साथियों आज नवरात्रि का षष्ठम दिवस है, छटे नवरात्र में नवदुर्गा का स्वरूप अर्थात आकार है माँ कात्यायिनी.
मैं दिनेश मिश्र हूँ और आभारी हूँ प्रिय ब्रज जी का जिनकी वज़ह से मुझे आज ये अवसर मिला कि मैं इस समूह में प्रस्तुत कर रहा हूँ कवियत्री अनिता मण्डा की कुछ कविताएं.
कल शाम मेरी अनिता जी से बात हुई उन्होंने बहुत विनम्रता से बताया कि मैं बस अपने अनुभवों और अपनी सोच को कागज़ पर उतारती हूँ, वो कब कविता की शक़्ल अख़्तियार कर लेती हैं पता नहीं ?
एक सुशिक्षित और विदूषी महिला हैं अनिता जी, वे बहुत व्यापक भाव जगत से ताल्लुक़ रखती हैं,उन्होंने बहुत सहजता से बताया कि उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है और बड़ी बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशन भी उनके खाते में नहीं है, उनकी सशक्त रचनाएं पढ़कर मेरा ये ख़्याल एक बार और पक्का हो गया कि प्रकाशन होना रचनाओं की श्रेष्ठता का कोई मापदंड नहीं हैं, मैं उनकी कविताओं पर संक्षिप्त रूप से लिख रहा हूँ क्रमवार….!!
: सौंधापन :
उनकी ये कविता पूरी तरह कुदरत पर केंद्रित है, वातावरण में मुक्ति का संगीत मुखरित करती हुई बरसात इन्तज़ार के लम्हों को भी बूंदों से भिगोती हुई अपने आसपास मिट्टी के सोंधेपन की खुशबू को बिखेर रही है और चारों तरफ़ बस सुक़ून ही सुक़ून.महानगरीय माहौल में इस सुक़ून को महसूस करना बड़ी बात है.
: अधूरा :
ये अधूरेपन के भटकाव की और इशारा करती उम्दा रचना बन पड़ी है, नई नई उपमाओं से सजी प्रेम कविता है, जिसमें ताज़गी है नयापन है, शहद जैसे नवीन शब्दों के इस्तेमाल ने कविता की मधुर बना दिया है.
: बचपन की शक़्ल :
अद्भुत शब्द विन्यास के ज़रिए मरुभूमि पर कसीदाकारी करती हुई सी लगती है ये रचना. बचपन के चेहरे में दादा दादी नाना नानी को को निहारती भावुक रचना.
: डायरी :
लड़की की एक खोई हुई डायरी जो किसी नोजवान को मिल गई है जो अपने आप में जाने कितनों को डुबो देती है. वृद्ध को मिलती है तो खोज लेता उसमें अपनी बिटिया, इतनी असरदार कि जिसे पाकर पागल चाँद से बातें करने लगता है,और सो जाता है हमेशा के लिए जैसे पा गया हो वो सुक़ून जिसकी खोज थी उसे. झाड़ू लगाने वाला बूढ़ा पंचम सुर में गुनगुनाने लगता है.कुल मिलाकर प्रेम की ताकत को एक बार और स्थापित करती रचना है ये.
: बर्तन ले लो :
एक बर्तन बेचने वाली लुहारिन की शख्सियत सारी कायनात को जैसे अपनी गिरफ्त में ले लेती है..अच्छी लगी.
: स्थगन :
बिल्कुल अलग हटकर रचना है, बुद्ध की यात्रा के स्थगित होने की वज़ह को बताती रचना.
अनिता मण्डा की ये कविताएं आप सबको नज़र कर रहा हूँ, जिससे अपना नज़रिया यहां प्रस्तुत कर सकें.
अनिता जी आपकी कविताओं की संगत अच्छी लगी, हमारी शुभकामनाएं.
दिनेश मिश्र.
परिचय:-
अनिता मण्डा, निवास:-दिल्ली। जन्म:- जुलाई 1980, शिक्षा: हिंदी, इतिहास में में एम ए , बी एड।
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1️⃣
सौंधापन
धूप में नहाई हुई छतरियाँ
सूख रही हैं आँगन में
मौसम ने धर लिया एक पाँव आगे
धरती की तपस्या का वरदान है आषाढ़
सुख से गीली बारिश
दरख़्तों के दुःख धोती है
बजाती है मुक्ति का संगीत
इंतज़ार की बारिश में
तुम्हारे साथ भीगने की इच्छा
मेरे साथ भीगती है
सतरंगा मुस्कुराता है आकाश का समर्पण
बूँदों के पैरवे गुदगुदाते हैं माटी को
सुक़ून का तर्जुमा है सौंधी महक
2️⃣
बचपन की शक्ल
एक औरत थी बहुत सारे पेड़ों की माँ
जब भी बारिश होती
बीज बोने निकल जाती झुकी हुई कमर से
मरुभूमि पर हरियाली का कसीदा बुनने का
हुनर आता था उसे
उन पेड़ों की छाँव
सुकून के धागों से बनी चादर सी बिछती
अल सुबह चिड़ियाँ उन पर दुआ के गीत गातीं
उसकी सींची झाड़ियों के बेरों की मिठास की
आदी रही पूरे घर की ज़ुबान
एक औरत ने चरखे पर ऊन के फाए काते
तन सिहराती सर्द हवाओं को रोका
कोहरे वाली सुबह के बाद की
कुनमुनि धूप सी थी वो नरम मुलायम
चूल्हे पर सिकती रोटी की महक़ सी
एक और औरत के कन्धों पर बैठ
दुनिया को कुछ ऊँचाई से देखते हुए
इतराये हम
उसके दुलार की धारा में डूबते हुए
बहते हुए तैरते थे
एक दूसरी औरत ने
कठपुतली की तरह नाचने वाली गुड़ियों से
बाँधे रखा बालमन को
रंग-बिरंगे कपड़ों के बचे हुए टुकड़े
उसके हाथ लगने से
बेशकीमती खिलौने बन जाते
इंद्रधनुष को हम नाचता हुआ पाते
उसकी हँसी में
एक पुरुष इल्म की ज्योति से अँधकार मिटाता
हर पहाड़ा सफ़ेद धोती-कुर्ता पगड़ी धारण किये
एक सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ वाले इंसान की शक्ल इख़्तियार कर लेता
दुनियावी जोड़-बाकी, गुणा-भाग से परे
अक्षरों की पूँजी बाँटी
एक और पुरुष रसगुल्ले के पर्याय से
घुले रहे बचपन के क़िस्सों में
बचपन जी शक्ल हू ब हू मिलती है
दादा-दादी नाना-नानी से.
3️⃣
अधूरा
एक अधूरे छूटे संवाद में ठहरी हुई बातें हैं
सारी आँधियाँ
जो कहना था वो कभी नहीं आता होठों तक
अधूरा छूटा स्वप्न भूल जाता है सही रास्ता
भटकने को टूटते हैं सारे झरने
जीने की इच्छा उन्हें नदी बनाती है.
तारे तालाब में झील में उतर नींद लेते हैं
रात जागती है उनींदी
एक मछली हिलकर क़रीब लाती है
दो तारों को
रात के परिश्रम का पसीना है ओस
कभी बासी नहीं होती
इसे चखने सूरज कल भी
समय से निकलेगा
धुंध है धरती का सूरज से अबोला
वह हटा ही देगा बीच में पसरा पर्दा
आखिर तो चुप्पी को टूटना ही है
शहद है चुम्बनों का संचय
हर बूँद भीतर तक मीठी
जीवन का शहद है प्रेम
अधूरा, मीठा!
4️⃣
डायरी
मैं एक लड़की की डायरी हूँ जिसे रद्दी में से एक नौजवान ने पढ़ने के लिए उठाया था
चलती ट्रेन में वो आसपास को भूल
हर्फ़ों के समुंदर में डूब गया था
प्रेमिका का फोन न आता तो उसका स्टेशन पीछे छूट गया होता
फोन सुनते हुए डायरी छूट गई वहीं
एक लड़की ने पढ़ते हुए आसपास नज़रें घुमाई और अपनी देह के घाव ढक लिए अपने दुपट्टे से.
एक वृद्ध ने काँपते हाथों से पलटे उसके पन्ने
उसकी आँखों में पानी के बीच तैर आई अपनी बेटी की तस्वीर
कितना ही सफ़र कर मैं एक पागल के हाथ लगी
हाँ यही कहते थे उसे सब
सुबह से शाम चक्कर लगाता था रेलवे स्टेशन के
सब मुझे पढ़ रोये थे
सिर्फ वही हँसा था
सिर्फ़ उसने ही संभाला मुझे अमानत की तरह
कागज़ की तरह नहीं
क्वाटर्स की दीवार पर से रातरानी बाहर झुकी हुई थी पूरी
चाँदनी रात में झरे हुए फूलों से सजाता मुझे
चाँद से न जाने क्या-क्या कहता
अपने सीने से लगाकर सोता
एक शीत सुबह सदा के लिए सो गया वो
सड़क पर झाड़ू लगाने वाले बूढ़े ने उस पागल की धरोहर समझ रखा मुझे अपने पास
रोज़ बड़े सवेरे झाड़ू लगाते हुए पंचम स्वर में गाता था
‘पिंजरे के पँछी रे तेरा दर्द न जाने कोय’
उसकी आवाज़ सुन लोग खिड़कियाँ खोल देते थे घरों की
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5️⃣
अपराध-बोध
बर्तन ले लो के ऊँचे स्वर में
कोई चमत्कार था
खींच लाता था चारदीवारी में बंद औरतों को
आँगन से बाहर
मोल-भाव करती टुकुर टुकुर देखती थी
घुम्मकड़ लुहारिन को
जैसे किसी दूसरे लोक से आई हो वह
उसकी सांवली गठी हुई देह
गर्वीली धनुष जैसी बरौनियाँ
चमकीली चौकनीं आँखें, तनी हुई ग्रीवा
बीड़ी से जले हुए सांवले से थोड़े अधिक सांवले होंठ, उठे हुए कंधे
उसको देखने की लालसा
मक्खियों के गुड़ से लिपटने जैसी थी
दूर से पुकारती उसकी बुलंद आवाज़
मचाती है खलबली सी
चलती है वह उड़ती हुई सी
आँखें नहीं झुकाती ताड़ने वाली आँखों से
चाकू की धार से तेज धार है उसकी निगाह में
खिलखिलाती उसकी हँसी पर
अटक जाती हैं
चारदीवारी से झांकती औरतें
अनायास ठहर जाती हैं
दर्पण के सामने
मन ही मन करती हैं क्षमायाचना
दर्पण वाली लड़की से
उसके सपनों की पाँखें कुतर देने के अपराध-बोध से
झुक जाती है दृष्टि अनायास
झुक जाते हैं कंधे पहले से कुछ अधिक
**
6️⃣
स्थगन
हमारे चुने हुए
एकांत के बाहर
ठहरी रहती हैं
प्रतीक्षाओं की झीलें
सवेरे किरणें
खिला देती हैं कमल
उड़ आता है मन भ्रमर
एक बुद्ध की यात्रा
हो जाती है स्थगित
रोज़ सवेरे.