बिहार विधानसभा चुनावों के बाद से ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), कुछ अपवादों को छोड़कर, सूबे में कभी सुगठित नहीं दिखा. अब तो इस पर जमा गर्द-ओ-गुबार भी दिखने लगा है. विधानमंडल के सदनों में व्यावहारिक तौर पर एनडीए तो है ही नहीं, विधानसभा में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का कोई सदस्य नहीं है, जबकि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के दो और हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के एक सदस्य हैं. सदन में एनडीए के नाम पर बाकी सभी प्रतिपक्षी विधायक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के ही हैं. विधान परिषद में भी हम के दो सदस्यों को छोड़ कर बाकी एनडीए के अन्य सभी भाजपा के ही हैं.

सदन के बाहर की हालत भी इससे बेहतर नहीं है. पिछले एक साल में बिहार की राजनीति में एनडीए की वक़त कभी-कभी मात्र इसलिए दिखती रही है कि यह गठबंधन केंद्र में सत्ता में है. हालांकि भाजपा का एक सुगठित संगठन है और यह अनुशासित कार्यकर्ता की बदौलत अपनी राजनीति को आगे बढ़ाती है, पर एनडीए के अन्य सारे घटक दल सुप्रीमो संस्कृति के पोषक ही हैं. पर जहां अहं का टकराव होता है, वहां से पार्टी की गुटीय गतिविधि खबरों में होती है. ऐसे ही टकराव को बिहार ने रालोसपा में देखा और यह दो गुटों में बंट गई-कुशवाहा और अरुण गुट. हालांकि दोनों गुट एनडीए में ही हैं. लोजपा में किसी नेता की वैसी हैसियत ही नहीं है, जिससे किसी के अहं को पोषक तत्व मिले. हम में इतनी ताकत ही नहीं बची कि पार्टी के भीतर किसी उथल-पुथल को ऊर्जा मिल सके.

सो, एनडीए के नाम पर बिहार की राजनीतिक सरज़मीन पर जो कुछ दिखता है, उसका नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा भाजपा ही है. विधानसभा चुनावों में पराजय के बावजूद पिछले वर्ष के शुरुआती महीनों में सूबे में एनडीए की वक़त दिखती रही. यहां एनडीए का गत साल का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक अभियान आक्रोश मार्च रहा था. इस आक्रोश मार्च के कुछ पहले तक सूबे में बृजनाथी सिंह (लोजपा) और विश्वेश्वर ओझा (भाजपा) सहित कई राजनेताओं की हत्या हुई, निर्माण कंपनियों के लोगों की हत्या हुई, पटना सहित सूबे के कई नगरों में व्यवसायियों की हत्या हुई, सूबे में अपहरण की बड़ी-बड़ी वारदातें हुईं… और भी बहुत कुछ हुआ.

इन सब के विरोध में एनडीए ने कई जिलों में धरना-प्रदर्शन किए, जिसकी परिणति पटना में आक्रोश मार्च से हुई. इससे लोगों को सार्थक और आक्रामक प्रतिपक्षी राजनीति की उम्मीद जगी, लेकिन यह पूरी नहीं हुई. एनडीए की सक्रियता आक्रोश मार्च तक ही सीमित रह गई. किसी राजनीतिक अभियान के अभाव में दलों के भीतर चाटुकारिता और नकारात्मक गतिविधि बढ़ जाती है. बिहार एनडीए में क्या हुआ, यह कहना तो कठिन है, पर दलों के अंदरखाने और गठबंधन दलों के बीच  राजनीतिक मतभिन्नता बढ़ने लगी. हालांकियह सही है कि रालोसपा को छोड़ कर कहीं और ऐसी गतिविधि कभी कोई आकार नहीं ले सकी,

रालोसपा दो गुटों में बंट गई. रोचक बात यह है कि दोनों गुट एनडीए में ही हैं. गठबंधन के दलों को एकजुट रखना गठबंधन के नेतृत्वकारी दल की अघोषित-अलिखित नैतिक जिम्मेवारी होती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. भाजपा ने इससे अपने को वैसे ही दूर रखा, जैसे कोई विरोधी दल खुद को रखता है.

यह बे-खबरी गठबंधन में किसी समन्वित राजनीतिक अभियान के नहीं होने से बनती है. बिहार में एनडीए फिलहाल इसी दौर में है. गत वर्ष के आरंभिक महीनों में हुए आक्रोश मार्च के बाद सूबे में एनडीए ने कोई बड़ा राजनीतिक अभियान नहीं चलाया, चाहे यह महागठबंधन सरकार के विरोध में हो या केंद्र की मोदी सरकार के समर्थन में. सूबे में टॉपर्स घोटाले के बाद एनडीए के घटक दल किसी समन्वित आंदोलन की रूपरेखा तैयार नहीं कर सके. बाढ़ त्रासदी पर दौरों और बयानों का दौर चला, पर पार्टियों की ओर से. ऐसे अभियान में एनडीए कहीं नहीं था, ऐसे बहुत सारे मामले हैं.

इनमें शराबबंदी के काले कानून का विरोध और नोटबंदी के समर्थन का अभियान भी शामिल है. दलों में समन्वय और विचार प्रक्रिया के लिए शीर्ष फोरम के अभाव में ऐसा ही होता है. बिहार में 2013 में तत्कालीन एनडीए के विघटित होने के पहले तक एक समन्वय समिति थी. हम के सुप्रीमो जीतनराम मांझी व अन्य नेताओं ने इस मसले को उठाया, पर भाजपा ने कोई ध्यान नहीं दिया. इस स्थिति में जो होना चाहिए, वह हो रहा है, जो बिहार को दिख भी रहा है.

बिहार एनडीए में फिलहाल गठबंधन के नेता भाजपा का नीतीश कुमार के प्रति नरम रुख और उत्तर प्रदेश चुनाव में घटक दलों को हिस्से की मांग बड़ा मसला बन कर उभरा है. पहले उत्तर प्रदेश की बात. भाजपा को छोड़कर बिहार एनडीए के सभी घटक दलों-लोजपा, रालोसपा और

हम-ने उतर प्रदेश में चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है. लोजपा के अनुसार वह अपने उम्मीदवार देगी, पर एनडीए की छतरी में ही. रालोसपा के नेता उपेन्द्र कुशवाहा ने कहा है कि उनका दल वहां चुनाव लड़ेगा. एनडीए यदि मौका नहीं देगा तो अकेले लड़ेगा. यूपी विधानसभा की कोई सत्तर सीटों पर इसकी नज़र है. कुशवाहा बहुल इन सीटों पर रालोसपा (कुशवाहा गुट) अपना भविष्य देखती है. हम के सुप्रीमो जीतनराम मांझी भी वहां चुनाव लड़ने का दावा कर चुके हैं. उन्होंने साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी एनडीए की छतरी के नीचे ही चुनाव में उतरना पसंद करेगी. लेकिन हम नेताओं पर भरोसा करें तो इस दल की उत्तर प्रदेश के कुछ दलों से बातचीत चल रही है.

हालांकि भाजपा इस दावे को दबाव की रणनीति ही मान रही है. वस्तुतः इन तीनों दलों की ये बातें उनकी भावी राजनीति का रणनीतिक खुलासा है. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान बिहार और इस लिहाज से राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पारी का अवसान निकट पा रहे हैं. ऐसे में उनकी पूरी राजनीति पुत्र चिराग को स्थापित करने की है. लिहाजा बिना किसी ‘अगर-मगर’ के भाजपा की राजनीति के साथ हैं. भाजपा की नज़र में, उपेन्द्र कुशवाहा की अब बहुत उपयोगिता नहीं रही है.

भाजपा का मानना है कि उन्हें साथ रखने का विधानसभा चुनावों में कोई लाभ नहीं मिला और शायद आगे भी नहीं मिलेगा. भाजपा रालोसपा के अरुण गुट को ज्यादा उपयोगी मानता है, पर उत्तर प्रदेश चुनाव तक किसी नकारात्मक संकेत से बचने की रणनीति के तहत भाजपा नेतृत्व खामोश है. बिहार में भाजपा जीतनराम मांझी को साथ रखने की पक्षधर है. भाजपा का प्रांतीय नेतृत्व मानता है कि महादलित के बड़े तबके में मांझी की अहमियत है और इसका राजनीतिक लाभ लिया जा सकता है. पर, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में एनडीए के अपने इन बिहारी सहयोगियों और इनके दावों को लेकर भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व क्या करता है, यह कहना कठिन है.

बिहार एनडीए में इन दिनों सबसे अधिक परेशानी नीतीश कुमार को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के बदलते नजरिए और उससे बनते नए रिश्तों को लेकर है. बिहार में मुख्य विपक्षी होने के बावजूद भाजपा नीतीश कुमार के बदले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को ही निशाने पर लेती रही. नीतीश कुमार पर हमले के लिए वह शराबबंदी कानून की ‘काली धाराओं’  का उपयोग करती रही. बिहार का यह मुख्य प्रतिपक्षी दल सूबे में बढ़ते भ्रष्टाचार, आर्थिक अव्यवस्था व कुशासन को भी निशाने पर लेता रहा है, पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित अन्य केन्द्रीय

नेताओं के नीतीश प्रेम ने इस पर ब्रेक लगा दिया है. इसका नतीजा यह हुआ कि उसी शराबबंदी कानून के समर्थन में मानव श्रृंखला में भाजपा के नेता शामिल हुए, जिसके काले कानूनों के खिलाफ वे राज्यपाल तक गए थे. इतना ही नहीं, मकर संक्रांति के दिन नाव हादसे को लेकर नीतीश कुमार की सरकार पर सीधा हमला करने व उनसे इस्तीफा मांगने के लिए बिहार के पार्टी नेताओं को घंटों मशक्कत करनी पड़ी.

कहते हैं, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से अनुमति मिलने के बाद ही नाव हादसे के लिए मुख्यमंत्री को कटघरे में खड़े करने का बयान दिया गया और उनसे इस्तीफा मांगा गया. शुरू में कई घंटों तक भाजपा का प्रदेश नेतृत्व नख-दंतहीन बना रहा. मानव श्रृंखला को लेकर एनडीए के तीन दल- भाजपा, रालोसपा और लोजपा- एक तरफ थे और मांझी का हम दूसरी तरफ. मांझी का कहना था कि हमने शराबबंदी कानून के काले प्रावधानों का विरोध किया था. उन प्रावधानों के रहते हम शराबबंदी के पक्ष में कैसे खड़े हो सकते हैं? इसका उपयुक्त जवाब देने में एनडीए के अन्य दल विफल हैं.

बिहार में भाजपा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में पुराने रिश्तों के नवीनीकरण की प्रक्रिया अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई है. इसी तरह, एनडीए में अंतर्विरोधों के घाव अभी ठीक से पके भी नहीं हैं. इसे तो अभी पकना और फूटना है. भाजपा फिलहाल नीतीश कुमार को नजदीक लाने की हरसूरत कोशिश कर रही है. भाजपा और जद (यू) की ये नजदीकियां एनडीए में अंतर्विरोध और उसकी अभिव्यक्ति की गुंजाइश बढ़ाएगी ही, सत्तारूढ़ महागठबंधन में नई गतिविधियों को भी जन्म देगी. यह माहौल सूबे में नए राजनीतिक समीकरण की जमीन तैयार करेगा. इस बारे में सोचने के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी, कम से कम राष्ट्रपति चुनाव तक.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here