कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की हालत एक ऐसे अदूरदर्शी और आत्ममुग्ध नेता जैसी है, जो हर वक्त अपनी तारीफ़ सुनने को बेताब रहता है. वह जब भी आदिवासियों का ज़िक्र करते हैं, तो नियमगिरि का नाम लेना नहीं भूलते. उनकी मानें, तो नियमगिरि की पहाड़ियों पर वेदांता को बॉक्साइट खनन की अनुमति कांग्रेस की वजह से ही नहीं मिली. हालांकि, राज्य के कलिंगनगर और काशीपुर में खनन का विरोध कर रहे आदिवासियों को जब पुलिस मौत के घाट उतार रही थी, उस वक्त राहुल गांधी दिल्ली में आराम फरमा रहे थे. इतना ही नहीं, राज्य के जगतसिंहपुर ज़िले में कोरियाई इस्पात कंपनी पॉस्को को पर्यावरणीय मंजूरी के बाद भी राहुल गांधी ने वहां संघर्षरत किसानों के बारे में एक अल्फाज़ तक नहीं कहा. आख़िर क्यों राहुल गांधी नियमगिरि आंदोलन का झूठा श्रेय लेना चाहते हैं, पढ़िए चौथी दुनिया की यह रिपोर्ट…
हिंदी में एक देसी कहावत है ठकुरसुहाती, जिसका मतलब होता है अपने स्वामी की चापलूसी करना. दरअसल, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए यह कहावत काफ़ी समीचीन प्रतीत होती है, क्योंकि उन्हें झूठी वाहवाही में खूब आनंद आता है. राहुल इसी तरह मुग़ालते में जिएं, ऐसी सोच रखने वाले चापलूस नेताओं की कांग्रेस में कोई कमी नहीं है. राहुल गांधी के संदर्भ में यह बात इसलिए कह रहा हूं कि पिछले दिनों वह ओडिशा आए थे. कटक ज़िले के सालेपुर में उन्होंने एक जनसभा को संबोधित किया था. अपने संबोधन में उन्होंने सत्तारूढ़ नवीन पटनायक सरकार पर जमकर निशाना साधा. अपने भाषण में राहुल ने कहा कि ओडिशा में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बावजूद इसके प्रदेश में ग़रीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसके लिए उन्होंने नवीन पटनायक नीत बीजद सरकार को न स़िर्फ ज़िम्मेदार बताया, बल्कि उन्हें राज्य के खनिज संसाधनों का लुटेरा भी बताया. कटक की जनसभा में जनता से मुखातिब राहुल ने कहा कि केंद्र सरकार ओडिशा के लिए काफ़ी कुछ करना चाहती है. अगर इस बार पुन: यूपीए की सरकार बनती है, तो प्रदेश में ग्रामीण विकास की कई योजनाएं शुरू की जाएंगी.
अब बात करते हैं नियमगिरि की, जिसके बारे में राहुल कटक से पहले भी कई बार बोल चुके हैं. दरअसल, नियमगिरि की पल्ली सभाओं (ग्रामसभाओं) में वेदांता की बॉक्साइट परियोजना को नकारने का श्रेय कांग्रेस अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी को देने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. किस्सा कुछ इस प्रकार है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष ने वर्ष 2008 और 2010 में नियमगिरि क्षेत्र का दौरा किया और डोंगरिया कोंध आदिवासियों की आवाज़ दिल्ली तक पहुंचाने का वादा किया था. ओडिशा के कालाहांडी से कांग्रेस के सांसद भक्त चरण दास भी इस मामले में राहुल गांधी को श्रेय देने से बिल्कुल नहीं चूकते हैं. उनके मुताबिक़, राहुल गांधी के 2008 और 2010 के दौरे के बाद ही नियमगिरि की तस्वीर बदली. वहीं इस बारे में नियमगिरि सुरक्षा समिति के नेता एवं समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय सचिव लिंगराज आज़ाद ने चौथी दुनिया को बताया कि नियमगिरि की जीत के असली हक़दार वहां के आदिवासी हैं, न कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी.
लिंगराज के अनुसार, वर्ष 2008 में राहुल गांधी ने नियमगिरि की पहाड़ियों पर बसे इजरूपा गांव के आदिवासियों से मुलाक़ात की थी. राहुल ने स्वयं को आदिवासियों का सिपाही बताया था, लेकिन 2010 के बाद उन्होंने एक बार भी नियमगिरि का रुख़ नहीं किया. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हुई पल्ली सभाओं और उसमें मिली जीत के बाद भी राहुल गांधी की ओर से कोई बयान नहीं आया. एक तरफ़ राहुल गांधी खुद को आदिवासियों का हितैषी बताते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ ओडिशा के कई ज़िलों में खनन परियोजनाओं का विरोध कर रहे ग़रीब आदिवासियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. आख़िर इस बारे में राहुल गांधी एक शब्द भी क्यों नहीं बोलते?
ग़ौरतलब है कि नियमगिरि की पहाड़ियों में बसे डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने पिछले साल 19 अगस्त को रायगढ़ा ज़िले की जरपा गांव में संपन्न हुई अंतिम पल्ली सभा में भी ब्रितानी कंपनी वेदांता की बॉक्साइट खनन परियोजना को नामंजूर कर दिया था. याद रहे कि ओडिशा सरकार उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर कालाहांडी और रायगड़ा ज़िले में कुल बारह पल्लीसभाएं आयोजित की थीं, ताकि डोंगरिया कोंध आदिवासी इस परियोजना के पक्ष या विपक्ष में प्रस्ताव पारित करें. पल्ली सभाओं का यह एकमुश्त ़फैसला वेदांता कंपनी और राज्य सरकार के लिए एक शिकस्त की तरह था. निश्चित रूप से आदिवासियों का यह निर्णय देश में जल, जंगल, ज़मीन और पहाड़ों को बचाने के लिए जारी जनांदोलनों के लिए एक नजीर बन गया.
उल्लेखनीय है कि नियमगिरि सुरक्षा समिति की मांग थी कि उन सभी गांवों में पल्ली सभाओं का आयोजन हो, जहां-जहां डोंगरिया कोंध और कुटिया कोंध आदिवासी निवास करते हैं. नियमगिरि की पहाड़ियों पर 112 गांवों में डोंगरिया कोंध और पहाड़ के नीचे तराई में 50 गांवों में कुटिया कोंध आदिवासी रहते हैं, लेकिन राज्य सरकार ने स़िर्फ बारह गांवों में पल्ली सभाओं का आयोजन किया. दरअसल, ओडिशा सरकार ने कालाहांडी और रायगढ़ा ज़िले के स़िर्फ बारह गांवों में पल्ली सभाओं की बैठक बुलाकर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की मनमानी व्याख्या की है, जो सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करती है. अगर सरकार सभी गांवों में पल्ली सभाओं की बैठक बुलाती, तो निश्चित रूप से बारह की बजाय 162 गांव नियमगिरि में खनन परियोजना को नामंजूर कर देते.
लिंगराज आज़ाद राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि उनकी सरकार बताए कि विकास क्या है? क्या विकास की एकमात्र परिभाषा आर्थिक विकास ही है, वह भी प्राकृतिक संसाधनों और इंसानी जान की क़ीमत पर? अगर सरकार की दृष्टि में विकास का अर्थ यही है, तो यह मॉडल ख़तरनाक है. देश में आर्थिक विकास के नाम पर पिछले ढाई दशकों के दौरान काफी तबाही हो चुकी है. भारत में तथाकथित विकास के नाम पर 10 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ है. विस्थापित होने वालों में आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक है, जिन्हें जल, जंगल और ज़मीन से बेदख़ल किया गया है. आज तक उनके पुनर्वास के लिए कोई ठोस इंतज़ामात नहीं किए गए हैं. केंद्र और राज्य सरकारें ब्रिटिश राज में बने भूमि अधिग्रहण क़ानून के सहारे किसानों से उनकी ज़मीनें छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रही हैं. इसके ख़िलाफ़ जहां भी आवाज़ें उठती हैं, उन आवाज़ों को गोलियों और लाठियों के सहारे दबाने का प्रयास किया जाता है.
प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल की भूमिका के विषय में कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि नवीन पटनायक सरकार पूरी तरह उसके पक्ष में खड़ी है. वर्ष 2009 में पर्यावरणीय मंजूरी निरस्त होने के बाद वेदांता कंपनी की बजाय ओडिशा माइनिंग कॉरपोरेशन ने में अर्जी दाख़िल की थी. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि राज्य सरकार हर स्तर पर वेदांता कंपनी का सहयोग कर रही है. जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है, तो उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने 2008 में सार्वजनिक रूप से कहा था कि उनकी पार्टी नियमगिरि के आदिवासियों के साथ खड़ी है और वे उन्हें नियमगिरि आंदोलन में अपना सिपाही समझें. हालांकि कांग्रेस ने केंद्र और राज्य स्तर पर अभी तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया है. कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन इस आंदोलन को ज़रूर हासिल है, लेकिन प्रदेश की राजनीति में उनकी शक्ति उतनी नहीं है कि वे कुछ ज़्यादा कर सकें.
लोकतांत्रिक तरी़के से किए जा रहे आंदोलनों को माओवादी आंदोलन कहकर कुचलना केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक शगल बन चुका है. यह पहला जनांदोलन है, जहां क़ानूनी हस्तक्षेप (उच्चतम न्यायालय की ओर से पल्ली सभा कराने का आदेश) जनांदोलनों में सकारात्मक भूमिका निभा रहा था. वैसे भी ओडिशा शांतिपूर्ण आंदोलनों का गढ़ रहा है. कंधमर्दन, बालियापाल, चिल्का और हीराकुंड किसान आंदोलन इसके सुंदर उदाहरण हैं.
बहरहाल, नियमगिरि आंदोलन और वहां के आदिवासियों के बारे में कांग्रेस उपाध्यक्ष जो हमदर्दी दिखा रहे हैं, वह पूरी तरह वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित है. अगर ऐसा नहीं होता, तो राहुल गांधी उन सभी आंदोलनों के बारे में नियमगिरि जैसी राय रखते, जहां आदिवासी सरकारी दमन के शिकार हो रहे हैं.
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