kamal morarkaयूपी समेत 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम आ चुके हैं. लेकिन फोकस उत्तर प्रदेश पर ही है. किसी ने इस तरह के परिणाम की उम्मीद नहीं की थी. यहां तक कि खुद भाजपा ने भी इस परिणाम के बारे में नहीं सोचा था. बीजेपी को यह महसूस हो रहा था कि वे आगे हैं. उनमें से कुछ ने ये कहा था कि उन्हें बहुमत मिलेगा.

लेकिन किसी ने भी इस तरह के बहुमत (तीन चौथाई बहुमत) की उम्मीद नहीं की थी. मुद्दा ये है कि इस भारी विजय का कारण क्या रहा? इसका कोई सटीक जवाब तलाशना मुश्किल है, लेकिन कुछ चीजें बिल्कुल सही हैं. पहला ये कि उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी (समाजवादी पार्टी) का अंतर्कलह खुद को हराने वाला और आत्मघाती रहा. कुछ ने कहा कि युवा को आगे आना चाहिए, अखिलेश को आगे आना चाहिए, कुछ ने ये भी कहा कि मुलायम को आगे आना चाहिए. कहने के लिए ये सब बातें ठीक हैं, लेकिन तथ्य ये है कि यदि आप सिर्फ जातिगत समीकरण के भरोसे रहेंगे, तो आपको वो सफलता नहीं मिलेगी जो आपको चाहिए. यादव बहुल इलाके में आप बुरी तरह से हार गए.

उम्रदराज यादवों का कहना था कि आज अखिलेश ने अपने पिता के साथ जो व्यवहार किया है, वैसा ही व्यवहार कल हमारा बेटा हम से कर सकता है. इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि भारतीय समाज एक बहुत ही रूढ़ीवादी समाज है, जहां यादव पिता और पुत्र किसी सिद्धांतहीन विषय के लिए इस तरह खुलेआम लड़ते हुए नहीं दिख सकते. चुनाव आयोग ने अखिलेश यादव और मुलायम सिंह को बुलाया था. अखिलेश के साथ विधायक थे.

विधायक ही तो मुख्यमंत्री बनाते हैं. मेरे जैसे लोगों का तो विचार था कि आयोग पार्टी के निशान को फ्रीज (जब्त) कर दे. ये काम ही सही होता. लेकिन मुलायम सिंह यादव ये सोचते हुए नरम पड़ गए कि पार्टी को नुकसान क्यों पहुंचाया जाए. उन्होंने अपना पक्ष मजबूती से नहीं रखा और साइकिल चुनाव चिन्ह अखिलेश यादव को दे दिया गया. लेकिन वे भूल गए कि वोट चुनाव चिन्ह को नहीं मिलते, वोट व्यक्तित्व (पर्सनैल्टी) को मिलते हैं.

मुलायम सिंह का व्यक्तित्व अखिलेश यादव से कहीं ऊंचा है. अखिलेश का आकर्षण युवाओं के बीच हो सकता है, उनकी पत्नी का आकर्षण युवा महिलाओं के बीच हो सकता है. लेकिन वे मजबूत पारंपरिक यादव वोट के विकल्प को अपनी जगह से बदल (रिप्लेस) नहीं सकते. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के लिए यही सबक है. वे अपने लोगों के बीच क्या करते हैं, यह देखने वाली बात होती है. अखिलेश विधानसभा के सदस्य नहीं हैं. शिवपाल यादव विधानसभा के सदस्य हैं, उन्हें नेता विपक्ष बनाया जाना चाहिए.

अखिलेश यादव चाहते हैं कि आजम खान को नेता विपक्ष बनाया जाए. खैर, सपा का भविष्य इससे तय होगा कि सपा अभी किस तरह से व्यवहार करती है. यूपी में अब चुनाव 5 साल दूर है. लोकसभा का चुनाव दो साल बाद है. सपा को जो सबक मिला है, वो ये है कि आप पिछड़े वर्ग की पार्टी हैं, जब तक आप एक यूनाइटेड फ्रंट नहीं बनाते हैं, तब तक आप बेहतर नहीं कर पाएंगे.

इससे भी बुरी हालत मायावती की पार्टी की हुई है. पिछली बार, जब 2007 में मायावती सत्ता में आई थीं, तब उन्हें अपनी जाति के वोट के साथ ब्राहम्ण वोट भी मिले थे. 2012 में वही ब्राह्मण उन्हें छोड़ कर चले गए और 2017 में भी वे मायावती के साथ नहीं आए. जो 22 फीसदी वोट उन्हें मिले हैं, वो उनका कोर वोट है.

समाजवादी पार्टी को भी उसका कोर वोट मिला है. यदि ये पारिवारिक झगड़ा नहीं हुआ होता, तो समाजवादी पार्टी और अच्छा कर सकती थी. फिर क्या हुआ? बीजेपी कैसे जीती? क्योंकि यादव, दलित, मुस्लिम आदि का एक हिस्सा और बाकि के ऐसे लोगों जिन्हें किसी पार्टी ने नहीं लुभाया, सब भाजपा के साथ चले गए.

इन लोगों ने ये सोचा कि भाजपा की सरकार भी केन्द्र में है. इसमें कोई शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी एक बेहतरीन वक्ता हैं. उन्होंने नोटबंदी को जनता के समाने ऐसे पेश किया, जैसे वे अमीरों के खिलाफ हैं और गरीबों के साथ है. लोगों ने इस पर विश्वास किया. नरेंद्र मोदी ने ये कहा कि मेरे आगे-पीछे कोई नहीं है. लोगों ने माना कि इनका कोई परिवार तो है नहीं, ये जो कर रहे हैं वो हमारे लिए ही तो कर रहे हैं. ये बात भारत में मायने रखती है. लेकिन असली परीक्षा तो अब शुरू होगी. चुनाव प्रचार कविता की तरह है और सरकार चलाने का काम एक कहानी की तरह है.

पिछले तीन साल में केन्द्र सरकार ने भी कोई बहुत ज्यादा काम नहीं किया है. देखना है कि वे यूपी को कैसे चलाते हैं? उत्तराखंड एक छोटा राज्य है, उसे संभालना आसान है. मणिपुर और गोवा में उन्होंने कांग्रेस की तरह ही सरकार बनाया है. विधायकों की खरीद-फरोख्त का कोई अर्थ नहीं है. पंजाब में नि:सन्देह अकाली-भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया गया है. कैप्टन अमरिंदर सिंह को 5 साल के लिए सत्ता मिली है.

अब असल मुद्दा ये है कि 2019 में क्या होगा. विपक्ष को क्या करना चाहिए. विपक्ष के नेताओं को बैठना चाहिए. या तो उन्हें अब 2024 के लिए सोचना चाहिए या अगर वे 2019 के बारे में सोचते हैं, तो ये स्थिति आपातकाल के बाद की स्थिति यानी 1977 की तरह होगी. आदर्श को भूल जाइए. भारत के हर निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के खिलाफ सिर्फ एक उम्मीदवार दीजिए.

यही एक रास्ता है, जिसके जरिए भाजपा के उदय को रोका जा सकता है. यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो भाजपा को रोकना आपके लिए संभव नहीं होगा. वे यूपी को जिस तरीके से जीते हैं, उसी तरीके से पूरे देश को जीत लेंगे. अमित शाह मैन ऑफ मिशन हैं. उनसे जब पूछा गया कि आपका अगला मिशन क्या है, तो उन्होंने कहा कि उनका मिशन उन राज्यों में काम करना है, जहां भाजपा नहीं है.

भाजपा को एक अखिल भारतीय पार्टी होना चाहिए. मुद्दा ये है कि भाजपा कांग्रेस को एक नेशनल पार्टी के तौर पर रिप्लेस करना चाहती है. हिन्दुइज्म, हिन्दू मन्दिर, किसी भी विवादास्पद मुद्दे को भूल जाइए. भाजपा भी उसी तरह के लोगों की पार्टी है, जिस तरह के लोगों से मिल कर कांग्रेस बनी थी, मॉडरेट, मॉडर्न. गोवा में उन्होंने दिखा दिया कि एथिक्स और मोरल वैल्यूज (नैतिक मूल्यों) का कोई महत्व नहीं है. उनके लिए भी राजनीति एक बिजनेस है, उनके साथ जाइए, मिलिए, मिल कर सरकार बनाइए.

मैं नहीं समझता कि आरएसएस का मन्दिर मुद्दा भाजपा के लिए महत्व रखता है. हाल ही में जब अमित शाह से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि राम मन्दिर हमारे घोषणा पत्र में नहीं है. हमारे लिए घोषणा पत्र महत्वपूर्ण है. इसका मतलब है कि उन्होंने इस मुद्दे को छोड़ दिया है. सांप्रदायिक सद्भाव के लिए ये एक अच्छी बात है. लेकिन, देश के लिए ये जानना जरूरी है कि सरकार का लक्ष्य क्या है. जिन्ना ने कांग्रेस को हिन्दू पार्टी कहा था और कांग्रेस खुद को सेकुलर कहती रही. भाजपा इसे मुस्लिम तुष्टिकरण बताती है. जिन्ना ने कांग्रेस को हमेशा हिन्दू पार्टी कहा. बहुत हद तक ये सही भी है.

वास्तव में कांग्रेस ने मुस्लिमों के लिए किया क्या है? क्या मुस्लिम समुदाय में शिक्षा का स्तर बढ़ा. पश्चिम बंगाल में 38 फीसदी मुस्लिम हैं. वहां वामपंथी सरकार ने 35 साल शासन किया. क्या मुस्लिमों के बीच शिक्षा का स्तर बढ़ा? उनकी हालत में सुधार हुआ? नहीं. कौन जानता है, सच क्या है? लेकिन किसी ने कहा है कि यूपी में मुस्लिमों ने सोचा कि 2007 में हमने मायावती को वोट दिया, उन्होंने हमारे लिया कुछ नहीं किया, 2012 में हमने मुलायम सिंह यादव को वोट दिया, उन्होंने भी हमारे लिए कुछ नहीं किया, इसलिए चलो एक बार इन्हें (भाजपा) भी आजमा कर देख लेते हैं.

ऐसा है, तो इन लोगों ने विकल्प के तौर पर भाजपा को वोट दिया है. 5 साल तक इन्हें भी देखेंगे. सच क्या है, कोई नहीं जानता. सच सामने आएगा भी नहीं और न ही कोई ये पूछने जाएगा कि आपने एक खास पार्टी को वोट क्यों दिया? बहरहाल, राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी नेताओं को एक साथ मिल कर बैठना चाहिए और इस पर विचार करना चाहिए कि क्या एक सांझा दृष्टिकोण विकसित की जा सकती है. देखते हैं, क्या होता है. ईवीएम मशीन से छेड़छाड़ को लेकर भी चर्चा हो रही है. जो भी चुनाव हारता है, ऐसी चर्चा पर भरोसा कर लेता है.

लेकिन एक बात है कि बैलेट बॉक्स की तरफ जाया जा सकता है, जिसमें सबका भरोसा होता है. अतिआधुनिक होने से हमेशा मदद नहीं मिलती, यदि पयाप्त चेक एंड बैलेंसेज (निगरानी) न हो. जैसा कि सुब्रमण्यम स्वामी ने सुझाव भी दिया है कि ईवीएम बटन दबाते ही एक पुर्जा निकले और उसे बॉक्स में जमा कर दिया जाए. विवादित मुद्दे की हमेशा जांच की जानी चाहिए. लेकिन निश्चित तौर पर मौजूदा व्यवस्था में बदलाव किए जाने की जरूरत है.

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