अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपनी अ़फग़ानिस्तान-पाकिस्तान (अ़फग़ान-पाक) नीति में पूरी तरह से विफल हो चुके हैं. इसी साल मार्च में ज़ोर-शोर से लाई गई अ़फगान-पाक नीति कारगर साबित नहीं हुई. लिहाजा, आठ साल से अ़फग़ानिस्तान में आतंकवाद के खिला़फ लड़ रही अमेरिकी सेना को बाहर निकालने के लिए ओबामा प्रशासन ने नई रणनीति की घोषणा की है. इसमें दो बातें सबसे अहम हैं. पहली, वह अमेरिकी सैनिकों की वापसी की बात कर रहे हैं और दूसरी यह कि 30 हज़ार अमेरिकी सैनिकों को अ़फग़ानिस्तान भेजने के साथ हज़ारों विदेशी सैनिकों को अ़फग़ानिस्तान में उतारने की तैयारी में लगे हैं. इस फैसले से एक बात सा़फ है कि उनकी नई नीति पिछली नीति से कहीं ज़्यादा खतरनाक है.
अगले छह महीनों में अमेरिका तीस हज़ार अतिरिक्त सैनिकों को अ़फग़ानिस्तान में उतारने जा रहा है. एक तरफ जहां ज़्यादा सैनिकों के साथ अमेरिका तालिबान और अलकायदा के खिलाफ़ सख्त रवैया अख्तियार करने जा रहा है, वहीं युद्ध के अंजाम को जाने बिना अमेरिकी सैनिकों को बाहर निकालने की योजना भी बना ली गई है.
राष्ट्रपति का पद संभालते ही ओबामा ने तबाह हो चुके इराक को उसके हाल पर छोड़ दिया. इराक की तबाही को उनसे पहले राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अंजाम दिया था. बुश प्रशासन का मानना था कि इराक दुनिया का सबसे ख़तरनाक मुल्क है. लिहाजा, इराक को तबाह कर दिया गया.
वहां से दुनिया भर के लिए उपजे खतरे को इस क़दर मिटा दिया गया कि आज इराक में दशकों से चली आ रही व्यवस्था खत्म हो चुकी है. उसकी जगह पर पश्चिमी मॉडल के लोकतंत्र को स्थापित करने की कोशिश की गई, लेकिन इससे पहले कि नया ढांचा चलने के लिए तैयार होता, अमेरिका वहां से निकल गया. आज ओबामा प्रशासन को अ़फग़ानिस्तान और पाकिस्तान दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा नज़र आ रहे हैं.
अ़फग़ान-पाक नीति की नींव इसी खतरे से निबटने के लिए रखी गई. अपनी पहली अ़फग़ान-पाक नीति से ओबामा को यह यक़ीन था कि वह दक्षिण एशिया के इस भाग में अमेरिकी नीतियों को लागू करने में सफल होंगे. उनकी कोशिश थी कि वह एक तरफ ईरान से संवाद स्थापित कर उसके परमाणु कार्यक्रम पर लगाम लगाने में सफल होंगे और इसके लिए वह उसे कुछ परमाणु रियायत देने के लिए भी तैयार थे. ओबामा प्रशासन का यह भी मानना था कि पाकिस्तान को वित्तीय मदद देने के नाम पर वह आसानी से पाकिस्तान सरकार, सेना और आईएसआई को संचालित कर सकेंगे तथा अ़फग़ानिस्तान युद्ध में पाकिस्तान की मदद लेते रहेंगे. वह यह भी मानकर चल रहे थे कि चीन के साथ शिखर पर पहुंचे आर्थिक रिश्ते की आड़ में वह उससे किसी तरह के समझौते को अंजाम दे सकेंगे और अ़फग़ानिस्तान में मौजूद अलकायदा एवं तालिबानी ताक़तों का स़फाया करने के बाद साबित कर सकेंगे कि अमेरिका एकमात्र ऐसी ताक़त है, जो अ़फग़ानिस्तान में जीत दर्ज़ करने का दमखम रखता है. ओबामा की नीति में भारत के लिए भले ही कोई परोक्ष किरदार नहीं था, लेकिन आतंकवाद के स़फाए के साथ अ़फग़ानिस्तान में निर्मित किए जाने वाले ढांचे में भारत की एक अहम भूमिका तय थी.
स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और सड़क के निर्माण के साथ-साथ भारत को अ़फग़ानिस्तान के भावी लोकतांत्रिक ढांचे की नींव भी रखनी थी. लेकिन, एक-एक करके ओबामा की पुरानी अ़फग़ान-पाक नीति का खोखलापन सामने आने लगा. ईरान ने अमेरिका की पेशकश ठुकरा दी, चीन यात्रा में ओबामा खाली हाथ गए और खाली हाथ वापस आ गए. अ़फग़ान-पाक नीति के लिए चीन ने अमेरिका को अनसुना कर दिया और वह रिश्तों को आर्थिक स्तर पर ही जारी रखने पर अडिग रहा. पिछली अ़फग़ान-पाक नीति के विफल होने में जितना योगदान ओबामा की नीतियों का था, उतना ही पाकिस्तान का है. अमेरिकी प्रशासन को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि पाकिस्तान को दी जा रही आर्थिक मदद वापस आतंकवाद को बढ़ावा देने के काम में लाई जा सकती है. पिछली नीति के चलते हज़ारों लोगों की जान जा चुकी है और अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में आतंकवाद की हालत जस की तस है. यह नई नीति अमेरिका को लगातार मिल रही हार का नतीजा है, जिसके चलते ओबामा की साख दांव पर लगी है. उनके पास खूनखराबा करके स्थिति पर क़ाबू पाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. लिहाजा ओबामा की यह नई अ़फग़ान-पाक नीति और अधिक बर्बर है, जो उनका असली चेहरा दुनिया के सामने रख रही है. इस नीति के परिणामस्वरूप लाखों लोगों के सिर पर मौत मंडरा रही है.