किसान आंदोलन गंभीर रुप धारण करता जा रहा है। तीन हफ्ते बीत गए, लेकिन इसका कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ रहा है। कृषि मंत्री और गृहमंत्री के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन कितनी विचित्र स्थिति है कि अब सर्वोच्च न्यायालय को बीच में पड़ना पड़ रहा है। मुझे नहीं लगता कि अदालत की यह मध्यस्थता भी कुछ मददगार हो पाएगी, क्योंकि किसान इस पर अड़े हुए हैं कि सरकार इन तीनों कृषि सुधार कानूनों को वापस ले ले और सरकार किसानों को यह समझाने में लगी है कि ये कानून उनके फायदे के लिए ही बनाए गए हैं।
यह आंदोलन किसानों का है लेकिन विरोधी दलों की चांदी हो गई। उनके भाग्य से छत्ता टूट पड़ा है। पिछले छह साल में मोदी सरकार ने कई भयंकर भूलें कीं लेकिन विपक्ष उसका बाल भी बांका नहीं कर पाया लेकिन किसानों के बहाने विपक्ष के हाथ में अब ऐसा भौंपू आ गया है, जिसकी दहाड़ें देश और विदेशों में भी सुनी जा सकती हैं।
इस विसंगति के लिए मोदी सरकार की जिम्मेदारी कम नहीं है। उसने ये तीनों कृषि-कानून आनन-फानन बनाए और कोरोना के दौर में संसद से झटपट पास करा लिए। न तो उन पर संसद में जमकर बहस हुई और न ही किसानों से विचार-विमर्श किया गया। जैसे नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक और नागरिकता संशोधन कानून एक झटके में थोप दिए गए, वही किसान-कानून के साथ किया गया। सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन उठ खड़ा होगा।
यह ठीक है कि यह आंदोलन विलक्षण है। देश में ऐसा आंदोलन पहले कभी नहीं हुआ। कड़ाके की ठंड में हजारों किसान तंबुओं और खुले आसमान के नीचे डटे हुए हैं। पंजाब और हरयाणा के इन किसानों के लिए खाने-पीने, बैठने-सोने और नित्य-कर्म का जैसा इंतजाम हम टीवी चैनलों पर देखते हैं, उसे देखकर दंग रह जाना पड़ता है। कोई राजनीतिक दल अपने प्रदर्शनकारियों के लिए ऐसा शानदार और सलीकेदार इंतजाम कभी नहीं कर सका। यह विश्वास ही नहीं होता कि जो लोग धरने पर बैठे हैं, वे भारत के गरीब किसान हैं।
इन किसानों पर यह आरेाप लगाना अनुचित है कि ये सब खालिस्तानी या पाकिस्तानी इशारों पर उचके हुए हैं। यह ठीक है कि वे सब भारत-विरोधी तत्व इस आंदोलन से प्रसन्न होंगे और हमारे अपने विरोधी दल भी इसमें क्यों नहीं अपनी रोटियां सेकेंगे, चाहे कल तक वे अपने चुनावी घोषणा पत्रों में इसी नीति का समर्थन करते रहे हों लेकिन हमारे किसानों की सराहना करनी पड़ेगी कि उन्होंने इन विघ्नसंतोषी नेताओं को जरा भी भाव नहीं दिए। वे स्वयं ही सरकार से बातें कर रहे हैं। इस आंदोलन को ब्रिटेन और कनाडा के कुछ भारतवंशियों का भी समर्थन मिल रहा है।
लेकिन भारत की आम जनता बड़े असमंजस में है। अपने किसानों के लिए उसके दिल में प्रेम और सम्मान तो बहुत है लेकिन उसकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इन कानूनों से किसानों को क्या नुकसान होनेवाला है। सरकार ने वायदा किया है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य कायम रखेगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंकड़े देकर बताया है कि उनकी सरकार ने किसानों की गेहूं और धान की फसलों की खरीद में कितनी बढ़ोतरी की है और उन्हें कितनी ज्यादा कीमतों पर खरीदा है।
कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने लिखित आश्वासन दे दिया है कि समर्थन मूल्य की नीति कायम रहेगी और मंडी-व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। यदि किसान बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर खेती करना चाहेंगे और अपना माल मंडियों के बाहर बेचना चाहेंगे तो उन्हें यह सुविधा भी मिलेगी। यदि कंपनियों और किसानों के बीच कोई विवाद हुआ तो वे सरकारी अधिकारियों नहीं, अदालतों के शरण में जा सकेंगे। सरकार ने उपजों के भंडारण की सीमा भी खत्म कर दी है।
सरकार और अनेक कृषि विशेषज्ञों की राय है कि इन कानूनों से भारतीय खेती के आधुनिकीकरण की गति बहुत तेज हो जाएगी। किसानों को बेहतर बीज, सिंचाई, कटाई, भंडारण और बिक्री के अवसर मिलेंगे। अब तक भारतीय किसान एक एकड़ में जितना अनाज पैदा करता है, वह चीन और कोरिया जैसे देशों के मुकाबले एक-चौथाई है। भारत में खेती की जमीन दुनिया के ज्यादातर देशों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है।
देश में किसानों की संख्या का अनुपात भी अन्य देशों के मुकाबले कई गुना है। पंजाब, हरयाणा और उत्तरप्रदेश के मुट्ठीभर किसानों के अलावा भारतीय किसानों की हालत अत्यंत दयनीय है। लेकिन हमारे किसान नेताओं का कहना है कि ये तीनों कानून थोपकर यह सरकार किसानों की अपनी गर्दन पूंजीपतियों के हाथ में दे देने की साजिश रच रही है। धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था खत्म होती चली जाएगी, मंडियां उजड़ जाएंगी और आढ़तिए हाथ मलते रह जाएंगे।
किसानों में यह शंका इतनी ज्यादा घर कर गई है कि अब सरकार या अदालत शायद इसे दूर नहीं कर पाएगी। अभी तक तो किसानों ने सिर्फ रेल और सड़कों को ही थोड़े दिन तक रोका है लेकिन यदि वे तोड़-फोड़ और हिंसा पर उतारु हो गए तो क्या होगा ? सरकार हाथ पर हाथ धरे तो बैठ नहीं सकती। यदि वह प्रतिहिंसा पर उतर आई तो आम जनता की सहानुभूति भी किसानों के साथ हो जाएगी।
ऐसी स्थिति में अब सरकार क्या करे? वह चाहे तो राज्यों को छूट दे दे। जिन राज्यों को यह कानून लागू करना हो वे करें, जिन्हें न करना हो, न करें। या फिर सरकार आंदोलनकारी समर्थ किसानों के मुकाबले देश के सभी किसानों के समानांतर धरने-प्रदर्शन आयोजित करे या वह इन कृषि-कानूनों को वापस ले ले।
अब भी देश के 94 प्रतिशत किसान एमएसपी की दया पर निर्भर नहीं हैं। वे मुक्त हैं, किसी भी कंपनी से सौदा करने, अपना माल खुले बाजार में बेचने और अपनी खेती का आधुनिकीकरण करने के लिए। इन कानूनों के रहने या न रहने से उनको कोई खास फायदा या नुकसान नहीं है।
केंद्र सरकार चाहे तो केरल की कम्युनिस्ट सरकार की तरह, जैसे 16 सब्जियों पर उसने समर्थन मूल्य घोषित किए हैं, वैसे दर्जनों अनाज, फल और सब्जियों पर भी घोषित कर सकती है। उन्हें वह खरीदे ही यह जरुरी नहीं है। सरकार किसानों पर कृपा करने का श्रेय-लाभ लेने की बजाय उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दे तो क्या बेहतर नहीं होगा ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक