पांच राज्यों के चुनाव परिणाम न सिर्फ सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के भविष्य की संभावनाओं को तय करेंगे बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी इन्हें महत्वपूर्ण माना जा रहा है. इन चुनाव परिणामों का देश की आंतरिक और विदेशी मामलों की राजनीति पर भी असर पड़ेगा. परिणाम घोषित होने से पहले, भारत और पाकिस्तान के तनावपूर्ण संबंधों में कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिले.
पिछले एक साल के दौरान नई दिल्ली और इस्लामाबाद न केवल इस क्षेत्र में एक दूसरे के आमने-सामने रहे, बल्कि अपनी लड़ाई को ये संयुक्त राष्ट्र में भी ले गए. 17 सितंबर को उड़ी में सेना के बेस पर हुए हमले को उजागर करके भारत ने पाकिस्तान को अलग थलग करने की कोशिश की, वहीं पाकिस्तान ने 2016 की गर्मियों में कश्मीर में भयंकर अशांति के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन को मुद्दा बनाया. नतीजतन, हालात में सुधार नहीं हुए और शब्दों का युद्ध निरंतर जारी रहा.
बहरहाल, दोनों देशों के बीच निकट भविष्य में संवाद प्रक्रिया की बहाली से संबंधित (अनौपचारिक रूप से ही सही) संकेत दिए गए हैं. पाकिस्तान के राजनयिक अमजद सियाल की सार्क के नए महासचिव के तौर पर नियुक्ति का नई दिल्ली द्वारा विरोध नहीं करना, इस दिशा में एक संकेत माना जा रहा है. इससे पहले भारत ने उनकी नियुक्ति पर विरोध जताया था. 20 मार्च को लाहौर में सिंधु जल संधि पर द्विपक्षीय वार्ता आयोजित करने का समझौता भी बहुत महत्वपूर्ण है. यह न केवल इस मायने में महत्वपूर्ण है कि दोनों देश इस विषय पर वार्ता शुरू करने के लिए सहमत हो गए हैं, बल्कि इस मायने में भी कि नई दिल्ली ने सिंधु जल के मुद्दे को किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की बजाय द्विपक्षीय रूप से हल करने की इच्छा जताई है.
हालांकि नई दिल्ली ने यह भी सा़फ किया है कि इसे इस्लामाबाद के साथ वार्ता प्रक्रिया की बहाली के रूप में न देखा जाए. यह भी समझने योग्य है कि पिछले दो सालों के दौरान जब विभिन्न राज्यों के चुनाव हो रहे थे, ऐसे में भाजपा सरकार ने यह कहते हुए पाकिस्तान के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार कर रखा है कि बातचीत और आतंकवाद एक साथ नहीं चल सकते हैं. नई दिल्ली की यह निरंतर मांग रही है कि 2008 के मुंबई हमलों में शामिल लोगों पर कानूनी कार्रवाई हो और इस्लामाबाद भारत में आतंक को शह देना बंद करे.
कुल मिला कर पिछले दो सालों में भारत और पाकिस्तान के बीच शत्रुता बढ़ी है और दोनों पक्षों ने महत्वपूर्ण मुद्दों पर सख्त रुख बनाए रखा है. 25 दिसंबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अचानक हुए लाहौर दौरे ने दोनों देशों के बीच संबंधों में एक नई खिड़की खोल दी थी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ के साथ अनौपचारिक वार्ता के बाद बहुत उम्मीदें की जा रही थीं. परन्तु यह शुरुआत अल्पकालिक ही रही, क्योंकि पठानकोट एयरबेस पर मिलिटेंटो ने हमला कर दिया था. यह भी तथ्य है कि नई दिल्ली ने धैर्य से काम लिया. यहां तक कि पाकिस्तान की एक उच्च स्तरीय जांच टीम को पठानकोट आने की अनुमति दी. लेकिन दुर्भाग्यवश इस्लामाबाद ने इस पहल का उचित जवाब नहीं दिया, जिसने स्पष्ट रूप से दोनों देशों के संबंधों में पूर्णविराम लगा दिया था. पिछली बार 2014 में भारत द्वारा विदेश सचिव स्तर की वार्ता को एकतरफा तौर पर रद्द कर दिए जाने से इस प्रक्रिया में मुश्किल आ गई थी.
इन संबंधों को वास्तविक झटका उस समय लगा था, जब अगस्त 2015 में पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित द्वारा हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित किए जाने से दिल्ली में होने वाली दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक स्थगित हो गई थी. भाजपा सरकार ने इसे एक मुद्दा बना दिया कि किसी भी उच्च स्तरीय वार्ता से पहले हुर्रियत नेताओं को आमंत्रित नहीं किया जाना चाहिए. हालांकि पिछले 15 वर्षों से ऐसा ही होता आया है.
आज जो हो रहा है वो एकतरफा नहीं है, क्योंकि नई दिल्ली और इस्लामाबाद दोनों इस दिशा में कदम उठा रहे हैं. इससे ज़ाहिर होता है कि दोनों देशों के बीच कुछ चल रहा है. नई दिल्ली को इस मायने में शर्मिंदगी उठानी पड़ी, क्योंकि सितंबर में उड़ी हमले के बाद पाकिस्तान को दोषी ठहराने के लिए गिरफ्तार किए गए दो युवकों को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की जांच में निर्दोष पाया गया और उन्हें वापस उनके देश भेज दिया गया.
मछुआरों के आदान-प्रदान, डायरेक्टर जनरल ऑ़फ मिलिट्री ऑपरेशंस के बीच संपर्क और सीमा के दोनों तरफ अपेक्षाकृत शांत बॉर्डर कुछ इशारा करते हैं. सीमाओं पर संयम के सकारात्मक कदम के साथ-साथ इस्लामाबाद ने एक क़दम आगे बढ़ते हुए जमात-उद-दावा प्रमुख हाफिज सईद पर प्रतिबंध लगाया और उसके खातों को फ्रीज़ किया.
राजनीतिक चर्चा यह भी है कि नए विदेश सचिव के रूप में तहमीना जंजुआ की नियुक्ति और अब्दुल बासित, जिनकी छवी भारत में अच्छी नहीं है, उन्हें साइड लाइन किया जाना दोनों देशों के बीच हालात बेहतर बनाने की दिशा में अच्छा क़दम है. पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा ने भी यह स्पष्ट किया है कि वे राजनीति से दूरी बनाए रखना चाहते हैं.
भारत से संबंध सुधारने के मामले में पाकिस्तानी सेना द्वारा हस्तक्षेप नहीं करना अब हकीकत बनता है या नहीं, ये देखने वाली बात होगी, लेकिन अब दृष्टिकोण में बदलाव दिखाई दे रहा है. पाकिस्तान उधर अफगानिस्तान सीमा पर चरमपंथियों से निपटने में व्यस्त है. इसलिए भारत के साथ दूसरा मोर्चा खोलना एक ऐसी चुनौती है, जिसे वो स्वीकार नहीं करेगा. नवाज शरी़फ सरकार ने पिछले एक महीने में कश्मीर की अपनी सक्रिय नीति को धीमा कर दिया है.
भारत पर भी कश्मीर मसला सुलझाने के लिए कुछ करने का दबाव है. औपचारिक प्रतिष्ठान के अलावा मोदी सरकार को सलाह देने वालों का मानना है कि इस मामले में एक राजनीतिक दृष्टिकोण भी होनी चाहिए. कश्मीर में स्थिरता बहाल करने के लिए मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी हालिया दिनों में इस्लामाबाद के साथ संपर्क के चैनल खोलने पर जोर दिया है.
उन्होंने यहां तक कहा कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) की महत्वाकांक्षी योजना से जम्मू और कश्मीर को (इस क्षेत्र की निकटता के कारण) फायदा उठाना चाहिए. लेकिन दिल्ली में जो लोग सामरिक मामलों को देखते हैं, वे सीपीईसी की वजह से पैदा होने वाली स्थिति के बारे में चिंतित हैं कि कैसे यह इस क्षेत्र में भारत को अप्रासंगिक बना सकता है. जल विवाद और बलूचिस्तान पर मोदी सरकार का नरम रुख, पाकिस्तान से निपटने की निति में कुछ बदलाव का संकेत दे रहा है.
इन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए एक वर्ग यह मानता है कि पाकिस्तान से बातचीत करने का कोई अन्य विकल्प नहीं है. लेकिन जो भी परिवर्तन हो रहा है, उसमें वाशिंगटन की सक्रिय भागीदारी है. वाशिंगटन दोनों परमाणु हथियार संपन्न पड़ोसी देशों के बीच शांति स्थापना में अपनी भूमिका निभाना चाहता है. अगर जानकार सूत्रों की मानें, तो इस्लामाबाद ने हाफिज सईद के खिलाफ कार्रवाई करके अमेरिकियों को खुश करने की कोशिश की है और साथ ही उन्हें आगाह भी किया है कि भारत के द्वारा इस पर कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया जा रहा है.
जो लोग दोनों देशों के बीच के शत्रुतापूर्ण माहौल से चिंतित हैं, वे जून में कजाकिस्तान में नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच होने वाली संभावित बैठक पर काम कर रहे हैं, जहां ये दोनों नेता संघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में भाग लेने वाले हैं. बहरहाल, चुनाव परिणाम आ चुके हैं और इसी से यह निर्धारित होगा कि 2019 के चुनावों में अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए भाजपा किस तरह से आगे बढ़ेगी. वैसे, दोनों देशों के रिश्तों में एक नए परिवर्तन की उम्मीद तो की ही जा सकती है.