी अमेरिका निगरानी रखना चाहता है. वैसे सरकार ने अमेरिका की इस मांग को ग़ैर ज़रूरी बताया है और इसे नहीं माना है.
कांग्रेस नेता राज बब्बर ने भी ओबामा दौरे के लिए दिल्ली और आगरा को नो फ्लाइंग जोन बनाने पर आपत्ति जताई. राज बब्बर ने कहा कि हम अपने आकाश और अपने मेहमानों को सुरक्षित करने में सक्षम हैं, लेकिन ओबामा के दौरे में इस सुरक्षा व्यवस्था को विदेशी शक्तियों के हाथों में गिरवी रखा जा रहा है. यह अलग बात है कि बाद में ओबामा का आगरा दौरा रद्द हो गया था. दिलचस्प रूप से जहां एक तरफ़ भारत सरकार की सभी एजेंसियां अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे को सफल बनाने की कोशिश कर रही थीं, वहीं भाजपा के ही एक सांसद चौधरी बाबूलाल ओबामा के काफिले का रास्ता रोकने की योजना बना रहे थे. वह आगरा में वकीलों के साथ थे, जो ओबामा के दौरे का विरोध कर रहे थे. वकीलों ने धमकी दी थी कि वे ओबामा को ताजमहल में दाखिल नहीं होने देंगे. वकीलों की मांग थी कि केंद्र सरकार आगरा में हाईकोर्ट की एक बेंच स्थापित करे. यह अलग बात है कि बाद में ओबामा का आगरा दौरा रद्द हो गया. इसके बाद भी अपनी मांग को लेकर वकीलों ने आगरा में प्रदर्शन किया. इस सबके अलावा, बराक ओबामा की भारत यात्रा का नक्सली संगठनों ने भी विरोध किया. नक्सलियों ने बाज़ार में दिनदहाड़े बैनर-पोस्टर टांगकर इस यात्रा का विरोध किया. गढ़चिरौली-महाराष्ट्र के कुआकोंडा थाना अंतर्गत ग्राम मोखपाल में लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार के दौरान माओवादियों ने दिनदहाड़े पहुंच कर बैनर और पोस्टर लगाए. स्थानीय लोगों के मुताबिक, नक्सलियों का एक समूह दिन के 11 बजे हाट में आकर जगह-जगह पोस्टर लगा गया. माओवादियों ने बैनर-पोस्टर में 26 जनवरी को बंद का आह्वान भी किया था.
बहरहाल, ओबामा का दौरा शांतिपूर्ण संपन्न हो चुका है. न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल पर भी सहमति बन चुकी है. आपदा की स्थिति में मुआवज़े की सीधी ज़िम्मेदारी से अमेरिकी कंपनियों को मुक्त कर दिया गया. भारत सरकार और बीमा कंपनियां मुआवज़े की ज़िम्मेदारी संभालेंगी. उक्त संगठनों का विरोध इस मायने में कहीं से भी कारगर साबित नहीं हुआ. अथवा यूं कहें कि उक्त विरोध स़िर्फ विरोध के लिए थे या रस्म निभाने के लिए. नक्सली संगठनों को किनारे रख दें, तो राजनीतिक दलों की ओर से भी स़िर्फ बयानबाजी हुई. किसी भी राजनीतिक दल (विपक्ष) ने न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल जैसे अहम मुद्दे पर अपनी बात जोरदार तरीके से नहीं रखी. हां, वामपंथी पार्टी सीपीआई और उसके कुछ संगठनों ने सड़कों पर ज़रूर थोड़े-बहुत प्रदर्शन किए. शायद विपक्ष अभी भी हताशा की स्थिति से बाहर नहीं निकल सका है. इसी का नतीजा है कि न स़िर्फ न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल, बल्कि भूमि अधिग्रहण और कोयले पर आए अध्यादेश आदि पर भी विपक्ष की ओर से कोई जोरदार विरोध के स्वर सुनाई नहीं दे रहे हैं. कम से कम किसी राजनीतिक दल को इन मुद्दों पर सड़क पर उतर कर अपनी बात कहते हुए नहीं देखा गया. अब देखना यह है कि विपक्ष संसद के भीतर क्या करता है?प