नोटबंदी से आम लोगों के साथ-साथ साधु-संत भी परेशान हैं. साधुसंतों के जीविकोपार्जन का मुख्य जरिया आम लोगों से मिली दान-दक्षिणा और भिक्षाटन ही होता है. लेकिन नोटबंदी के इस दौर में जबकि आम लोगों के पास पैसों की किल्लत हो गई है, साधुसंतों के लिए भी गुजर-बसर करना मुश्किल हो गया है.
इसका ज्यादा असर बनारस जैसी जगहों पर देखने को मिल रहा है, जहां के साधु समाज की कमाई का एकमात्र जरिया पूजा-पाठ ही है. इस बारे में बताते हुए स्वामी अभिषेक ब्रह्मचारी जी कहते हैं, हम साधु-संत भिक्षाटन करके उसका संग्रह करते हैं और फिर उसका प्रयोग अन्य साधुओं और गरीबों को भोजन कराने में करते हैं.
मैं अपनी बात बताऊं तो, जिस दिन नोटबंदी हुई उस दिन मैं पटना से बनारस लौट रहा था. उस दिन अक्षय नवमी का पर्व था. मेरे पास कुछ पैसे थे, जो 500 के नोट में ही थे. सोचा था कि बनारस पहुंचने पर इससे कुछ खरीद कर साधु-संतो और ब्राह्मणों को भोजन कराऊंगा. लेकिन जब तक बनारस पहुंचा, नोट बेकार हो चुके थे. इसके बाद दान-दक्षिणा में भी कमी आ गई.
रामचरितमानस में कहा गया है, ‘राजनीति बिनु धन हिन धर्मा, हरहि समर्पे बिनु सत्कर्मा.’ यानी राजा के पास नीति नहीं रहने पर वह राज नहीं कर पाएगा और धन नहीं है तो धर्म नहीं कर पाएगा. तो वही बात है. यहां तो नीति के कारण लोगों को परेशानी झेलनी पड़ रही है. इस नोटबंदी के फैसले के कारण आम लोगों की दिक्कतें हमें भी प्रभावित कर रही हैं. साधु-संत कोई बिजनेस-व्यापार तो करते नहीं हैं.
हमारा जीवनयापन भिक्षा पर ही निर्भर है. हाल ये है कि एक जगह से हमें यह सुनने को मिला कि स्वामी जी, हम आपको केवल सब्जी ही खिला पाएंगे, रोटी नहीं खिला सकते हैं. हाल ही में जब मैं एक यजमान के घर गया, तो सुनने को मिला कि आज आपको जलपान नहीं करा सकेंगे क्योंकि घर में सिंघाड़े का आटा नही है. यह एक साधन संपन्न घर की कहानी है.
सरकार के द्वारा कैशलेस इकोनॉमी की बात भी साधु-संतों के गले नहीं उतर रही है.
जो साधु-महात्मा अब तक बैंकों के दरवाजों पर नहीं गए, जो लोगों के द्वारा दिए पैसों से अपनी जरूरतें पूरी करते रहे हैं, वे कैशलेस इकोनॉमी में कैसे रह पाएंगे, यह सवाल साधु-संतों को परेशान कर रहा है. एक धारणा रही है कि मोदी सरकार साधु-संतो की हितैसी है, लेकिन सरकार के द्वारा नोटबंदी के कदम से साधु-संतों की परेशानी इस धारणा को तोड़ रही है.
स्वामी अभिषेक ब्रह्मचारी जी का कहना है, जहां तक किसी के राजनीतिक विरोध या समर्थन की बात है, तो मैं बता दूं कि साधु समाज किसी का भी नहीं होता. जैसे भगवान की कृपा किसी पर स्थाई नहीं होती, वैसे ही हमारी कृपा भी किसी पर हमेशा के लिए नहीं होती. जो साधु अपने घरवालों को छोड़कर चल देता है, उनका नहीं होता, वह किसी राजनीतिक दल या नेता का क्या होगा.
रही बात किसी के द्वारा इसके समर्थन की, तो बहुत से लोग होते हैं, जो सत्ता के विरुद्ध नहीं बोलना चाहते. लेकिन हम साधु-संत इसके कारण परेशान हो रहे हैं, तो बोलेंगे ही. सरकार को चाहिए कि लोगों को इस परेशानी से निजात दिलाने के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था करे.