किसी राष्ट्र एवं समुदाय की रीढ़ की हड्डी उसकी आर्थिक स्थिति होती है. 1991 में कांग्रेस सरकार के वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा बाज़ार आधारित नई आर्थिक नीति की भारत में शुरुआत हुई. तत्पश्चात 1996 से 1998 तक यूनाइटेड फ्रंट सरकार एवं 1998 से 2004 तक एनडीए सरकार भी इसी नीति पर चलती रही और फिर डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में तो इस नीति को और अधिक बल मिला. प्रश्न यह है कि बाज़ार आधारित इस आर्थिक नीति का गत 23 वर्षों में राष्ट्र और मुसलमान समेत कमजोर वर्गों पर क्या असर पड़ा? कटु सत्य तो यह है कि इन 23 वर्षों में राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पूरी तरह चरमराई है. धनी अधिक धनी हुआ है और ग़रीब अधिक ग़रीब. इसके साथ-साथ पिछड़े वर्ग के लोगों में पिछड़ापन और बढ़ा है. जाहिर सी बात है कि राष्ट्र की कुल आबादी में 13.4 फ़ीसद की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमान इन्हीं कमजोर वर्गों में आते हैं. इस वास्तविकता से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि देश के विभाजन के बाद मुसलमानों की रीढ़ की हड्डी टूटी है, तो बाज़ार आधारित इसी नई आर्थिक नीति के कारण. वजह, यह समुदाय अपने विभिन्न पारंपरिक उद्योगों पर वैश्वीकरण की मार के चलते लगातार कमजोर होता गया. बावजूद इसके मुस्लिम समुदाय ने इस आर्थिक नीति का बलपूर्वक विरोध नहीं किया. आख़िर क्यों? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका कोई उत्तर इस समुदाय के नेतृत्व के पास नहीं है.
जरा देखते हैं कि ये पारंपरिक उद्योग क्या थे और कहां थे? ये पारंपरिक उद्योग दरअसल हुनर पर आधारित थे, जो नस्ल दर नस्ल एक से दूसरे में ट्रांस्फर होते जा रहे थे. ये राष्ट्र के विभिन्न भागों में फैले हुए थे. गांधी जी ने 20वीं शताब्दी के आरंभ में स्वदेशी आंदोलन का बिगुल बजाया था, उसी क्रम में राष्ट्र के ये पारंपरिक उद्योग भी गिने जाते थे. वह तो इन्हें राष्ट्र का गौरव मानते थे. उनका कहना था कि ये एक ओर जहां राष्ट्र की आर्थिक स्थिति मजबूत करते हैं, वहीं दूसरी ओर आत्मनिर्भरता बढ़ाते हैं. यही कारण था कि प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू मऊनाथ भंजन को हैंडलूम एवं अन्य उद्योगों के कारण भारत का मानचेस्टर कहते थे. इन उद्योगों में भदोई, मिर्जापुर एवं अन्य क्षेत्रों के कालीन एवं दरी, मऊनाथ भंजन की हैंडलूम साड़ी के साथ-साथ चोट का दर्द दूर करने लिए कुदरती तेल एवं नूरानी तेल, मुरादाबादी बर्तन, बनारसी साड़ी, फिरोजाबाद की चूड़ी, अलीगढ़ के ताले, आगरा एवं कानपुर के जूते, कोल्हापुर की चप्पलें एवं नागरे, सूरत में हीरे का तराशने का काम, बेलगाम में ग्रेनाइड को संवारने एवं चमकाने का काम और चेन्नई की चमड़े की टेनरीज काबिले जिक्र हैं.
यह पत्रकार इस नई आर्थिक नीति के लागू होने के आरंभिक दौर यानी 1995 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बनारस, मऊनाथ भंजन, भदोई, मिर्जापुर एवं कोपागंज गया था, तो इसने वहां विभिन्न उद्योगों का जाल बिछा देखा था. यह वह समय था, जब नई आर्थिक नीति के प्रभाव इन उद्योगों पर पड़ने शुरू हो चुके थे और इनमें सख्त बेचैनी पाई जा रही थी. उदाहरण के तौर पर भदोई, मिर्जापुर एवं कोपागंज में कालीन उद्योग, जो ज़्यादातर मुसलमानों के हाथ में थे, पर स्वामी अग्निवेश एवं उनके शिष्य कैलाश सत्यार्थी और फिर बाद में स्वामी के अलग हो जाने के बाद कैलाश सत्यार्थी ने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि कालीन व दरी बनाने के काम में बच्चों को शामिल किया जाता है. इसलिए इसमें बच्चों का खून शामिल है. कहने को तो यह बाल मजदूरी के विरुद्ध आंदोलन था, लेकिन इसका असल निशाना नस्ल दर नस्ल ट्रांस्फर होने वाले पारंपरिक उद्योग थे, जो बचपन से ही सीखे जा सकते हैं. इस पत्रकार ने दिल्ली एवं नोएडा के कई फ्लैटों में कैलाश सत्यार्थी द्वारा चलाई जा रही मुहिम और शिविरों का निरीक्षण किया था, जहां अनेक बच्चे भदोई, मिर्जापुर एवं कोपागंज से लाकर, बंदी बनाकर रखे गए थे. उन बच्चों ने डरते हुए बताया था कि उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध पकड़ कर लाया गया है और जबर्दस्ती उन्हें परेशान करने के बयान अख़बार वालों को दिलाए जा रहे हैं.
उस समय जांच-पड़ताल के बाद साबित हुआ था कि जर्मनी, जो अन्य विदेशी राष्ट्रों के साथ मशीन से कालीन बनाता था, को भारत की हस्तनिर्मित सुंदर एवं आकर्षक कालीनों से बाज़ार में मुकाबला करना पड़ता था और मार्केटिंग में कठिनाई होती थी. इसलिए अग्निवेश एवं कैलाश सत्यार्थी को बाल मजदूरी के बहाने उकसाया गया, मगर जब यह साजिश स्वामी पर खुल गई, तो उन्होंने इससे कन्नी काट ली. तब कैलाश सत्यार्थी ने अकेले मोर्चा संभाल लिया और जर्मनी का थोपा हुआ एगमार्क कालीनों पर लगवाने में मुख्य भूमिका निभाई. एगमार्क यह प्रमाण था कि इस कालीन की बुनाई में बच्चे शामिल नहीं हैं. इस प्रकार बच्चों को कालीन की बुनाई से अलग करते ही हाथ की बुनी कालीन का उद्योग का बुरी तरह प्रभावित होने लगा और अब अधिकतर ठप हो चुका है. यह पूरी साजिश इसलिए की गई, ताकि भारतीय कालीन बुनने का काम और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उसकी आपूर्ति कम हो जाए. फिर जर्मनी एवं अन्य राष्ट्रों की मशीनों द्वारा बुनी कालीनें बेची जा सकें. बनारसी साड़ियों के उद्योग के साथ भी यही साजिश रची गई थी. आश्चर्य की बात तो यह है कि बनारसी साड़ी आज भी वहां बनती है, मगर वह स़िर्फ नाम की बनारसी साड़ी होती है. उसमें कला-कारीगरी का नामोनिशान नहीं होता. यही कारण है कि इन साड़ियों में पहले जैसा आकर्षण नहीं पाया जाता और इनका मार्केट डाउन हो गया है, जिसके कारण देश में विदेशी मुद्रा की आवक भी कम हो गई है. यह नतीजा है 1991 में आरंभ की गई आर्थिक नीति का, जिसके चलते इन उद्योगों से जुड़ी वस्तुएं अब विदेशों से देश के अंदर आने और छाने लगीं. इस तरह देश में अधिकतर मुसलमानों के हाथों में पनप रहे उक्त उद्योग दम तोड़ते गए और इसका सीधा असर आम मुसलमानों पर पड़ा तथा गांधी जी का देश की आत्मनिर्भरता का सपना चकनाचूर हो गया. इतना ही नहीं, इन उद्योगों से बनीं एवं गांधी जी द्वारा इस्तेमाल की गई वस्तुओं की, पिछले वर्ष इंग्लैंड में हुई नीलामी के दौरान जो दुर्गति हुई, वह किसी से छिपी नहीं है. श्रेय तो जाता है कि उन वस्तुओं में से कुछ को प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी कमल मोरारका को, जो उनमें से कुछ को खरीद कर भारत वापस लाए (पढ़िए चौथी दुनिया, गांधी को किसने मारा 7-13 मई, 2012 और एक बार फिर कांग्रेस ने गांधी को मारा 1-7 जुलाई, 2013).
आश्चर्य की बात तो यह है कि मुसलमानों की कमर तोड़ने वाली इस नई आर्थिक नीति के विरुद्ध गत 23 वर्षों में कहीं कोई विरोध और नाराज़गी का स्वर नहीं सुनाई पड़ा. मुस्लिम संगठन एवं उसके नेता ऐसी चुप्पी साधे हुए हैं, जैसे उन्हें कुछ पता नहीं है. जब चौथी दुनिया ने कुछ मुस्लिम विशेषज्ञों, विद्वानों एवं संगठनों से पूछा, तो ऐसा लगा कि इसकी नज़ाकत का उन्हें कोई अंदाजा नहीं है और वे बचाव का पक्ष ले रहे हैं. अर्थशास्त्री एवं थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज के अध्यक्ष डॉ. मंजूर आलम उल्टा पारंपरिक उद्योगों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि उन्हें आधुनिकीकरण का भय है, इसलिए वे वर्तमान समय के तक़ाजों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. आलम सरकारी योजनाओं के लागू न होने को भी ज़िम्मेदार मानते हुए सांसदों एवं विधायकों के साथ-साथ अफसरशाही पर आरोप लगाते हैं. जबकि ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत के अध्यक्ष डॉ. जफ़रुल इस्लाम खां इन पारंपरिक उद्योगों का आधुनिकीकरण न होने के साथ-साथ नई आर्थिक नीति को भी पूर्ण रूप से तो नहीं, लेकिन कुछ-कुछ ज़िम्मेदार मानते हैं. उनका कहना है कि उद्योगपतियों को खुली छूट दे दी गई है, जो देश की बजाय बाहर निवेश कर रहे हैं. आवश्यकता इस बात की है कि सोसलिस्ट और कैपिटलिस्ट दोनों आर्थिक व्यवस्थाओं की विशेषताओं को लेकर संयुक्त आर्थिक नीति बनाई जाए. उन्हें आशा है कि आगामी सरकार इस पर ध्यान देगी. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी एवं लंदन यूनिवर्सिटी की खाक छानकर अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले अर्थशास्त्री डॉ. अबुज़र कमालुद्दीन साफ़ तौर पर नई आर्थिक नीति को पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराते हुए दलील की बुनियाद पर कहते हैं कि नई आर्थिक नीति का मुसलमानों को कोई फ़ायदा नहीं हुआ और व्यवस्था की असफलता के तमाम नुक़सान का उन्हें आज भी सामना करना पड़ रहा है. मुस्लिम नेतृत्व ने भी आर्थिक मामलों पर कभी ध्यान नहीं दिया. वह कहते हैं कि कांग्रेस नई आर्थिक नीति लेकर आई और अन्य पार्टियों ने इसे यहां पनपने में सहयोग किया. डॉ. अबुज़र को भय है कि अगर नरेंद्र मोदी सत्तारूढ़ होते हैं, तो अधिक आक्रमक रूप से इस नई आर्थिक नीति पर अमल होगा, जिसमे बड़े औद्योगिक घरानों को छूट दी जाएगी और आम आदमी को लालीपॉप पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. चूंकि मुसलमानों ने वर्तमान चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए कोई तैयारी नहीं की है, इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति और अधिक बदतर होने की आशंका है.