देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? कयासों और दावों के बीच नाम तो कई हैं, लेकिन सभी नामों के साथ उम्मीद और नाउम्मीद का संशय जुड़ा हुआ है. राहुल बनाम मोदी का एक आकलन ज़रूर है, लेकिन चुनाव नजदीक आने तक जाहिर तौर पर राजनीतिक परिदृश्य बदलेंगे, तब उसमें नए खिलाड़ी भी होंगे और नए मोहरे भी. हालांकि नरेंद्र मोदी की तस्वीर जिस तरह राष्ट्रीय पटल पर उभर कर आई, उससे संभावनाओं का एक प्रश्न प्रबल होता जा रहा है कि उन्हें कौन चुनौती देगा?
अजीब इत्तेफाक है कि जिस दिन राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने की पहली बार सहमति दी, उसी दिन कांग्रेस के लिए सबसे बुरी ख़बर मीडिया की सुर्खियां बनीं. 23 जनवरी को राहुल गांधी अमेठी में थे. मीडिया से बात करते हुए उन्होंने पहली बार यह कुबूला कि अगर कांग्रेस पार्टी की सरकार केंद्र में बनती है, तो वह प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं. शाम का वक्त था, टीवी पर दनादन ब्रेकिंग न्यूज चलनी शुरू हो गई कि राहुल प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हो गए हैं. लेकिन ठीक एक घंटे बाद चार-पांच बड़े न्यूज चैनलों पर चुनावी सर्वे का दौर शुरू हुआ. सर्वे रिपोर्टों का नतीजा एक ही था, कांग्रेस का सफाया. इन नतीजों के मुताबिक, कांग्रेस पार्टी इस बार लोकसभा में 100 सीटें भी नहीं जीत पाएगी. हालांकि सर्वे रिपोर्ट गलत साबित होती हैं, लेकिन जब सभी सर्वे रिपोर्टों का नतीजा एक जैसा हो, तो इससे देश का मूड समझ में आ ही जाता है. हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे इस बात के संकेत हैं कि देश में कांग्रेस के ख़िलाफ लहर ज़रूर है. वैसे भी, जिस तरह से लोग यूपीए सरकार की नीतियों, भ्रष्टाचार, घोटालों और सबसे अहम महंगाई से इतने परेशान हो चुके हैं कि यह कहना गलत नहीं होगा कि शायद चुनाव आते-आते यह कांग्रेस विरोधी लहर किसी सुनामी का रूप धारण कर ले और कांग्रेस पार्टी 60-70 सीटों में सिमट कर रह जाए.
इन सर्वे रिपोर्टों के मुताबिक, देश में प्रधानमंत्री पद के सबसे चहेते उम्मीदवार नरेंद्र मोदी हैं. इसमें भी कोई शक नहीं है कि देश में नरेंद्र मोदी ने खुद को सबसे सशक्त नेता के रूप में स्थापित किया है. मोदी विरोधियों और कांग्रेस पार्टी की यह दलील गलत साबित हुई है कि नरेंद्र मोदी स़िर्फ गुजरात के नेता हैं और गुजरात के बाहर उनका कोई करिश्मा नहीं है. हर चुनावी सर्वे में देश के हर राज्य में नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे पहली पसंद हैं. कांग्रेस पार्टी को यह सबक लेना चाहिए कि कोर्ट में केस डालकर राजनीति करना उसके लिए महंगा पड़ा है. एनजीओ के जरिए राजनीति करने की वजह से कांग्रेस पार्टी न तो गुजरात में मोदी का विजय रथ रोक सकी और न ही केंद्र की सत्ता में आने से रोकने की क्षमता कांग्रेस पार्टी में बची है. तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि 2014 के चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी? नरेंद्र मोदी बिना किसी चुनौती के आसानी से प्रधानमंत्री बन जाएंगे? राजनीति अगर साधारण प्रक्रिया होती तो यह माना जा सकता था, लेकिन भारत की राजनीति में एक सप्ताह का समय भी काफी होता है और बाजी पलट जाती है. तो सवाल यह है कि मोदी को चुनौती कौन देगा या मोदी को चुनौती देने की क्षमता किसमें है?
भारत की राजनीति में पिछले दो-तीन सालों में एक जबरदस्त बदलाव आया है. इस बदलाव के कई कारण हैं. यूपीए सरकार की दिमाग हिलाने वाली घोटालों की शृंखला, जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनहीनता, सरकार एवं निजी कंपनियों की मदद से जल-जंगल-जमीन की लूट, आर्थिक नीतियों की विफलताओं की वजह से जन्मी बेरोज़गारी, पिछले हर रिकॉर्ड को तोड़ने वाली महंगाई और सरकारी तंत्र के हर क्षेत्र में विफल होने की वजह से लोगों का न स़िर्फ भरोसा टूटा, बल्कि उनमें राजनीति, नेताओं एवं राजनीतिक दलों के प्रति घृणा पैदा हो गई. दूसरी तरफ़, कालेधन को लेकर बाबा रामदेव का जनजागरण और फिर अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार के ख़िलाफ आंदोलन शुरू हुआ, तो लोगों में ऊर्जा का संचार हुआ.
मोदी को चुनौती देने वालों में एक नाम अरविंद केजरीवाल का भी लिया जा रहा है. दरअसल, दिल्ली में कांग्रेस की मदद से सरकार बनाने, फिर एक ही महीने में धरना देने और मीडिया के कैमरे के सामने जिस तरह उनके नेता पेश आए, उससे आम आदमी पार्टी के बारे में लोगों का भ्रम टूटा है. अरविंद केजरीवाल की राजनीति क्या है, विचारधारा क्या है, एजेंडा क्या है और भारत के उज्जवल भविष्य का प्लान क्या है, यह स़िर्फ अरविंद केजरीवाल ही जानते हैं और कोई नहीं जानता.
जल-जंगल-जमीन के मुद्दों को लेकर किसानों, मज़दूरों एवं वनवासियों ने भी भारत के कोने-कोने में आंदोलन किया. सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रजातंत्र को बचाने में एक अहम रोल अदा किया है. मंत्री हो या प्रधानमंत्री, भ्रष्टाचार के मामलों में कोर्ट ने कड़ा रुख दिखाकर जनता का विश्वास कायम रखा. बड़े-बड़े नेताओं के जेल जाने से लोगों को लगा कि अब पहले की तरह नेताओं को बख्शा नहीं जाएगा. साथ ही, अख़बारों एवं टेलीविजन चैनलों ने भी लोगों का आक्रोश जमकर दिखाया और एक के बाद एक खुलासे करके देश में मूलभूत बदलाव की भावना लोगों में जगाई. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत की राजनीति के तर्क और संवाद में काफी बदलाव आया है. आज देश में यह माहौल बना है कि शायद अब भ्रष्ट, अपराधी एवं दागी किस्म के लोग राजनीति में टिक नहीं पाएंगे. धनबल और बाहुबल के जोर पर चुनाव जीतने के दिन ख़त्म हो गए हैं. पहली बार वोट देने वाले युवा मतदाताओं ने पिछले तीन-चार सालों में यह साबित किया है कि उनका वोट जाति, धर्म और भावनाओं पर आधारित राजनीति करने वालों के लिए नहीं है. यही वजह है कि राजनीति में अब साफ छवि, ईमानदारी और चरित्र की भूमिका का फिर से संचार हुआ है. तो अब सवाल यही है कि इस बदले हुए माहौल में क्या कोई ऐसा है, जो नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकता है?
जबसे मीडिया में नरेंद्र मोदी नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चला है, तबसे यह बहस जारी है कि 2014 का चुनाव मोदी बनाम राहुल होगा. कार्यप्रणाली के हिसाब से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में काफी अंतर है, क्योंकि दोनों पार्टियों का स्वरूप अलग-अलग है. भाजपा में अपने ही नेताओं को नीचा दिखाने की प्रथा है और वह भरपूर अंतर्कलह से ग्रसित है. फिर इन सबके ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दखलअंदाजी भी है. यही वजह है कि मोदी ने अपने नाम की घोषणा से पहले ही तैयारी शुरू कर दी. विरोधी राजनीतिक दलों से निपटने के पहले उन्हें अपनी ही पार्टी के बड़े-बड़े षड्यंत्रकारियों से निपटना था. इसका फायदा यह हुआ कि मोदी न स़िर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुए, बल्कि उन्होंने देश के युवा वर्ग में भी अपनी पैठ बना ली. दूसरी तरफ़, राहुल गांधी ने भी बड़ी मेहनत की, संगठन में जान फूंकने की कोशिश की. कांग्रेस का लक्ष्य राहुल गांधी को युवाओं के एकमात्र नेता के रूप में खड़ा करना था. शुरुआत में इसमें सफलता भी मिली, लेकिन नौसिखिए सलाहकारों की वजह से बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा. कर्नाटक और हिमाचल छोड़कर कांग्रेस पार्टी हर जगह चुनाव हार गई. पार्टी न स़िर्फ कमजोर हुई, बल्कि कांग्रेस के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास भी टूट गया. कार्यकर्ताओं की यह चाहत थी कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए, लेकिन यहां भी उन्हें निराशा हुई. देश की जनता और कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यही संदेश गया कि राहुल गांधी ने मोदी के सामने हथियार डाल दिए हैं. कांग्रेस पार्टी राहुल का मुकाबला सीधे-सीधे मोदी के साथ नहीं कराना चाहती है. युद्ध हो या राजनीति, अगर सेनापति ही पीछे रहकर लड़े, तो सेना का मनोबल टूट जाता है. कांग्रेस पार्टी ने ही यह मान लिया है कि राहुल गांधी मोदी के विकल्प नहीं हैं.
अगला नाम है नीतीश कुमार का. नीतीश कुमार की छवि अच्छे मुख्यमंत्री के साथ-साथ देश के सबसे बड़े मोदी विरोधी नेता की है. इस वजह से उन्होंने राजनीतिक परिणामों की परवाह किए बगैर भाजपा से रिश्ता तोड़ लिया और अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया. नीतीश कुमार एक अनुभवी नेता हैं. वह जयप्रकाश नारायण जी के आंदोलन से जुड़े रहे और हमेशा से समाजवाद के अनुयायी रहे हैं. उन्हें प्रशासन का अच्छा अनुभव है. भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए उन्होंने बिहार में न स़िर्फ लोकायुक्त क़ानून बनाया, बल्कि बिहार ऐसा पहला राज्य है, जहां भ्रष्ट अधिकारियों के घरों में स्कूल खोले गए. उन्होंने बिहार में क़ानून-व्यवस्था को कायम किया और रेलमंत्री के रूप में भी बहुत अच्छा काम किया. उनके द्वारा अपनाई गई नीतियों एवं योजनाओं पर यूपीए-1 का पूरा कार्यकाल बीता और लालू यादव ने जमकर उनके द्वारा किए कामों को अपना बताकर अपनी पीठ थपथपाई. मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश बिहार को विकास की राह पर ले आए. यह भी समझना ज़रूरी है कि लालू यादव के कुशासन की वजह से बिहार सबसे ज़्यादा पिछड़ चुका था. यहां का सरकारी तंत्र पूरी तरह से सड़-गल चुका था. क़ानून-व्यवस्था पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी थी. दिनदहाड़े लूटमार, अपहरण और हत्या की घटनाएं आम हो गई थीं. ऐसे राज्य में क़ानून- व्यवस्था को पुन: कायम करना और राज्य को विकास की राह पर लाकर खड़ा कर देना वाकई में नीतीश कुमार की नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है. यही वजह है कि कई लोग नीतीश कुमार में एक सफल प्रधानमंत्री देखते हैं, लेकिन नीतीश कुमार के सामने अभी चुनौतियों का पहाड़ है. भाजपा से अलग होने के बाद उनकी स्थिति पहले जैसी नहीं है. 2014 का चुनाव उन्हें अकेले ही लड़ना है. बिहार की राजनीति में कई तरह के सामाजिक और राजनीतिक कारक चुनाव में काम करते हैं. बिहार का चुनाव हमेशा एक जटिल परीक्षा होता है. गठबंधन की अलग चिंताएं हैं. यही वजह है कि नीतीश कुमार की प्राथमिकता बिहार में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतना है. अगर ज़्यादा सीटें नहीं होंगी, तो न स़िर्फ केंद्र की राजनीति से बाहर होने का, बल्कि बिहार सरकार पर भी ख़तरा मंडरा सकता है. इन तमाम राजनीतिक परिस्थितियों के बीच नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में खुद आगे आएं और मोदी को चुनौती दें, फिलहाल ऐसा होता दिखाई नहीं देता है. वैसे राजनीति में कुछ भी संभव है. आगे आने वाले दिनों में अगर राजनीति ने करवट ली और नीतीश कुमार की स्थिति बिहार में मजबूत हुई, तो इसमें कोई शक नहीं कि वह मोदी के ख़िलाफ एक प्रबल दावेदार होंगे.
मोदी को चुनौती देने वालों में एक नाम अरविंद केजरीवाल का भी लिया जा रहा है. दरअसल, दिल्ली में कांग्रेस की मदद से सरकार बनाने, फिर एक ही महीने में धरना देने और मीडिया के कैमरे के सामने जिस तरह उनके नेता पेश आए, उससे आम आदमी पार्टी के बारे में लोगों का भ्रम टूटा है. अरविंद केजरीवाल की राजनीति क्या है, विचारधारा क्या है, एजेंडा क्या है और भारत के उज्जवल भविष्य का प्लान क्या है, यह स़िर्फ अरविंद केजरीवाल ही जानते हैं और कोई नहीं जानता. आम आदमी पार्टी ने देश भर में चुनाव लड़ने की तो जल्दबाजी दिखा दी, लेकिन सरकार चलाने का कोई ब्लूप्रिंट तैयार नहीं किया. हास्यास्पद बात तो यह है कि पूछे जाने पर वह कहते हैं, अभी हमारी पार्टी नई है, इसलिए नीतियां तैयार की जा रही हैं.
हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी ने अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में मौक़ा देकर अराजकता को प्रोत्साहन दिया है. वैसे भी कांग्रेस पार्टी को भस्मासुर पैदा करने की पुरानी आदत है. कई राज्यों में अपने मुख्य विरोधी को हराने के लिए छोटी पार्टी का सहारा लेना कांग्रेस को महंगा पड़ा है. पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र आदि राज्यों में जहां कांग्रेस कभी सबसे बड़ी पार्टी होती थी, आज वहां यह अपने दम पर सरकार बनाने की हैसियत में नहीं है. कुछ राज्यों में तो यह वोटकटुआ पार्टी में तब्दील हो चुकी है. अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने का मौक़ा देकर कांग्रेस ने दिल्ली राज्य में खुद को तीसरे नंबर की पार्टी बना लिया है. दिल्ली मीडिया का केंद्र है, इसलिए यहां की छोटी ख़बरें भी राष्ट्रीय बन जाती हैं. यही वजह है कि आम आदमी पार्टी मीडिया में छाई हुई है. एक सर्वे रिपोर्ट आई थी, जिसकी वजह से इस बहस की शुरुआत हुई कि क्या अरविंद केजरीवाल मोदी का विजय रथ रोक लेंगे. यहां समझने वाली बात यही है कि इस सर्वे के मुताबिक भी अरविंद केजरीवाल फिलहाल मोदी को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं, बल्कि आम आदमी पार्टी शहरी इलाकों में भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है.
जरा इस सर्वे को समझने की कोशिश करते हैं. यह स़िर्फ 8 बड़े-बड़े शहरों में किया गया है. इस सर्वे में स़िर्फ 2015 लोगों की राय ली गई है. ये शहर हैं दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरू, हैदराबाद, पुणे और अहमदाबाद. इन शहरों में क़रीब 33 लोकसभा सीटें हैं. मतलब यह कि हर लोकसभा सीट के स़िर्फ 61 लोगों से राय ली गई, जबकि इन सीटों में औसतन 20 लाख वोटर हैं. वैसे भी यह सैंपल साइज बहुत छोटा है, इसलिए इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठता है. समझने वाली बात यह है कि इन 33 सीटों में स़िर्फ 3 सीटें भाजपा के पास हैं. इसके अलावा बाकी सभी 30 सीटें दूसरी पार्टियों के पास हैं, जो भाजपा के एनडीए में भी नहीं हैं. इस सर्वे में जो आम आदमी पार्टी को 100 सीटें मिलने वाली बात बताई जा रही है, वह भी भ्रामक है. यह कोई सर्वे का निष्कर्ष नहीं है, बल्कि 2015 लोगों की राय है कि देश भर में आम आदमी पार्टी कितनी सीटें जीतेगी. जबसे आम आदमी पार्टी राजनीति में कूदी है, सर्वे चुनावी प्रोपेगेंडा का एक सटीक हथियार बनकर उभरा है. कौन किस तरह से, कहां और किस उद्देश्य से सर्वे कर रहा है, उसका पता करना बड़ा मुश्किल है. जमीनी हकीकत यह है कि दिल्ली के बाहर आम आदमी पार्टी एक्का-दुक्का सीट ही जीत पाएगी. और जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल अरविंद केजरीवाल दूसरी पार्टियों के लिए करते हैं, उससे यह भी साफ़ है कि आम आदमी पार्टी का समर्थन लेने या देने में कई पार्टियों को मुश्किल होगी. इसलिए वह मोदी को चुनौती देने की स्थिति में बिल्कुल नहीं है. तो फिर सवाल यह है कि मोदी को चुनौती कौन देगा?
देश की बदलती राजनीति और नए आदर्श के मापदंड पर एक नेता का नाम साफ़ उभरता है, ममता बनर्जी. देह पर नीले बॉर्डर वाली उजली साड़ी और पैर में हवाई चप्पल. बंगाल की तीन दशकों की वाम राजनीति के कुरुक्षेत्र में ममता का चेहरा हर जगह मौजूद रहा है. आज जिस ईमानदारी एवं सादगी की बात हो रही है, उस सादगी, संयम और परिश्रम को ममता बनर्जी ने न स़िर्फ माना है, बल्कि जिया है. वह किसी की सहायता से अल्पमत की सरकार नहीं, बल्कि अपने संघर्ष की बदौलत और जनता की राजनीति करके बहुमत की सरकार चला रही हैं. राजनीति में उन्होंने सबसे पहला कारनामा 1984 के लोकसभा चुनाव में दिखाया, जब उन्होंने जादवपुर सीट पर माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी को हराया था. ममता का राजनीतिक जीवन निरंतर संघर्ष का जीवन रहा है. वह एक ग़रीब परिवार से आती हैं, लेकिन शुरू से ही समाज के दबे-कुचले लोगों की आवाज़ बनकर वामपंथी सरकार से लड़ती रहीं. आज बड़े जोर-शोर से राजनीति में शुचिता की बात हो रही है. पार्टियां किसी भ्रष्ट या अपराधी को टिकट न दें, उसका बिगुल फूंका जा रहा है और मीडिया में इसे एक क्रांतिकारी क़दम बताया जा रहा है, लेकिन ममता बनर्जी ने 1996 के विधानसभा चुनावों में आपराधिक छवि वाले नेताओं को टिकट देने के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद की थी. जब पार्टी में उनकी बातों को दरकिनार किया गया, तो ममता ने गले में शॉल का फंदा लगाकर आत्महत्या करने की कोशिश की. कांग्रेस से अलग होने के बाद ममता ने जगह-जगह जाकर खुद पार्टी को तैयार किया, कैडर तैयार किया, मूल्यों की राजनीति का नया अध्याय लिखा, कई घोटालों का खुलासा किया और जब भिखारी पासवान की मौत पर ममता ने आंदोलन किया, तो पहली बार उनके आंदोलन की गूंज पूरे देश में सुनी गई.
राजनीति की शुरुआत से ही ममता आम आदमी से जुड़े मुद्दे उठाती रही हैं. ममता की राजनीति की खासियत यह है कि वह विरोधियों पर आरोप लगाकर मुद्दे को भुलाती नहीं. ममता बनर्जी उन चंद नेताओं में से हैं, जिन्होंने न स़िर्फ आंदोलन किया, बल्कि आंदोलन को सफल भी बनाया. सिंगुर में टाटा के नैनो कारखाने के ख़िलाफ किसानों का मामला जब ममता ने उठाया, तो उन्होंने उसे पूरे दक्षिण बंगाल में फैलाया और तब तक आंदोलन ख़त्म नहीं किया, जब तक टाटा ने कारखाना नहीं हटाया. तृणमूल के गठन के बाद 1998 में उन्होंने राजग का दामन थामा, मगर ईंधन की क़ीमतें बढ़ाने के विरोध में उन्होंने उससे नाता तोड़ लिया. ममता बनर्जी की राजनीति मूल्यों की राजनीति है, संघर्ष की राजनीति है. ममता बनर्जी की लोकप्रियता बंगाल में चरम पर है. सभी सर्वे यही बता रहे हैं कि ममता बनर्जी आराम से 30 सीटों से ज़्यादा अकेले बंगाल में जीत जाएंगी. इसलिए वह दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों से बेहतर स्थिति में हैं. अगर वह बंगाल से बाहर तृणमूल कांग्रेस को लेकर जाती हैं और साफ़ छवि वाले ईमानदार लोगों के साथ मिलकर चुनाव लड़ती हैं, तो देश भर में वह 20 और सीटों पर जीत दर्ज करा सकती हैं. इसकी वजह यह है कि चाहे ईमानदारी हो, संघर्ष हो, आर्थिक एजेंडा हो या फिर राजनीति में शुचिता का मसला हो, ममता बनर्जी इन सभी मापदंडों पर मोदी, राहुल और केजरीवाल से ज़्यादा बेहतर स्थिति में हैं.
कई लोग तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं, लेकिन तीसरा मोर्चा अगर स़िर्फ चुनाव के लिए गठबंधन मात्र होगा, तो यह देश की जनता को स्वीकार नहीं होगा. असल मसला विकल्प का है. विकल्प का मतलब स़िर्फ अलग पार्टी या अलग चेहरा नहीं होता, बल्कि असली विकल्प वह होता है, जो वैकल्पिक एजेंडा देता है. मोदी का विकल्प देने का मतलब है कि आपकी आर्थिक नीति, बेरोज़गारी से निपटने की नीतियां, महंगाई रोकने के उपाय और देश के शोषित वर्ग के लिए योजना भाजपा से किस तरह से अलग है. यहां समझने वाली बात यही है कि भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है और दूसरी सभी पार्टियों के पास तो कोई नीतियां ही नहीं हैं. तो सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या भारत की राजनीति में पूरब से कोई सितारा उठेगा? जिसने अब तक आंधी-पानी, जलती दोपहर और धूल भरे रास्तों की परवाह किए बिना जनता से जुड़े मुद्दों पर संघर्ष किया है और जिसने जीवन के 30 सालों तक राजनीतिक तपस्या की है. क्या ममता बनर्जी का मां, माटी, मानुष का नारा सचमुच पूरे देश में चमत्कार करने वाला है?