पिछले कई वर्षों के बाद पहली बार भारतीय संसद गंभीर बहसों का प्लेटफॉर्म बनी है. ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन पर इन दिनों बहस हो रही है. मसलन अभिव्यक्ति की आज़ादी और उस पर लगने वाली रोक पर बात हो रही है. सहिष्णुता के साथ ही राष्ट्र और राष्ट्रवाद के कई विचार सामने आ रहे हैं. आधुनिक भारत में दलित एवं निम्न जातियों के समक्ष आने वाली समस्याओं से जुड़ी बातें मुद्दा बन रही हैं. धर्म को लेकर आलोचना और प्रेम जैसी बातें भी सामने हैं, जिन पर संसद के भीतर और बाहर खूब बहस हो रही है. संसद की यह स्थिति उन बातों की तुलना में अच्छी है, जब सदस्य वेल में चले जाते थे, लगातार व्यवधान पैदा करते थे, जिसके चलते बार-बार संसद की कार्यवाही स्थगित हो जाती थी. अच्छी बात है कि अब उक्त मुद्दों पर कम से कम बातें तो हो रही हैं और इस बहाने संसद की कार्यवाही चल रही है. यह भी एक परिवर्तन है.
इन बहसों का कभी कोई निश्चित अंत नहीं होता और न कभी कोई अंतिम जवाब हो सकता है. लेकिन, आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही वे विचार एवं दृष्टिकोण, जिन्हें पहले बहुत कम लोग जानते थे या जो पहले बहुत कम सुने जाते थे, अब केंद्र में हैं, जैसे क्या दलित मुख्य धारा के धर्म को खारिज कर रहे हैं? काली द्वारा महिषासुर की हत्या की कथित आलोचना किताबों एवं लेखों में की गई है, लेकिन इस पर संसद में कभी बात नहीं हुई थी.
हिंदू धर्म की एक दलित आलोचना की गई है, क्योंकि यह भारत के आदिवासी लोगों की अधीनता के प्रतीकों से संबंधित है. दलित अपनी पहचान राजा बलि के साथ जोड़ते हैं. राजा बलि ने एक छोटे कद के ब्राह्मण वामन को साढ़े तीन पग ज़मीन दान में दी थी (बलि को यह नहीं पता था कि वामन विष्णु के अवतार हैं). छोटे कद के ब्राह्मण वामन ने इतने दान में ही बलि का साम्राज्य अपने अधीन कर लिया था. यह शक्तिशाली बनने की चाहत रखने वाले किसी भी दलित के लिए अधीनता वाली बात है.
ये सब बातें संसद में कहना कुछ लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत कर सकता है, लेकिन यह स़िर्फ एक प्रतिद्वंद्वी विचार है. द्रोणाचार्य अनेक लोगों के लिए एक आदर्श गुरु हैं, लेकिन दलित उन्हें एक ऐसे शख्स के रूप में जानते हैं, जिसने गुरु दक्षिणा के तौर पर अपने शिष्य एकलव्य से अंगूठे की मांग कर डाली. एक व्यक्ति का नायक दूसरे के लिए खलनायक हो सकता है. एक व्यक्ति का धर्म दूसरे व्यक्ति के लिए उत्पीड़न का कारण हो सकता है.
राष्ट्र के प्रति प्रेम को लेकर भी कई विचार हैं. वामपंथी दलों का अपना एक विचार है. कांग्रेस का भी अपना एक विचार है, जो ठीक वामपंथी दलों की तरह नहीं है. लेकिन, भाजपा की अपनी एक अलग दृष्टि है. संसद में कभी भी इन विभिन्न विचारों को अभिव्यक्त नहीं किया गया. दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद बहुत लंबे समय तक पार्श्व में रहा है.
उसके नायकों में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए हिंसा का रास्ता चुना, लेकिन उन्हें सम्मान नहीं मिला. श्यामजी कृष्ण वर्मा, गदर आंदोलन के नायक रास बिहारी बोस जिन्होंने जापान में निर्वासन का जीवन बिताया, सावरकर जिन्होंने ब्रिटिश जेल में किसी भी अन्य स्वतंत्रता सेनानी के म़ुकाबले सर्वाधिक समय तक एकांत कारावास भोगा, ये सब भारतीय इतिहास के कांग्रेसी संस्करण में हाशिये पर रहे. यहां तक कि एमएन रॉय जैसे कम्युनिस्ट नायकों को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया. नक्सलियों के अपने नायक हैं, जिनसे कम्युनिस्ट भी असहमत हो सकते हैं. कांग्रेस के लिए नायक स़िर्फ गांधी एवं नेहरू हैं, दूसरा कोई नहीं है.
आने वाले वर्षों में भारत में इन मतभेदों पर कई बहसें होंगी, जिन्हें देखना और सहना होगा. आप सहमत हों अथवा नहीं, लेकिन कश्मीर भारत का एक परेशान हिस्सा है. जैसे नगालैंड, जहां 1947 के बाद से ही गृहयुद्ध हो रहे हैं. देश में ऐसे भी लोग हैं, जो इंदिरा गांधी के हत्यारों को अगर संत नहीं, तो नायक ज़रूर मानते हैं. जो लोग गोडसे का मंदिर बनाना चाहते हैं, वे भी उतने ही भारतीय हैं, जितने इस विचार से घृणा करने वाले. इस देश में हमेशा ऐसे लोग रहेंगे, जिन्हें अफजल गुरु को मिली सजा या बाटला हाउस के अभियुक्तों को लेकर शक है या जो नक्सलियों को वास्तविक देशभक्त मानते हैं. यह विभिन्न रायों की चरम विविधता है, जो परिभाषित करती है कि भारत क्या है और क्या होगा?