एडोल्फ हिटलर एक ऐसा नाम है, जिसे शायद ही कोई भूल सकता है. आख़िर कोई भूल भी कैसे सकता है. इसके कारनामे ही कुछ ऐसे रहे हैं कि इसे भूलना इतिहास के एक अहम हिस्से को भूलने जैसा है. एक बार यह मान भी लें कि हमारे जेहन से हिटलर कहीं गुम हो गया है तो ऐसे में उसके कारनामे को याद रखने की उम्मीद बेमानी ही होगी. मुमकिन है हम और आप भूल जाएं, लेकिन इज़रायल के लिए हिटलर नाम के नासूर को भूलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. आख़िर अपनी मौत के कई सालों बाद भी हिटलर क्यों इज़रायलियों की आंखों की किरकिरी बना हुआ है? इसके पीछे की दास्तां भी कम ख़ौ़फनाक नहीं है. बात 1944 की है, दूसरा विश्व युद्ध अपने चरम पर था. हर तऱफ हिटलर की नाज़ी सेना का कोहराम मचा हुआ था. इसी साल नाज़ियों ने हंगरी पर क़ब्ज़ा किया. उसके बाद नाज़ी सेना के एक बड़े
ओहदेदार को हंगरी भेजा गया, ताकि वहां की समस्याओं पर क़ाबू पाने में किसी तरह की परेशानी न हो. युद्ध के दौरान लाखों लोगों को बसाने का ज़िम्मा इसे दिया गया. इन लोगों में यहूदियों की तादाद का़फी अधिक थी यानी लगभग 4,30,000. लेकिन सुरक्षित बचाने के बजाय इस शख्स ने सभी यहूदियों को काल के गाल में भेजने के लिए एक गैस चेंबर में क़ैद कर लिया. उसके बाद तो उनके हश्र का अंदाज़ा लगाना कतई मुश्किल नहीं है. दम घुटने की वजह से सभी यहूदियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. मानवता को कलंकित करने वाले उस नरसंहार की दास्तां इतिहास के पन्नों में आज भी दर्ज़ है, जिसे लाख चाहने के बावजूद नहीं मिटाया जा सकता है. यह अभी तक का जघन्य और सबसे ख़ौ़फनाक मंजर था. इस कलंकित कारनामे को अंजाम देने वाला शख्स कोई और नहीं, बल्कि नाज़ी पार्टी में का़फी बड़े ओहदे पर क़ाबिज़ जनरल एडोल्फ इक़मैन था, जिसके दिल में यहूदियों के ख़िला़फ स़िर्फ ऩफरत ही ऩफरत थी. इसीलिए उसने इतनी ब़डी संख्या में यहूदियों को तड़प-तड़प कर मरने के लिए गैस चेंबर में छोड़ दिया था. एडोल्फ इक़मैन ने न स़िर्फ इस कारनामे को बख़ूबी अंजाम दिया, बल्कि वह तो अपेक्षा से कहीं अधिक शातिर निकला. उसके इसी यहूदी विरोधी कारनामे ने उसे इज़रायल का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया.

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी को बुरी तरह शिकस्त मिली. कई जर्मनवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. नाज़ियों को भी जर्मनी के विरोधी देशों ने नहीं बख्शा, लेकिन इन सबके बावजूद इक़मैन किसी तरह बच निकलने में कामयाब हो गया. इक़मैन यह बात अच्छी तरह जानता था कि लड़ाई में तो वह सुरक्षित बच निकला, लेकिन लाखों यहूदियों के क़त्लेआम की वजह से इज़रायल उसे यूं ही आसानी से छोड़ने वाला नहीं. इज़रायल ने इक़मैन को पकड़ने के लिए जाल बिछाना शुरू किया.

इज़रायली एजेंसी डाल-डाल होती तो इक़मैन पात-पात यानी हर द़फा इक़मैन इज़रायलियों को चकमा देने में कामयाब हो जाता. दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद इक़मैन अमेरिकी सेना की गिरफ़्त में आ गया, लेकिन तक़दीर ने यहां भी इक़मैन का ही साथ दिया. दरअसल अमेरिकी अधिकारियों को इक़मैन की असलियत का कतई अंदाज़ा नहीं था, नतीजतन वह अमेरिकी हिरासत से आज़ाद होने में स़फल हो गया. उसके बाद वह कई सालों तक जर्मनी में ही ख़ु़फिया ठिकानों पर छुपकर रहा. इस बीच पकड़े जाने का ख़तरा उस पर हमेशा मंडराता रहा. जर्मनी में ही अब उस पर शिकंजा कसने की तैयारी होने लगी. इस ख़तरे को भांपकर इक़मैन ने जर्मनी छोड़ना ही बेहतर समझा. 1950 में वह इटली पहुंचा और उसके पीछे पहुंची इज़रायली ख़ु़फिया एजेंसी मोसाद. लेकिन, एक बार फिर मोसाद की पकड़ में आते-आते वह बच निकला. दरअसल जिस इक़मैन की तलाश में मोसाद यहां पहुंची थी, वह शख्स इटली कभी आया ही नहीं. जर्मनी से जो शख्स इटली आया, वह था रिकार्डो क्लेमेंट. जी हां, यही वह नाम था, जो एडोल्फ इक़मैन ने अपनी पहचान छुपाने के लिए रखा था. इटली में ही इक़मैन एक बिशप एलोइस ह्यूडल के संपर्क में आया, जिसके जरिए वह रेड क्रॉस सोसायटी की मदद से मानवीय आधार पर अर्जेंटीना का पासपोर्ट और वीज़ा हासिल करने में सफल हो पाया. यह महज़ इत्तेफाक की ही बात है कि जिस शख्स ने लाखों बेग़ुनाहों का बेरहमी से क़त्लेआम किया, उसे मदद भी मिली तो मानवीय आधार पर. लेकिन यह मदद एडोल्फ इक़मैन को नहीं, बल्कि रिकार्डो क्लेमेंट को मिली थी यानी उस शरणार्थी को, जिसने अपनी असली पहचान छुपा रखी थी. इस तरह 15 जुलाई 1950 को वह इटली से अर्जेंटीना पहुंचा. अगले दस सालों तक मोसाद की आंखों में वह धूल झोंकता रहा और अपनी ज़िंदगी मज़े से काटता रहा.
यह सोचना कतई ग़लत और मोसाद की काबिलियत पर सवाल उठाना होगा कि इस दौरान मोसाद हाथ पर हाथ धरे बैठी रही. 1954 में मोसाद को अपने अर्जेंटीनाई जासूस से एक पोस्टकार्ड मिला, जिसमें यह ज़िक्र किया गया था कि एडोल्फ इक़मैन अपने पूरे परिवार के साथ अर्जेंटीना में ही रह रहा है, लेकिन इस बारे में मोसाद को पुख्ता जानकारी नहीं मिली. इसके बावजूद मोसाद लगातार इक़मैन की खोज में लगी रही. आख़िरकार 1959 में मोसाद इक़मैन की पूरी जानकारी हासिल करने में सफल हो गई. उसे अपने एजेंट से पता चला कि वाक़ई में इक़मैन ब्यूनस आयर्स में रिकार्डो क्लेमेंट के नाम से रह रहा है. इसके बाद इज़रायली सरकार ने लाखों यहूदियों के क़ातिल को पकड़ कर येरुसलम लाने के लिए एक ऑपरेशन की अनुमति दी, ताकि उस पर मुक़दमा चलाया जा सके. अप्रैल 1960 में इक़मैन की पहचान सुनिश्चित होने के बाद मोसाद ने एक कोवर्ट मिशन के तहत 11 मई 1960 को इक़मैन को हिरासत में लिया. एडोल्फ इक़मैन को पकड़ने में मोसाद को का़फी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी. क्लेमेंट (इक़मैन) को पकड़ने के लिए मोसाद ने उसके काम से वापस आने का इंतजार किया. जब क्लेमेंट अपनी गाड़ी से आ रहा था तो रास्ते में कुछ लोगों ने उससे मदद मांगी. क्लेंमेंट जैसे ही मुड़ा, उस पर उन लोगों ने धावा बोल दिया और उसे अपने क़ब्ज़े में ले लिया. यानी वे लोग मोसाद के एजेंट थे और एडोल्फ इक़मैन अब मोसाद की गिरफ़्त में आ चुका था. इसके बाद इक़मैन पर मुक़दमों का दौर चला. हालांकि इक़मैन की हिरासत को लेकर कई देशों में तनाव का माहौल बना रहा, लेकिन इन सबका इज़रायल पर कोई असर नहीं पड़ा और आख़िरकार मुक़दमे की सुनवाई के बाद इक़मैन को फांसी की सज़ा सुनाई गई. फिर 31 मई 1962 को उसे फांसी दे दी गई. इस तरह मोसाद के काफी प्रयासों के बाद लाखों यहूदियों की हत्या के ग़ुनहगार को उसके अंजाम तक पहुंचाया जा सका. बग़ैर मोसाद की मदद के यह मिशन पूरा भी नहीं हो सकता था.

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