बिहार में पिछले दिनों एक अति उत्तेजक राजनीतिक नाटक मंचित हुआ. पूर्व मुख्यमंत्री एवं सत्तारूढ़ जनता दल (यू) के प्रमुख नीतीश कुमार और मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की बातचीत हुई. दोनों नेताओं में मतभेद की सनसनीखेज़ ख़बरों के सिलसिले के बाद यह पहली बातचीत थी. इसकी शुरुआत तो इन्हीं दोनों के बीच बंद कमरे में हुई, पर कुछ ही देर बाद नीतीश के पुराने प्रशासनिक एवं राजनीतिक खास यानी सांसद आरसीपी सिंह भी इसमें शामिल हो गए. बैठक के बाद अपने स्वभाव के अनुरूप नीतीश कुमार ने सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं कहा. नीतीश कुमार के आवास के सामने एकत्र मीडिया कर्मियों के सवालों पर मांझी ने अपने सुप्रीमो से किसी भी विवाद से साफ़ इंकार किया और कहा, टिप्स लेने के लिए वह तो यहां आते रहते हैं. इतना ही नहीं, मांझी का कहना था, उनका (नीतीश कुमार) काम संगठन देखना है और मेरा काम सरकार चलाना. हम दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं. उन्होंने यह राज भी खोला कि दीपावली के समय भी वह यहां आए थे. कोई पौने दो घंटे की बैठक के बाद हंस-हंस कर जीतन राम मांझी ने जो कुछ कहा, उसके बाद जद (यू) के नेताओं के बयानों का दौर शुरू हो गया. लेकिन, यह फील गुड माहौल टिक ही नहीं सका. नीतीश कुमार की खामोशी और मांझी सरकार के फैसले सत्तारूढ़ जद (यू) की आंतरिक हालत का बड़ा ही उदास रेखाचित्र पेश करते हैं. इसमें कहीं कोई तालमेल तो नहीं ही दिखता है, पैंतरों की बाज़ीगरी सुर्ख एवं विविध रंगों में उभरती हैं और सत्ता-राजनीति को कयासों के बीच छोड़ जाती है.
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने अधिकारियों के तबादलों को लेकर अपनी रुचि-अरुचि के अनुसार फैसले लेने शुरू कर दिए. उनके सलाहकारों में उन अधिकारियों की संख्या बड़ी हो गई है, जो उन्हीं के सामाजिक आधार से आते हैं. हाल के तबादलों में इसका असर देखा जा सकता है. नीतीश के कथित प्रिय या भक्त अधिकारी ठंडे घरों में भेजे जा रहे हैं.
मांझी के कामकाज को लेकर जद (यू) नेतृत्व की एक विशिष्ट, मगर बड़ी जमात के साथ-साथ राजद के अनेक नेता भी सकारात्मक राय नहीं रखते हैं. कुछ नेताओं के तो बयानों से मांझी सरकार और जद (यू) के मांझी समर्थक गंभीर तौर पर आहत हैं. राजद प्रमुख अपने अति खास लोगों से कई बार मांझी की वचन-वीरता पर नाराज़गी व्यक्त कर चुके हैं. शुरुआती दिनों में सरकार में जड़ता से वह खासे नाराज़ थे, लेकिन हाल के महीनों में कई फ्रंट पर सरकार के सक्रिय दिखने से उनकी नाराज़गी कम तो नहीं हुई, पर बढ़ी भी नहीं है. राजद के कुछ बड़े नेताओं पर भरोसा करें, तो दशहरा हादसे के बाद मांझी सरकार की सक्रियता के लालू प्रसाद समर्थक रहे हैं. छठ के दौरान पटना के गंगा घाटों पर सरकारी व्यवस्था उन्हें पसंद आई. राज्य की सत्ता-राजनीति में इसका इतना असर ज़रूर हुआ कि जद (यू) के भीतर मांझी हटाओ मुहिम पर ब्रेक लगा. बताते हैं कि समाजवादियों की एकता के लिए मुलायम सिंह यादव की पहल पर आयोजित बैठक के बाद लालू-नीतीश के संक्षिप्त संवाद ने नीतीश-मांझी मिलन की पटकथा लिख दी और पटना में उसे मंचित किया गया. बताते हैं कि लालू प्रसाद ने जद (यू) नेताओं को नसीहत दी कि वे मांझी को छेड़कर चुनावी नाव भंवर में फंसाने से परहेज करें. उनका तर्क था कि मांझी विरोधी मुहिम को हवा देकर ग़ैर-भाजपा मतों के बिखराव का आधार तैयार किया जा रहा है. बिहार विधानसभा के लगभग डेढ़ सौ ऐसे निर्वाचन क्षेत्र हैं, जहां माय (मुस्लिम-यादव) के साथ महादलित-अति पिछड़ों के एकजुट होने से किसी दूसरी ताकत की जीत मुश्किल है. उनकी राय थी कि विरोध के बावजूद एक दिखना चाहिए. यही कारण था कि इस भेंट को अति राजनीतिक और उत्तेजक प्रचार देने के लिए ख़बरिया चैनलों को जद (यू) के नेताओं से ही जानकारी भिजवाई गई. सो, नीतीश-मांझी मिलन हुआ, संवाद हुआ, फोटो उतारे गए, ख़बरिया चैनलों पर बाइट दी गई…खेल ख़त्म, फिर ढाक के वही तीन पात.
यह बिहार की मौजूदा राजनीति की वास्तविकता है कि नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी के बीच न पटने वाली खाई पैदा हो गई है. नीतीश जद (यू) के बागियों को किसी भी क़ीमत पर मिट्टी में मिला देने को बेकरार हैं, तो मांझी उन्हें समझा-बुझा कर साथ रखने के पक्षधर. नीतीश कुमार नौकरशाही को किसी भी राजनेता से अधिक तरजीह देने और उन पर भरोसा करने के पक्षधर रहे हैं, वहीं मांझी चूक के लिए नौकरशाहों को न बख्शने के घोर हिमायती. दशहरा हादसे के बाद उनका यह रूप दिखा, जिसने नीतीश का मन खट्टा कर दिया. नीतीश कुमार नियम-कायदों के पालन में सूई बराबर भी हिल-डोल न करने के कायल रहे हैं, तो मांझी वंचितों एवं पीड़ितों को नियम शिथिल करके भी मदद के पक्षधर. ऐसे कई मामले हैं, जिनमें बिहार के इन दोनों नेताओं के नज़रिये को देखा जा सकता है. इन बुनियादी अंतरों के बावजूद खाई पाटी जा सकती है, पर अहम आड़े आ जाता है. नीतीश और उनके लोग, यहां तक कि सरकार के मंत्री भी मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की उपेक्षा से गुरेज नहीं करते. नीतीश तो पहले से ही उन कार्यक्रमों में नहीं जाते, जिनमें मांझी को जाना होता है. अब बिहार के मंत्री भी निर्विकार भाव से अपने मुख्यमंत्री के साथ ऐसा सलूक कर रहे हैं. क्या मांझी समर्थक विधायक-अधिकारी एवं सामाजिक समूह इसका अर्थ नहीं समझ रहे हैं? इस राजनीतिक आचरण का निहितार्थ, इसकी अंत:निहित राजनीति वे बेहतर तरीके से समझ रहे हैं. चूंकि मांझी समर्थक सामाजिक समूहों के पास न धन है और न बल (जैसा मांझी खुद कहते हैं), इसीलिए वे खामोश हैं, अभी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि राजद-जद (यू)-कांग्रेस के गठबंधन का स्वरूप कैसा बनता है और उसकी चुनावी रणनीति क्या होती है.
इंतजार तो नीतीश समर्थक भी कर रहे हैं. मांझी के हाल के कई फैसले नीतीश सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं. सबसे बड़ा फैसला राज्य में औद्योगिक पूंजी निवेश के प्रस्तावों को लेकर है. बिहार में नीतीश सरकार (2005 से लेकर मई 2014 तक) के दौरान मंजूर किए गए लगभग दो लाख 40 हज़ार करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव मांझी सरकार ने ग़ैर व्यवहारिक मानकर रद्द कर दिण. लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये के अन्य प्रस्ताव भी रद्द करने की तैयारी चल रही है. बिहार के विकास के लिए नीतीश सरकार की पहल के दावों पर यह बड़ा हमला है. हालांकि इनमें से अधिकांश ही नहीं, प्राय: सभी एनडीए सरकार के कार्यकाल के हैं, इसलिए यह मामला भाजपा के दावों की भी पोल खोल रहा है. दवा घोटाले को लेकर नीतीश के कई खास अधिकारी जांच के घेरे में आ रहे हैं, मांझी सरकार उन पर कार्रवाई कर रही है. यह भी जद (यू) के नीतीश भक्तों को रास कैसे आएगा!
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने अधिकारियों के तबादलों को लेकर अपनी रुचि-अरुचि के अनुसार फैसले लेने शुरू कर दिए. उनके सलाहकारों में उन अधिकारियों की संख्या बड़ी हो गई है, जो उन्हीं के सामाजिक आधार से आते हैं. हाल के तबादलों में इसका असर देखा जा सकता है. नीतीश के कथित प्रिय या भक्त अधिकारी ठंडे घरों में भेजे जा रहे हैं. ये मांझी सरकार के ऐसे क़दम हैं, जो नीतीश भक्त राजनेताओं एवं सामाजिक समूहों को झटका देने के लिए काफी हैं. वस्तुत: सत्ता पर वर्चस्व के लिए जनता दल (यू) के अघोषित प्रमुख नीतीश कुमार और मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का छाया-युद्ध निरंतर गहरा होता जा रहा है. दोनों एक-दूसरे को पूरा सम्मान और सहयोग देने के संकल्प की घोषणा के बावजूद एक-दूसरे के पर कतरने का कोई मौक़ा गंवाना नहीं चाहते. नीतीश कुमार किसी भी सूरत में मांझी सरकार को अपनी पकड़ से बाहर जाने नहीं देना चाहते और मांझी मोम का पुतला बनने की बजाय दमदार मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बनाने के लिए बेकरार हैं. वस्तुत: वह बिहार की ग़ैर भाजपा-गैर कांग्रेसी सत्ता-राजनीति में नीतीश कुमार से बड़ी लकीर खींचने की ठोस रणनीति पर काम कर रहे हैं और उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. यह भला नीतीश कुमार एवं उनके भक्तों को कैसे पसंद आएगा? सारा तनाव और संघर्ष इसी का है. और, जब मामला अहम का हो जाता है, तो फिर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं.