तीन खरब वाले इस बाज़ार को चलाने वाले क्या भारतीय संसद को प्रभावित कर ले जाएंगे?  दुनिया में जिस तरह मा़िफया संगठन बढ़ रहे हैं और उनका प्रभाव बढ़ रहा है, उससे इस डर का आधार पुख्ता हो रहा है. देश की न्यायपालिका में भी ऐसे न्यायाधीशों की संख्या बढ़ रही है जो अपने को ख़तरनाक सुनवाई से अलग करते जा रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत सरकार अपना दिमाग़ साफ करे और धारा तीन सौ सतहत्तर के ऊपर अपनी स्पष्ट राय तीन हफ्तों के भीतर बताए. कहानी दिल्ली हाईकोर्ट से शुरू हुई, सुप्रीम कोर्ट पहुंची और अब सरकार और संसद पर फैसला लेने की ज़िम्मेदारी आ गई है. अभी तक सरकार ने स्पष्ट राय तो नहीं बताई है लेकिन क़ानून मंत्री ने इशारा दिया है कि वह इस धारा को ख़त्म करने के पक्ष में हैं. दूसरी ओर गृह मंत्रालय इस धारा को बनाए रखने के पक्ष में है. संसद ख़ामोश है और राजनैतिक दलों के नेता कुछ भी कहने से बच रहे हैं. अगले तीन हफ्ते निर्णायक हो सकते हैं और इसके साथ ही तय हो जाएगा कि भारत किस दिशा की ओर जाएगा या दूसरे शब्दों में, क्या भारत अगले कुछ सालों में सेक्स की बड़ी मंडी में तब्दील होगा या नहीं.

तीन सौ सतहत्तर धारा कहती है कि किसी भी प्रकार का अप्राकृतिक यौन संबंध क़ानूनन अपराध है और इस ज़ुर्म में दस साल या उम्र क़ैद की सजा दी जा सकती है. यह छोटा सा क़ानून अब तक भारत को एक बड़े विदेशी सेक्स बाज़ार का हिस्सा बनने से बचाता रहा है. लेकिन अब लगता है कि ऐसा नहीं हो पाएगा. देश के ही एक एनजीओ के ज़रिए हाईकोर्ट में इस क़ानून को हटाने की मांग उठवाई गई और देश में माहौल बनाया गया कि समलैंगिकों के अधिकारों का इस क़ानून की वजह से उल्लंघन हो रहा है.

बहाना एचआईवी का लिया गया कि अगर यह क़ानून न हटा तो समलैंगिक सामने नहीं आएंगे और एचआईवी देश में तेज़ी से फैलता जाएगा, क्योंकि समलैंगिक हाईरिस्क ग्रुप में आते हैं.
अभी तक दुनिया में कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है जिसमें यह साबित हुआ हो कि समलैंगिकता से एचआईवी फैलता है. हाईकोर्ट में भी कोई अध्ययन नहीं प्रस्तुत किया गया. अब इस तर्क का खोखलापन देखें. अगर समलैंगिकता से एचआईवी फैलता है तो समलैंगिकता की संस्कृति के ख़िला़फ अभियान चलाना चाहिए और समलैंगिकता की वकालत करने वालों के ख़िला़फ कठोर क़ानूनी प्रावधान करना चाहिए. इसकी जगह उल्टा काम किया जाने वाला है, समलैंगिकता को क़ानूनी मान्यता दे दो, तेज़ी से एचआईवी बढ़ने दो, हाईरिस्क ग्रुप में लोगों की संख्या बढ़े, फिर उनका इलाज हो और चूंकि इलाज है नहीं, इसलिए लोगों को मरने दो. क्या हाईकोर्ट को इस संस्था के तर्क में अंतर्विरोध नज़र नहीं आया?
यह तर्क वैसा ही है जैसे कहें कि नशीली दवाओं के ख़िला़फ बने क़ानून समाप्त कर दिए जाएं, क्योंकि इससे चोरी-छिपे नशा करने का चलन बढ़ रहा है और जब क़ानून ख़त्म हो जाएगा तो ड्रग्स लेने वाले खुले आम सामने आएंगे और तब उनका इलाज हो सकेगा. दरअसल यह तर्क नहीं कुतर्क है, क्योंकि इसे बढ़ाएं तो हर वह क़ानून समाप्त कर देना चाहिए जो अपराध रोकने के लिए बना है.
पंद्रहवीं लोकसभा और उसके सदस्यों से बनी सरकार को चेतावनी देना हमारा फर्ज़ है. समलैंगिकों के अधिकार के बहाने देश को एक ख़तरनाक मंडी में बदलने की साज़िश रची जा रही है. अगर यह लोकसभा दलों की सीमाओं से ऊपर उठकर फैसला नहीं लेती तो यह लोकसभा देश की संस्कृति, सभी धर्मों की अच्छाइयों को तबाह करने की अपराधी मानी जाएगी. इस्लाम कहता है कि अप्राकृतिक यौन संबंध नाजायज़ है, हिंदू धर्म भी यही कहता है, क्रिश्चियन, सिख जैन धर्म भी यही कहते हैं. इस सर्वमान्य मान्यता को बदलने का अधिकार क्या लोकसभा को है? हमारा कहना है कि नहीं. पर यहीं सवाल फिर खड़ा होता है कि सभी धर्मों के धर्माचार्य सामूहिक रूप से क्यों खड़े नहीं हो रहे और क्यों वे मानसिक विकार के ख़िला़फ आवाज़ नहीं उठा रहे?  अख़बारों में छिटपुट राय भर दे देने से धार्मिक संगठनों का कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता. उन्हें संभावित सेक्स हमले के ख़िला़फ खड़ा होना होगा, अन्यथा उनका धर्म ही उन्हें कभी माफ नहीं करेगा. अगर वे अभी भी खड़े नहीं हुए तो भारत को अमेरिकी मा़िफया के कंट्रोल वाले सेक्स बाज़ार में बदलने की साज़िश में शामिल माना जाएगा. यह आग उनके घरों में भी पहुंचेगी और वे पाएंगे कि उनकी भी कोई बहू-बेटी इस बाज़ार का हिस्सा बन गई है.
हमारे देश का मीडिया तो शायद यही चाहता है. उसने इस देश की समस्याओं को अरसे से नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया था, अब तो उसने बिना छानबीन के देश में ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया है मानो हाईकोर्ट के फैसले के बाद पहली बार आज़ादी की हवा आई है. जो मीडिया को नियंत्रित करते हैं, वे शायद पचास अरब के टर्नओवर वाले सेक्स व्यापार में अपनी हिस्सेदारी देख रहे हैं. मीडिया का बुनियादी रोल अब इन्हें पसंद नहीं है. जीवन के हर क्षेत्र को प्रदूषित करने का काम इनके इशारे पर शुरू हो चुका है. कहां मीडिया लोकतंत्र को संतुलित करने वाले एक अंग के रूप में जाना जाता था, अब कोशिश हो रही है कि मीडिया चापलूस की भूमिका निभाए.
एक डर पैदा हो रहा है. तीन खरब वाले इस बाज़ार को चलाने वाले क्या भारतीय संसद को प्रभावित कर ले जाएंगे?  दुनिया में जिस तरह मा़िफया संगठन बढ़ रहे हैं और उनका प्रभाव बढ़ रहा है, उससे इस डर का आधार पुख्ता हो रहा है. देश की न्यायपालिका में भी ऐसे न्यायाधीशों की संख्या बढ़ रही है जो अपने को ख़तरनाक सुनवाई से अलग करते जा रहे हैं. कोई तो दबाव या डर होगा, जो उन्हें ऐसा फैसला लेने पर विवश कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर हम सबको भरोसा है. उन्हें उन सबको मौका देना चाहिए जो इस देश के अच्छे भविष्य में विश्वास रखते हैं. कुछ संस्थाएं ही बची हैं जिन्हें लोग विश्वास की नज़र से देखते हैं. सुप्रीम कोर्ट उनमें से एक है. सुप्रीम कोर्ट चाहे तो राष्ट्रपति को सलाह दे सकता है कि इस क़ानून को हटाने या बदलने का रिफरेंडम कराया जाए. सौ करोड़ से ज़्यादा लोगों का विश्वास मात्र कुछ हज़ार या कुछ लाख लोगों के मानसिक विकार पर क़ुर्बान नहीं किया जा सकता.

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