गृह मंत्रालय के मुताबिक, 16 अक्टूबर, 2014 को उक्त एनजीओ को नोटिस जारी करके कहा गया कि वे एक महीने के भीतर अपना वार्षिक रिटर्न दाखिल कर बताएं कि उन्हें कितना विदेशी चंदा मिला, उस चंदे का क्या स्रोत है, किस उद्देश्य के लिए उसे हासिल किया गया और किस तरीके से विदेशी चंदे का इस्तेमाल किया गया? 10 हज़ार से अधिक एनजीओ में से मात्र 229 ने जवाब दिया. सरकार की ओर से जारी अधिसूचना में बताया गया कि शेष एनजीओ से जवाब नहीं मिला, इसलिए एफसीआरए के तहत जारी उनके पंजीकरण रद्द कर दिए गए. जिन 8,975 एनजीओ के पंजीकरण रद्द किए गए, उनमें से 510 ऐसे एनजीओ भी शामिल हैं, जिन्हें नोटिस भेजा गया था, लेकिन वह वापस लौट आया. 

NGOभारत में एनजीओ के प्रादुर्भाव के पीछे एक तर्क यह था कि चूंकि इतने बड़े देश में सरकार की प्रत्यक्ष मौजूदगी हर जगह नहीं हो सकती, इसलिए ग़ैर सरकारी संगठन सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में मदद देने का काम करेंगे. यह सोच भारत जैसे विशाल देश के लिए सही भी है. कई सरकारी योजनाएं ऐसी हैं, जिन्हें ज़मीन पर प्रभावी रूप से उतारने के लिए सरकार के पास पर्याप्त मानव संसाधन एवं अन्य संसाधन उपलब्ध नहीं होते. खासकर, किसी कार्यक्रम के सफल क्रियान्वयन की निगरानी के लिए एक ईमानदार वाच-डॉग की ज़रूरत तो होती ही है. मीडिया ने चौथे खंभे के रूप में अपना रोल तो निभाया ही, इसी के साथ कई ऐसे मा़ैके सामने आए, जब ये ग़ैर सरकारी संगठन भी आगे बढ़कर आए. मसलन, देश में सूचना का अधिकार क़ानून लागू कराने में किसान-मज़दूर शक्ति संगठन नामक एक संस्था की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. उसी तरह हाल के वर्षों में मनरेगा जैसे कार्यक्रमों में जन-सुनवाई के ज़रिये भ्रष्टाचार के मामले सामने लाने में भी एनजीओ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
कह सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र में सिविल सोसायटी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने भ्रष्ट तंत्र को उजागर भी किया है और जन-कल्याण, जन-जागरूकता जैसे काम भी किए हैं. लेकिन, इस पूरी तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. इस वक्त देश में 25 लाख से भी अधिक एनजीओ रजिस्टर्ड हैं. अब इन लाखों-लाख संस्थाओं में किसने भारत के हित में काम किया और किसने विदेशी एजेंडे पर काम किया, इसका पता लगाना थोड़ा मुश्किल है. फिर भी, कई ऐसे संस्थान हैं, जिनकी गतिविधियां संदेहास्पद रही हैं. मसलन, फोर्ड फाउंडेशन, ग्रीनपीस जैसी संस्थाएं. इनके काम को लेकर काफी पहले से सवाल खड़े होते रहे हैं. कुछ समय पहले तक देश में चल रहे कई आंदोलनों में इनका पैसा, इनका एजेंडा होने की बात कही जा रही थी. शायद यही वजह है कि नई सरकार ने ऐसे हज़ारों एनजीओ और दानदाताओं पर लगाम कसने का निर्णय लिया. सरकार यह भी मानती है कि कई ऐसे एनजीओ हैं, जो पर्यावरण, आदिवासी अधिकार आदि के नाम पर विकास विरोधी माहौल बनाते हैं.
सरकार ने अपने ताजा निर्णय में विदेशी चंदा हासिल कर रहे हज़ारों ग़ैर सरकारी संगठनों पर कार्रवाई करने की बात कही है. सरकार ने तक़रीबन 9,000 एनजीओ के लाइसेंस विदेशी चंदा नियमन क़ानून (एफसीआरए) का उल्लंघन करने के संबंध में रद्द कर दिए हैं. एक आदेश में गृह मंत्रालय ने कहा कि साल 2009-10, 2010-11 और 2011-12 के लिए वार्षिक रिटर्न दाखिल न करने वाले 10 हज़ार से अधिक एनजीओ को नोटिस जारी किए गए थे. गृह मंत्रालय के मुताबिक, 16 अक्टूबर, 2014 को उक्त एनजीओ को नोटिस जारी करके कहा गया कि वे एक महीने के भीतर अपना वार्षिक रिटर्न दाखिल कर बताएं कि उन्हें कितना विदेशी चंदा मिला, उस चंदे का क्या स्रोत है, किस उद्देश्य के लिए उसे हासिल किया गया और किस तरीके से विदेशी चंदे का इस्तेमाल किया गया? 10 हज़ार से अधिक एनजीओ में से मात्र 229 ने जवाब दिया. सरकार की ओर से जारी अधिसूचना में बताया गया कि शेष एनजीओ से जवाब नहीं मिला, इसलिए एफसीआरए के तहत जारी उनके पंजीकरण रद्द कर दिए गए. जिन 8,975 एनजीओ के पंजीकरण रद्द किए गए, उनमें से 510 ऐसे एनजीओ भी शामिल हैं, जिन्हें नोटिस भेजा गया था, लेकिन वह वापस लौट आया.
दरअसल, कुछ समय पहले यह खबर आई थी कि ह्यूमैनिस्टिक इंस्टीट्यूट फॉर को-ऑपरेशन विद द डेवलपिंग कंट्रीज (हिवोस) ने गुजरात में अप्रैल 2008 से अगस्त 2012 तक कुछ एनजीओ को 13 लाख यूरो (तक़रीबन 10 करोड़) रुपये दिए, जिनमें से कुछ चर्चित ग़ैर-सरकारी संगठन, जैसे दिशा को दो लाख चौबीस हज़ार यूरो, गुजरात खेत विकास परिषद को दो लाख सात हज़ार यूरो, सफर को एक लाख चौरासी हज़ार यूरो, महिती को एक लाख चार हज़ार यूरो, स्वाति को पचासी हज़ार यूरो और उठान को तिरसठ हज़ार यूरो दिए गए. हिवोस दिल्ली एवं मुंबई स्थित कई एनजीओ को भी आर्थिक मदद करता है. मुंबई बेस्ड तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा चलाया जा रहा एनजीओ और शबनम हाशमी के नेतृत्व में संचालित दिल्ली स्थित एनजीओ अनहद को भी हिवोस ने चार हज़ार यूरो दिए. सवाल यह है कि उक्त धनराशि क्यों दी गई? इस सवाल के जवाब में कई तर्क दिए जाते हैं. इनमें सही क्या है, ग़लत क्या है, यह तो जांच का विषय है, लेकिन इन सवालों की वजह से सरकार को इन संस्थाओं के खिला़फ कार्रवाई करने का आधार तो मिल ही जाता है.
इसके अलावा आईबी ने भी सरकार को अपनी रिपोर्ट में बताया था कि कई संस्थाएं (एनजीओ) देश विरोधी या कहें कि विकास विरोधी कार्यक्रम चला रही हैं, इनमें ग्रीन पीस जैसी संस्था का नाम प्रमुखता से लिया गया. सरकार ने ग्रीन पीस के खिला़फ सख्त कार्रवाई भी की है. क़ानूनी तरीके से विदेशी योगदान नियमन क़ानून (एफसीआरए) के तहत देश में आने वाली धनराशि 1993-94 में 1,865 करोड़ रुपये से बढ़कर 2007-08 में 9,663 करोड़ रुपये यानी पांच गुनी से भी ज़्यादा हो गई. इस क़ानून के तहत पंजीकृत संस्थाओं की संख्या भी इस अवधि में 15,039 से बढ़कर 34,803 यानी दोगुनी से ज़्यादा हो गई. हालांकि, इनमें से 46 प्रतिशत संस्थाओं ने 2007-08 में अपना हिसाब गृह मंत्रालय को नहीं दिया. 2011 में भी यूपीए सरकार ने एक महीने में ही 4,139 एनजीओ पर विदेश से किसी प्रकार की सहायता राशि लेने संबंधी रोक लगाई है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2009-10 से लेकर 2012-13 तक सबसे अधिक चंदा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोप से आया. इसमें भी सबसे अधिक पैसा अकेले दिल्ली राज्य में आता है. एनजीओ के पास जो रकम विदेशों से आ रही है, उन देशों में सबसे आगे संयुक्त राष्ट्र अमेरिका है. उसके बाद जर्मनी और यूके का नंबर आता है. इन तीन देशों समेत दस पश्चिमी देश पिछले कई सालों से एनजीओ की दानदाता सूची में टॉप पर हैं. इनके अलावा भारतीय एनजीओ को कुछ अन्य देशों से भी मदद मिल रही है, जिनमें इटली, नीदरलैंड, स्पेन एवं स्विट्‌जरलैंड आदि हैं. इसके साथ ही कनाडा, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और यूएई भी भारतीय ग़ैर-सरकारी संगठनों के बड़े मददगारों में शामिल हैं. यह सही है कि इन देशों से मिलने वाली धनराशि ज़्यादातर क्रिश्चियन संस्थाओं के पास जाती है, जो देश के विभिन्न हिस्सों में शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम चलाते हैं. उन पर धर्म परिवर्तन कराने के भी आरोप लगते हैं, लेकिन उक्त आरोपों में कितनी सच्चाई है, यह जांच का विषय है.
यूपीए सरकार के समय जब तमिलनाडु के कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के विरोध का मामला सामने आया था, तब आरोप लगे थे कि दुनिया के देशों और कॉरपोरेट के आपसी झगड़े की वजह से इस संयंत्र का विरोध हो रहा है. यह संयंत्र रूस की मदद से लगा है, इसलिए अमेरिका और फ्रांस की कंपनियां भारत में ग़ैर-सरकारी संगठनों के ज़रिये इसका विरोध करा रही हैं. इसी तरह महाराष्ट्र का जैतापुर परमाणु संयंत्र फ्रांस के सहयोग से लगना है, तो उसके विरोधी देश और कंपनियां संयंत्र के खिला़फ ग़ैर-सरकारी संगठनों के ज़रिये हंगामा करा रही हैं. यह भी ़खबर आई कि गुजरात में दंगा पीड़ितों की मदद के लिए बनी संस्था ने चंदे के पैसों में गबन किया है. इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ज़्यादातर एनजीओ पैसों का दुरुपयोग करते हैं. आम लोगों के हितों के बहाने परियोजनाएं रोकने की अनेक घटनाएं हुई हैं. कहने का आशय यह है कि एनजीओ अच्छे-बुरे यानी दोनों तरह के कामों में शामिल रही हैं. इसलिए इस वक्त अगर सरकार ऐसे एनजीओ के खिला़फ कार्रवाई कर रही है, तो वह तथ्यों के आधार पर है और उसकी आलोचना नहीं की जा सकती. लेकिन, इसी के साथ एक और बड़ा सवाल यह है कि क्या कुछ संस्थाओं-संगठनों पर लगे आरोपों की वजह से सारे एनजीओ को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए? जाहिर है, ऐसा करना सही नहीं होगा. सारे एनजीओ भ्रष्ट हैं, यह कहना भी सही नहीं है. ज़रूरत इस बात की है कि एनजीओ के संचालन से जुड़े नियम-क़ानून दुरुस्त किए जाएं, ताकि देश के भीतर अच्छे एनजीओ और भी बेहतर ढंग से काम कर सकें. और, जो ऐसा न करें, उनके ़िखला़फ कड़ी कार्रवाई सुनिश्चित हो सके.


विदेशी चंदा पाने में बहुत पीछे हैं मुस्लिम संगठन
आम तौर पर यह माना जाता है और कहा भी जाता है कि देश के मुस्लिम संगठनों को दुनिया के विभिन्न मुस्लिम देशों से बहुत अधिक चंदा मिलता है, लेकिन यह सच नहीं है. अगर बात 2012-13 की करें, तो सा़फ होता है कि शीर्ष दस दानदाता देशों में एक भी मुस्लिम देश नहीं है. 2010-11 के दौरान भी यूएई, कतर और कुवैत जैसे देशों से आने वाला पैसा पश्चिमी देशों से आने वाले पैसों के मुकाबले नगण्य है. और, यह भी नहीं कहा जा सकता कि मुस्लिम देशों से आने वाले चंदे का सारा पैसा मुस्लिम संगठनों को ही जाता है. हां, यह ज़रूर है कि पश्चिमी देशों से मिलने वाले चंदे का एक बहुत बड़ा हिस्सा क्रिश्चियन संस्थाओं को जाता है. सरकार ने जिन नौ हज़ार एनजीओ के लाइसेंस रद्द किए हैं, उनमें भी अधिकतर क्रिश्चियन संस्थाएं हैं.


शीर्ष एनजीओ, जिनके लाइसेंस रद्द हुए
– वर्ल्ड विजन ऑफ इंडिया
– रूरल डेवलपमेंट ट्रस्ट
– एक्शन एड
– एसओएस चिल्ड्रेंस विलेज
– तिब्बतन चिल्ड्रेंस विलेज
– एक्शन इंडिया
– किसान सभा ट्रस्ट
– चिन्मय सेवा ट्रस्ट
– तरुण भारत संघ
– कबीर


शीर्ष दानदाता देश (2012-13, रुपये में)
अमेरिका – 37,97,65,88,901
जर्मनी     – 10,89,56,14,405
ब्रिटेन      – 10,64,65,55,429
इटली       – 4,98,76,01,504
नीदरलैंड  – 3,81,40,77,774
स्विट्‌जरलैंड – 3,64,00,62,151
स्पेन        – 3,38,31,89,304
कनाडा     – 3,01,47,26,972
ऑस्ट्रेलिया – 2,24,98,13,688
फ्रांस        – 1,77,15,99,840


शीर्ष दस राज्य, जिन्हें सबसे अधिक विदेशी चंदा मिला (2012-13)
दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल, पश्चिमी बंगाल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, ओडिशा.

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