बिहार में एक नई स्थिति बन रही है. विधायिका और कार्यपालिका आमने-सामने आ रही हैं. बिहार विधान परिषद के तीन सदस्यों ने उत्पाद एवं मद्यनिषेध विभाग के तत्कालीन प्रधान सचिव और वरिष्ठ आइएएस केके पाठक के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की नोटिस दी है. भारतीय जनता पार्टी के नवल किशोर यादव, लालबाबू प्रसाद व रजनीश कुमार ने इसी तरह की सूचना अलग-अलग दी है. परिषद के इन तीनों सदस्यों का कहना है कि विधान परिषद में कही गई बातों के प्रतिवाद में वकील की नोटिस भेज कर केके पाठक ने उनके विशेषाधिकार का हनन किया है. परिषद ने इन तीनों सदस्यों की सूचना को ग्रहण कर लिया है और इस पर जल्द ही निर्णय लिया जाना है. केके पाठक ने इन तीनों को वकील के जरिए नोटिस भिजवाया है. इसमें परिषद में उत्पाद व मद्यनिषेध के कामकाज को लेकर की गई टिप्पणी का हवाला देकर उनसे माफी मांगने या कानूनी कार्रवाई के लिए तैयार रहने को कहा है. हालांकि नवल किशोर यादव ने दावा किया है कि उन्होंने इस विभाग या सूबे में शराबबंदी को लेकर सदन में कोई बात कही ही नहीं है. इसी साल जुलाई के अंतिम दिनों बिहार की नई उत्पाद नीति को लेकर विधान मंडल के दोनों सदनों में काफी महत्वपूर्ण चर्चा हुई थी. इस चर्चे की शुरुआत भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने विपक्ष के नेता के तौर पर की थी. इसमें भाजपा के कई सदस्यों ने हिस्सा लिया था, पर वह इनमें शामिल नहीं थे. फिर भी उन्हें नोटिस भेज दिया गया है. लेकिन उन्होंने कुछ कहा ही नहीं है, यदि कहा भी होता तब भी केके पाठक का यह कदम विधायिका की मर्यादा पर हमला है. यह निरंकुश मानसिकता की उत्कट अभिव्यक्ति है और इस पर लगाम लगाना बहुत जरुरी है. इन नोटिसों को उन्हें विचार के लिए स्वीकार किया जाना है.
सूबे में इस साल अप्रैल में पहले आंशिक और फिर पूर्ण रूप से शराबबंदी लागू कर दी गई. कड़क और इकबाली आइएएस केके पाठक को इस जिम्मेदारी के लिए सबसे उपयुक्त माना गया और उत्पाद व मद्यनिषेध विभाग का प्रधान सचिव बनाया गया. अपनी इमानदारी, कामकाज में सख्ती, कानून के प्रति सम्मान को लेकर पाठक की बड़ी ख्याति रही है. अपने ऐसे अनेक गुणों के कारण ही वह बार-बार चर्चा में आते रहे हैं और कहीं लंबे समय तक टिक न पाना उनकी नियति बन गई है. किसी इकबाली राजनेता या उच्च अधिकारी या अपने अधीनस्थ अधिकारी-कर्मचारी के विरोध के कारण हर जगह उन्हें पदमुक्त होना पड़ा है. अपने इन्हीं गुणों की वजह से उत्पाद व मद्यनिषेध विभाग से उनकी विदाई हुई. नालंदा जिले की जिस घटना को लेकर पाठक को विभाग छोड़ना पड़ा, उसमें विभाग के अधिकारी-कर्मचारी उनके स्टैंड से काफी संतुष्ट थे, लेकिन इससे क्या? विशेषाधिकार हनन नोटिस का तो उन्हें सामना करना ही होगा, वह जिस किसी विभाग में पदस्थापित रहें. हालांकि यह विस्मयकारी है कि एक वरिष्ठ आइएएस को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि विधानमंडल या संसद में उठे मसलों का खंडन (या सफाई) सदनो में ही हो सकता है. ऐसे मसले पर कानूनी नोटिस विवेक-सम्मत नहीं है. कई हलकों में माना जा रहा है कि केके पाठक ने समझ-बूझ कर ही ऐसा किया होगा, उनके पास कोई ठोस तर्क जरूर होगा. विधान परिषद की विशेषाधिकार समिति क्या फैसला लेती है या पाठक क्या तर्क देते हैं, यह तो अभी देखना है. लेकिन शराबबंदी अभियान की कमजोरियों पर सवाल उठाने वाले-वे चाहे जिस हलके के हों- इस आइएएस के निशाने पर रहे हैं, यह खबर बार-बार आती रही है. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने विधान परिषद में मुख्यमंत्री से कह दिया था कि विभाग के कामकाज की आलोचना करने के कारण उक्त अधिकारी ने उन पर दस-दस मुकदमे कर दिए. मोदी ने इस अधिकारी पर अंकुश लगाने की बात कही थी. मोदी जब ऐसा कह रहे थे, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सदन में ही थे. लेकिन इन बातों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी.
इस विशेषाधिकार सूचना पर परिषद की समिति के रूख का पता बैठक के बाद ही चलेगा. माना जा रहा है कि इसे विचार के लिए स्वीकार कर लिया जाएगा. इसके बाद ही सत्ता राजनीति के रूख का भी संकेत मिल सकेगा. बेहतर शासन व्यवस्था के लिए जरुरी है कि सत्ता के सभी अंग समन्वित और सुचारू रूप से काम करें. इसीलिए सरकार का राजनीतिक नेतृत्व अपने किसी अंग को नाराज नहीं करना चाहता है.
यह कहना कठिन है कि इस बार सूबे के सीनियर आइएएस अधिकारी को लेकर दाखिल इस विशेषाधिकार नोटिस का भविष्य क्या होगा? लेकिन फिलहाल राजनीतिक गलियारे में इसकी चर्चा अभी भले कम हो, खामोश नौकरशाही इसकी भावी परिणति की प्रतीक्षा कर रही है. यह सही है कि केके पाठक मिलनसार और लोकप्रिय अधिकारी नहीं हैं. यह भी सही है कि अपने गैर समझौतावादी और अड़ियल रवैये के कारण अपने प्रत्येक पदस्थापन से विवादित होकर ही वे मुक्त होते रहे हैं. लेकिन यह भी सच है कि नियम-कानून का अक्षरशः पालन करने के साथ-साथ कई अन्य मामले में उनकी जोड़ का अधिकारी कम ही मिलता है, उन्हें मिसाल के तौर पर याद किया जाता है. इसके साथ ही एक बात और उत्पाद व मद्यनिषेध विभाग के प्रधान सचिव पद से उनकी विदाई की पृष्ठभूमि की वजह वह अपने सहकर्मियों के साथ-साथ अनेक सामाजिक समूहों में सकारात्मक छवि हासिल कर चुके हैं. पाठक ने सूबे के मुख्य विपक्षी दल भाजपा और इसके सबसे कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी को ही निशाने पर ले रखा था. यह उनके लिए और इस लिहाज से सरकार लिए भी परेशानी का सबब बन सकता है.
बिहार के सत्ताधारी महागठबंधन के लिए प्रशांत किशोर का मसला भी कम परेशानी का कारण नहीं है. प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार के सात निश्चय के कार्यान्वयन के संदर्भ में उन्हें सरकार को सलाह देनी है. सात निश्चय से संबंधित विभागों को प्रशांत किशोर के साथ तालमेल बना कर काम करना है. बिहार विकास मिशन की पूरी व्यवस्था को पटरी पर लाने की अनौपचारिक जिम्मेदारी उन्हें दी गई थी. लेकिन वह पिछले कई महीनों से बिहार से अपनी टीम के साथ बाहर हैं. कांग्रेस ने पहले तो पंजाब विधानसभा चुनाव में अपने चुनाव अभियान की रणनीति के लिए उन्हें दल सलाहकार बनाया, फिर उत्तर प्रदेश भेज दिया. फिलहाल, वह अपनी टीम के साथ लखनऊ में जमे हैं और कांग्रेस की चुनावी रणनीति तैयार कर उसे सार्थक बनाए रखने की कोशिश में जुटे हैं. बिहार के राजनीतिक हल्कों में कहा जा रहा है कि वह कांग्रेस के नम्बर एक परिवार और नीतीश कुमार के बीच अनौपचारिक तौर पर सेतु का काम कर रहे हैं. इसलिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद भी उनके बिहार से बाहर रहने की ही संभावना है.
मुख्यमंत्री के सात निश्चयों को जमीन पर उतारने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है. सातों निश्चय के लिए सरकार धन जारी कर रही है, विकास मिशन के लिए उपयुक्त कर्मियों की खोज तेज कर दी गई है. यह सब कुछ प्रशांत किशोर की गैर मौजूदगी में हो रहा है. विधानसभा चुनाव के बाद प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति और नौकरशाही में सबसे अधिक चर्चित नाम बन गया था. मुखयमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक व प्रशासनिक निर्णयों में उनकी राय की अहमियत बढ़ गई. जदयू संगठन को नया आकार देने, इसके कार्यालयों को हाई-फाई और पदाधिकारियों को हाई-प्रोफाइल बनाने की उन्होंने पहल आरंभ कर दी. प्रशासन के स्तर पर नौकरशाही को अधिक सक्रिय, जिम्मेदार, परिणाम-मुखी और आईटी सेवी बनाने का रोड-मैप तैयार कर लिया. वस्तुतः सूबे में महगठबंधन सरकार में एक नया सत्ता केंद्र विकसित होने लगा था. राजनीति और प्रशासन में बहुत बड़े तबके को यह स्थिति स्वीकार नहीं थी. देश में सत्ता से दूर होती जा रही कांग्रेस को प्रशांत किशोर में एक सीढ़ी दिखी, कांग्रेस का ऑफर आया और बहुतों ने राहत की सांस ली. बिहार का मौजूदा नेतृत्व प्रशांत किशोर को लेकर बड़ा ही संवेदनशील है. इस मसले पर उठने वाले सवालों का तुरंत जवाब मिलता रहा है. यह सत्ता शराबबंदी को लेकर भी इसी तरह संवेदनशील है. शराबबंदी अभियान की किसी भी गड़बड़ी को उजागर करने के किसी के भी प्रयास को सत्ता अपना विरोध ही मानने लगी है. विपक्ष इन दोनों मसलों पर सरकार को बार-बार घेर रहा है. इसी माहौल में केके पाठक के खिलाफ विशेषाधिकार का मसला उठ आया है. यह अनेक संभवनाओं को समेटे हुए है. राजनेताओं व नौकरशाहों का बड़ा तबका इस नाजुक मसले पर सरकार के रूख की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है. सरकार के रूख से इन तबकों को अपनी भावी कार्य योजना तैयार करने में मदद मिलेगी.