फिल्म – नदिया के पार
निर्देशक – गोविंद मुनीस
निर्माता – ताराचंद बड़जात्या
मुख्य कलाकार – सचिन, साधना सिंह, इंद्र ठाकुर, मिताली, सविता बजाज, शीला डेविड, लीला मिश्रा, सोनी राठौर आदि
गीत और संगीत – रवींद्र जैन

पारिवारिक फिल्मों की लोकप्रियता की नब्ज़ पहचानने वाले निर्माताओं में राजश्री प्रोडक्शन भी सदैव आगे रहा है। कई हिट फिल्में देनेवाली इस कंपनी के बैनर तले निर्मित फिल्म ‘नदिया के पार’ जो 1982 में रिलीज हुई थी जिसमें उत्तरप्रदेश और बिहार की स्थानीय बोली की मिठास से सराबोर एक मीठा और प्यारा वातावरण आसपास के क्षेत्रों को भी आकर्षित कर रहा था।
यह फिल्म केशव प्रसाद मिश्र के हिंदी उपन्यास “कोहबर की शर्त” पर आधारित क्षेत्रीय भाषा की फिल्म है जिसमें अवधी और भोजपुरी का प्यारा सम्मिश्रण है। इसे तेलगु में ‘प्रेमलयम’ नाम से डब किया गया। नदिया के पार की अपार लोकप्रियता के कारण करीब 12 साल के बाद 1994 में राजश्री प्रोडक्शन से ही “हम आपके हैं कौन” नाम से हिंदी में फिल्माया गया। इस बार भी इस फिल्म ने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। क्षेत्रीय भाषा में जहाँ क्षेत्र-विशेष में हिट हुई, वहीं हिंदी भाषा में सुपर-डुपर हिट हुई। आज भी इसके गाने शादी जैसे पारंपरिक आयोजनों में सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। कितने टूटते परिवारों को इन फिल्मों से प्रेरणा मिली और वे टूटने के बजाय फिर से जुड़ गए। बल्कि पहले से अधिक मजबूती के साथ जुड़े जिसमें रिश्तों की खूबसूरती को महसूस किया गया।


‘नदिया के पार’ फिल्म से नयी हिरोइन साधना सिंह ने फिल्म-क्षेत्र में कदम रखा। अरसे बाद क्षेत्रीयता की सोंधी गंध और ताजा हवा के झोंके-सी ताजगी लिए यह फिल्म सभी के द्वारा बहुत पसंद की गयी। एक साफ-सुथरी यह पारिवारिक फिल्म भावनाओं के उतार-चढ़ाव के साथ बढ़ती हुई सकारात्मक अंत को प्राप्त करती है।
साधना सिंह गुंजा के और सचिन चंदन के किरदार में आए। गुंजा की बड़ी बहन रूपा की भूमिका मिताली ने निभायी, वहीं इंद्र ठाकुर ने सचिन के बड़े भाई ओंकार की। शीला डेविड चंदन के बचपन की दोस्त के रूप में आयी जो चंदन से एकतरफा प्रेम करती थी। सभी ने अपनी-अपनी भूमिका बड़ी खूबसूरती से निभायी।
गाँव का एक किसान अपने दो भतीजों के साथ रहता था जो अक्सर बीमार रहा करता था। उसका इलाज पड़ोसी गाँव के वैद्य किया करते थे। ग्रामीण समाज में आपसी प्रेम और भाईचारा की जड़ें काफी गहरी थीं। इलाज के एवज में किसान ने वैद्य जी को फीस देना चाहा, किंतु वैद्य जी को अपनी विवाह योग्य बिटिया रूपा के लिए ओंकार एक सुयोग्य लड़का लगा। उन्होंने फीस के बदले रूपा के विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे किसान ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। फिर तो बड़े धूमधाम से गुंजा की दीदी रूपा और चंदन के भइया ओंकार की शादी होती है जहाँ क्षेत्र-विशेष (भोजपुरी) के वैवाहिक रस्मों के पारंपारिक रिवाज और विवाह के विविध रस्मों के गीतों ने सभी का मन मोह लिया।


वैवाहिक रस्मों के दौरान जहाँ दर्शक मीठी-मीठी नोक-झोंक का आनंद उठाते हैं, वहीं कन्यादान जैसे रस्म की मार्मिकता को गीतों के द्वारा सजीवता के दर्शन भी करते। विदाई का दृश्य तो हर देखनेवालों की आँखों में गंगा-यमुना की धार बहाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। दर्शक स्वयं को इस फिल्म से इतना जुड़ा हुआ महसूस करते हैं कि उन्हें लगने लगता है कि अपने पड़ोसी के घर शादी में आए हैं। देवर-भाभी की नोक-झोंक, भाभी के गर्भवती होने पर उसकी बहन का आना, नायक-नायिका में प्रेम का अंकुरण आदि दृश्य हल्के-फुल्के हैं जो बड़े प्यारे लगते हैं। छोटी-सी खरास पर भी नायक का आधी रात को वैद्य जी के घर दवा लाने जाने की आकुलता प्यार के उस ललछौंहे कोंपल के फूटने का नजारा दर्शक बड़े प्रेम से देखते हैं और आनंद भी उठाते हैं।
शहरी क्षेत्रों में या विदेशों में रहने वाले लोगों के लिए अपने पारंपरिक रस्मों और रिवाजों को पुनर्जीवित रखने के लिए इस फिल्म ने बहुत जोरदार भूमिका निभाई है। फिल्में न केवल मनोरंजन के लिए बनायी जाती हैं, वरन् उनका एक महत्वपूर्ण उद्देश्य सकारात्मक संदेश देना, समाज में व्याप्त बुराइयों की तरफ ध्यान आकृष्ट करना, कुप्रथाओं के उन्मूलन के साथ-साथ अपनी समृद्ध परंपरा और संस्कृति को आनेवाली तमाम पीढ़ियों के दिलों में बसाए रखना। जहाँ तक मैं समझती हूँ, इस फिल्म का उद्देश्य भी अपनी परंपराओं को सहेजना, परिवार व समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए रखना, होली आदि त्योहारों के लिए जोश और हर्ष-उल्लास जो वर्तमान समय में विलुप्त हो रहे हैं, को नयी पीढ़ी के अंदर रोचकता के साथ स्थापित करना… जिसमें इसे पूर्ण सफलता मिली है।
मध्यांतर के बाद फिल्म में गंभीरता का समावेश होता है। नायिका की बहन अपने देवर और बहन के प्रेम को समझ कर दोनों को एक कर पाती, उससे पहले ही एक हादसे का शिकार हो जाती है और इस प्रेम का राज कोई अन्य जान नहीं पाता। घर में अन्य किसी स्त्री के न होने के कारण बच्चे की देखभाल का जिम्मा मासी पर आता है और वह उस बच्चे को इतने प्यार से सँभालती है कि दोनों परिवार के मुखिया उसे मासी से माँ बनाने पर सहमत हो जाते हैं। यहाँ नायक-नायिका को गलतफहमी होती है। वे समझते हैं कि दोनों परिवार चंदन और गुंजा की शादी के लिए सहमत हुए हैं। अतः वे अपनी सहमति दे देते हैं। दूल्हे के रूप में गुंजा अपने जीजा को देख बेहोश हो जाती है। गुंजा की सहेली चंदन से बात करवाती है और नायक-नायिका दोनों बच्चे की खातिर अपना प्रेम कुर्बान करने को तैयार हो जाते हैं। जब जीजा को इस बात का पता चलता है तो वह अपने बड़े होने का फर्ज निभाता है और अपने भाई के साथ अपनी साली की शादी यह कह कर करवा देता है कि चाची बनकर भी तो बच्चे की देखभाल की जा सकती है!


पहले फिल्में एक खास उद्देश्य से बनायी जाती थीं जो मनोरंजन के साथ-साथ एक संदेश भी दे। परिवार के लिए त्याग और बलिदान की भावना को इस फिल्म से काफी बल मिलता है और अपने इस उद्देश्य में फिल कामयाब हो पायी।
एक से बढ़कर एक मधुर गीत फिल्म को स्वस्थ, सरस व मनोरंजक बनाते हैं…
इस फिल्म के कुछ गीत…

“जब तक पूरे न हों फेरे सात…
हे! तब तक दुलहा नहीं दुलहिन के…”

“साची कहूँ तेरे आवन से हमरे, अँगना में आइल बहार भउजी…”

“कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया…”
एक होली-गीत ने तो गज़ब का रंग जमाया था…

“जोगी जी वाह जोगी जी!…
जोगी जी धीरे-धीरे, नदी के तीरे-तीरे…
जोगी जी प्रेम का रोग लगा हमको,
कोई इसकी दवा यदि हो तो कहो…

और भी कई कर्णप्रिय गीत हैं इस फिल्म में।
सारे गीत आज भी अत्यंत मधुर और जुबान पर चढ़े हुए हैं तथा पर्व व शादी-समारोहों में बड़े जोश के साथ बजाए जाते हैं।
— गीता चौबे गूँज
राँची झारखंड

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