हिमालय को भारत का प्रहरी कहा जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिमालय की गोद में बसे देश नेपाल और भारत के रिश्तों में आई दरार ने इस प्रहरी को खतरे में डाल दिया है. दोनों देशों के बीच रिश्तों में पहले से व्याप्त दरार उस समय और अधिक चौड़ी हो गई थी, जब नेपाल के नए संविधान के कुछ प्रावधानों को लेकर सितम्बर 2015 में तराई क्षेत्र में रहने वाले मधेशियों ने एक बड़ा आन्दोलन खड़ा किया था. 134 दिन तक चले उस आन्दोलन में दर्जनों लोग मारे गए थे और भारत व नेपाल को जोड़ने वाली सड़क को ब्लॉक कर दिया गया था. नतीजतन खाने-पीने की चीज़ों के अलावा पेट्रोल की सप्लाई बिलकुल ठप हो गई थी.
भारत सरकार ने भी खुल कर मधेशियों की मांगों का समर्थन किया था. एक अख़बार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक भारत सरकार ने दो क़दम आगे जाकर नेपाल के संविधान में बदलाव के सात सुझाव भी दिए थे. नतीजतन नेपाल में, खास तौर पर पहाड़ी क्षेत्र में, पहले से ही व्याप्त भारत विरोधी भावना और अधिक प्रबल हो गई. इस भावना का फायदा मौजूदा प्रधानमंत्री केपी ओली के वाम गठबंधन ने फरवरी में हुए चुनावों में भारत समर्थक गठबंधन को पराजित करने में खूब उठाया.
बहरहाल, मधेशी आन्दोलन के दौरान चीन को नेपाल में अपने पैर पसारने का पूरा मौक़ा मिल गया. ऐसे समय में जब चीन समस्त दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, नेपाल में उसकी मौजूदगी भारत के लिए आर्थिक और सामरिक दोनों लिहाज़ से चिंताजनक है. ऐसे में नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली का हालिया भारत दौरे का महत्व बढ़ जाता है.
नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी केन्द्र) के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल प्रचंड को छोड़ कर अबतक के सभी नेपाली प्रधानमंत्रियों के विदेश दौरों का पहला पड़ाव भारत ही रहा है. नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री केपी ओली ने चीन से नजदीकियों के बावजूद उसी परम्परा को निभाते हुए अपना पहला विदेश दौरा भारत का किया. दरअसल भारत और नेपाल का रिश्ता न सिर्फ प्राचीन काल से स्थापित है, बल्कि आज भी इस देश का दो-तिहाई व्यापार भारत से होता है और 90 प्रतिशत आयात और निर्यात भारत के रास्ते से होता है.
इसके अलावा नेपाल के साथ भारत की सीमा खुली हुई है. यहां नेपाली नागरिक आसानी से न केवल आ-जा सकते हैं, बल्कि वे भारत में रोज़गार भी तलाश कर सकते हैं. यही नहीं, कई हज़ार नेपाली नागरिक भारतीय सेना में भी सेवारत हैं. पिछले कुछ वर्षों तक नेपाल में सर्वाधिक विदेशी निवेश भारत से होता था. लेकिन वर्ष 2014 तक यह स्थिति बदल गई थी और चीन, नेपाल में विदेशी निवेश के मामले में सबसे बड़ा देश बन गया था. इन निवेशों में बुनियादी ढांचे (इन्फ्रास्ट्रक्चर) का विकास और पनबिजली (हाइड्रो इलेक्ट्रोसिटी) प्रमुख थे.
दरअसल चीन पहले नेपाल में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाता था, जितनी दिलचस्पी आजकल दिखा रहा है. पिछले कुछ दशकों के दौरान चीन के विश्व आर्थिक शक्ति बनने के बाद उसकी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी हैं. इसके नतीजे में दक्षिण एशिया के देशों, चाहे वो श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश या फिर मालदीव हों, में वो अपना प्रभाव बढ़ा रहा है और भारत खड़ा तमाशा देख रहा है. चीन द्वारा नेपाल को बिल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) और ल्हासा-काठमांडू-लुम्बनी रेल लाइन प्रोजेक्ट की पेशकश भी उसी सिलसिले की कड़ियां हैं.
चीन की नज़र नेपाल की पनबिजली की संभावनाओं के दोहन पर भी है. भले ही नेपाल एक गरीब देश है, लेकिन यहां पनबिजली की अकूत क्षमता है. एक अंदाज़ के मुताबिक इस देश में 80,000 मेगावाट पनबिजली की क्षमता है, जबकि उसकी संस्थापित क्षमता केवल 700 मेगावाट है. नेपाल को बिजली के के लिए भारत पर निर्भर रहना पड़ता है. इसीलिए बीआरआई के अलावा चीन नेपाल में 2.5 अरब डॉलर के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट में फिर से दिलचस्पी दिखाना शुरू कर दिया है.
चूंकि गंगा में गिरने वाली अधिकतर हिमालियाई नदियां नेपाल से होकर भारत में आती हैं. इन नदियों के जल का प्रबंधन नेपाल के साथ-साथ भारत के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है. पूर्व में भारत एकमात्र देश था, जो नेपाल के जल संसाधन में निवेश में दिलचस्पी रखता था. लेकिन नेपाल में यह भावना आम थी कि भारत के साथ जल संसाधन को लेकर पूर्व में हुए समझौतों में नेपाल के हितों की अनदेखी की गई थी.
चाहे वो उपनिवेशवादी काल में 1920 में हुआ शारदा समझौता हो या फिर आज़ादी के बाद हुए कोसी और गंडक परियोजना से सम्बंधित समझौते. बहरहाल, भारत में सिंचाई और पेयजल के लिए नेपाल के जलसंसाधन के प्रबंधन ज़रूरी हैं, लेकिन चीन के इस मैदान में आ जाने से भारत की चिंता बढ़ गई है. इसलिए प्रधानमंत्री ओली की यात्रा से पहले ही भारत ने यह सा़फ कर दिया है कि यदि चीन नेपाल में बांध बनाएगा, तो उससे पैदा बिजली भारत किसी कीमत पर नहीं खरीदेगा. ऊहीं दूसरी तरफ नेपाल में चल रही भारतीय परियोजनाएं भी दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनातनी के कारण ठप पड़ी हुई हैं.
इस गतिरोध ने भी नेपाल में चीन की सेंधमारी की कोशिशों को आसान कर दिया है. इसमें कोई शक नहीं कि जल संसाधन प्रबंधन के मामले में नेपाल में चीन का हस्तक्षेप भारत के लिए खतरनाक है. भारत भी नेपाल पर दबाव बनाता रहा है कि वो चीन को इस क्षेत्र से दूर रखे. इसलिए नवम्बर 2017 में नेपाली कांग्रेस की सरकार ने चीन के साथ हुए 2.5 अरब डॉलर के बूढ़ी गंडक पनबिजली परियोजना को रद्द कर दिया था. लेकिन हालिया चुनावों में ओली के नेतृत्व वाले वाम गठबंधन ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया और सरकार बनाते ही उन्होंने इस परियोजना पर पुनर्विचार करने का आश्वासन भी दिया है.
इसी पृष्ठभूमि में नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की हालिया यात्रा शुरू हुई. इस यात्रा की पहल भारत की ओर से की गई थी. इस दौरे में प्रधानमंत्री ओली के भारत दौरे में रक्सौल-काठमांडू रेल लाइन परियोजना और नेपाल से स्टीमर ट्रांसपोर्ट की व्यवहार्यता अध्ययन के समझौते पर दस्तखत हुए हैं. इन समझौतों का मकसद नेपाल को ल्हासा-काठमांडू-लुम्बनी रेल लाइन प्रोजेक्ट से पीछे हटने और चीन के साथ हाइड्रो-इलेक्ट्रिसिटी परियोजनाओं को दोबारा शुरू न करने के लिए मनाना है. क्योंकि ये दोनों परियोजनाएं भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बन सकती हैं. लेकिन भारत को अपने मकसद में कितनी कामयाबी मिली, इसका एहसास उस समय होगा जब ओली चीन के दौरे पर जाएंगे.
इसमें कोई शक नहीं कि नेपाल में चीन की गतिविधियां भारत के लिए चिंता का विषय हैं. लेकिन इसमें भारत की गलत विदेश नीति का कम योगदान नहीं है. जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है कि मधेशी आन्दोलन के दौरान तकरीबन 135 दिनों तक भारत से जाने वाले रास्ते को ब्लॉक कर दिया गया था, जिसे भारत सरकार ने खुलवाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. ऐसे में नेपाल में खाने पीने की ज़रूरी चीज़ों की भारी कमी हो गई थी, जिसे चीन ने पूरा किया.
अब वैसी स्थिति से निपटने के लिए नेपाल चीन को किसी तरह से छोड़ना नहीं चाहेगा. नेपाल को अपने अंदरूनी मामलों में भारत की दखलंदाजी पसंद नहीं आई. भले ही प्रधानमंत्री केपी ओली के मौजूदा दौरे से भारत और नेपाल के रिश्तों में आई दरार को कम करने में मदद मिली हो, लेकिन नेपाल फिलहाल चीन के साथ अपने रिश्तों को बहाल रखने की हर मुमकिन कोशिश करेगा और भारत के इस महत्वपूर्ण पड़ोसी देश में चीन की सेंधमारी जारी रहेगी.