कहने को तो भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र में मुसलमान 13.4 प्रतिशत है. मगर तमाम स्थानों पर कहीं अधिक तो कहीं कम संख्या में होने के कारण इनका चुनाव के समय महत्व बहुत बढ़ जाता है. यही कारण है कि पंचायत से लेकर संसदीय चुनाव में सभी पार्टियां एवं ग्रुप्स इन्हें महत्व देते हैं. 16वीं लोकसभा चुनाव के दौरान भी देश की 543 सीटों में अधिकतर पर ये विवाद का विषय बने रहे. अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए सभी पार्टियां यहां तक कि भाजपा भी और उनके उम्मीदवार उनसे समर्थन की अपील करते रहे. ये अपीलें आमतौर से मुसलमानों के संगठनों एवं अहम नेताओं से की जाती रहीं. अतएव यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस बार मुस्लिम संगठनों एवं नेताओं की अपीलों का असर मुसलिम मतदाताओं पर क्या पड़ा? आइये इसका विश्लेषण करते हैं.
चुनावी नतीजों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि 1981 में मुसलमानों में टैक्टिकल वोटिंग का सिलसिला अभी तक चल रहा है. इसके अंतर्गत भाजपा उम्मीदवार को हराने के लिए सेक्युलर कहलाने वाली पार्टियों में सबसे अधिक ताकतवर एवं जीतने वाले उम्मीदवार को मत देने को कहा जाता है जोकि पुरे संसार में शायद अपने प्रकार का अकेला रुझान है. इस लिहाज से मुस्लिम संगठनों एवं नेताओं की यह अपील तो प्रभावी रही और मुस्लिम मतदाताओं में अधिकतर ने किसी भी भाजपा उम्मीदवार को वोट देने से गुरेज किया और इसी के साथ साथ मुस्लिम मत प्रतिशत अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में अधिक रहा. मगर उनकी ये रहनुमाई उन्हें पूर्ण रूप से बहुत अधिक फायदा नहीं पहुंचा सकी और मुस्लिम मतदाता विभिन्न सीटों पर कन्फ्यूजन का शिकार हुआ और उसका वोट विभाजित हुआ जिसके कारण अनेक सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार कामयाब हो गए. इसका साफ मतलब ये हुआ कि चले थे भाजपा को रोकने मगर जिस राह पर चले उससे भाजपा और अधिक आगे बढ़ी. गत 23 वर्षों में सात बार से संसदीय चुनाव में यही होता आया है.
आज भारतीय मुसलमान विभिन्न विचारों एवं जात-पात में विभाजित होकर रह गए हैं. उनकी अधिक संख्या भाजपा के विरुध मे एकमत हो भी जाती है तो सेक्यूलर कहलाने वाली पार्टियों में किसे मत दिए जाएं, इसपर एक राय नहीं हो पाती है और विभिन्न गैरभाजपा पार्टियों में इनका मत बट जाता है जिसका सीधा फायदा भाजपा को पहुंच जाता है. अलग अलग विचारों एवं विरादरी के अलग अलग नेतृत्व मुसलमानों में पाए जाते हैं और उनके माननेवाले अपने अपने नेतृत्व की अपील की पाबंदी करते हैं. उदाहरण के तौर पर बरेलवी विचारधारा के मानने वाले इससे संबंधित संगठनों एवं नेतृत्व के अपील को मानते हैं तो शिया विचाराधार से जुड़े समूह एवं संगठन अपने नेताओं की अपील पर ध्यान देते हैं. यहां मुसलमानों के जात पात के फैक्टर को भी हरगिज नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. हालांकि ये बात उलेमा एवं मुस्लिम नेताओं की ओेर से बार बार कही जाती है कि इस्लाम के अनुयायियों में जात पात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, इसके बावजूद इस कटू सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि निजी जीवन से लेकर राजनीतिक जीवन तक विभिन्न मामलों में वह इससे प्रभावित होते हैं.
इस लिहाज से देखा जाए तो इस बार मुस्लिम उलेमा, संगठनों एवं अन्य नेतृत्व की अपीलों की कोई प्रभावी भूमिका हरगिज नहीं दिखाई दी. चुनावी नतीजों को देखने के बाद अंदाजा हुआ कि मुस्लिम समाज ने अपनी सूझबूझ एवं परिस्थिति को सामने रखते हुए वोटिंग की. उदाहरण के तौर पर बिहार में मुसलामनों की बड़ी संख्या ने कांग्रेस-राजद के लिए वोट दिया और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का वोट बसपा, सपा एवं कांग्रेस में बिखर गया. यही सबकुछ बनारस, इलाहाबाद एवं अमेठी में हुआ. इसके फलस्वरूप वहां आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस दोनों को वोट मिले. इसी प्रकार दिल्ली में मुसलमानों का वोट आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस में विभाजित हुआ. पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या 27 प्रतिशत है. वहां उनके वोट तृणमूल कांग्रेस, लेफ्ट फ्रंट, एयूडीएफ एवं वेल्फेयर पार्टी ऑफ इंडिया में बट गए. अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर उलेमा एवं मुस्लिम संगठनों का प्रभाव आम मुस्लिम जनता पर कम क्यों पड़ा? मुस्लिम संगठनों एवं उलेमा को आम मुसलमानों ने नजरअंदाज क्यों किया?
अगर हम इस पहलू पर नजर डालें तो अंदाजा होता है कि इसकी बुनियादी वजह यह थी कि इस बार किसी भी मुस्लिम संगठन या उलेमा की तरफ से खुल कर कोई राय नहीं दी गई. मुस्लिम संगठनों ने जो अपीलें की थी उसमें ये बात खुली हुई नहीं थी कि सेक्यूलर कहलाने वाली किस पार्टी को वोट दिया जाए. बस यह अपील की गई कि फासिवाद के रूझान वाली पार्टी को हराने के लिए किसी भी सेक्यूलर पार्टी को अपना वोट दें. प्रश्न यह भी उठता है कि किसी क्षेत्र से दो या उससे अधिक सेक्यूलर पार्टियों के उम्मीदवार खड़े हों तो उस समय मुस्लिम मतदाता क्या करें? किस को अपना वोट दें? इसपर मुस्लिम संगठनों एवं नेतृत्व ने कोई खुलासा नहीं किया. अतएव मुस्लिम समुदाय के विभिन्न तबकों को स्वयं निर्णय लेना पड़ा कि वह क्या करें और किसको वोट दें? कुछ उलेमा एवं संगठनों की ओर से विशिष्ट पार्टी के लिए अपीलें आईं मगर ये तमाम अपीलें अलग अलग प्लेटफॉर्म से अलग अलग पार्टियों के लिए थीं. उदाहरण के तौर पर जमीयतुल उलेमा हिंद (अरशद) की वकालत सपा एवं कांग्रेस दोनों के लिए थी जबकि जमीयत के दूसरे धड़े (महमूद) की इन दोनों ही पार्टियों से दूरी बनी हुई थी. इसी प्रकार बरेलवी विचाधारा के मौलाना तौकीर रजा खान जिनकी निकटता समाजवादी पार्टी के साथ थी मगर वह बाद में आम आदमी पार्टी, बसपा एवं सपा के बीच झूलते रहे जबकि मौलाना यूसुफ कछोछवी, कारी मुहमद मियां मजहरी एवं मौलाना सोहैब कासमी जैसे लोगों ने भाजपा के लिए अपीलें की. इसी प्रकार मुसलमानों के सबसे पुराने संगठन मरकजी जमीयत अहले हदीस हिंद के महासचिव मौलाना असगर अली इमाम मेहदी सल्फी मदनी ने बिहार में नीतीश कुमार के लिए एवं जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने कांग्रेस के लिए समर्थन की बात की और फतहपूरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम ने गैर बीजेपीकी बात कह कर मतदाताओं को कंफ्यूजन किया और किसी एक पार्टी के हक में बात नहीं कही. ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिश मुशावरत ने विभिन्न राज्यों के मुस्लिम मतदाताओं से भाजपा के विरुद्ध वोट देने की अपील करते हुए कहा कि दिल्ली की 7 सीटों पर वह सेक्यूलर पार्टियों अर्थात कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी के समर्थन में वह निर्णय लें जबकि इसी मुशावरत में सम्मिलित जमायते इस्लामी ने दिल्ली एवं बनारस में मात्र आम आदमी पार्टी को पसंद किया. गौरतलब है कि इसी संगठन ने रायबरेली में सोनिया गांधी एवं अमेठी में राहुल गांधी के समर्थन में अपील की. इस संबंध में आश्चर्यजनक बात तो यह हुई कि मुशावरत अध्यक्ष डॉ जफरुल इस्लाम खां जो कि वेल्फेयर पार्टी ऑफ इंडिया के उपाध्यक्ष भी हैं ने मुशावरत की तरफ से अपील करते हुए अपने मुख्य कार्यालय में आयोजित संवाददता सम्मेलन में कह दिया कि वह केरल में सभी सीटों पर इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को जिताएं अर्थात मल्लापुरम में मुस्लिम लीग अध्यक्ष ई अहमद को सफल बनाएं एवं वेल्फेयर पार्टी के उम्मीदवार प्रोफेसर इस्माइल को हराएं. इस प्रकार ये बात सिद्ध हो जाती है कि मुस्लिम संगठनों में से कुछ का रवैया न केवल खुला हुआ नहीं था बल्कि एक दूसरे से टकराने वाला भी था.
जमायते इस्लामी हिंद ने अपना 15 सूत्रीय घोषण पत्र जारी किया था. मगर इस घोषणा पत्र को किसी भी पार्टी की ओर से स्वीकार करने की बात सामने नहीं आई. जहां तक ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल की बात है यह सदैव टैक्टिकल वोटिंग की वकालत करती रही है. इसी प्रकार प्रसिद्ध मुस्लिम विचारक डॉ जावेद जमील एवं इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर के अध्यक्ष एवं कुरैशी बिरादरी के प्रसिद्ध नेता सिराजुद्दीन कुरैशी ने मुस्लिम संदर्भ में 11 सूत्रीय एजेंडा जारी किया एवं जकात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के डॉ सैयद जफर महमूद ने 20 सूत्रीय मांगों को विभिन्न सियासी पार्टियों को भेजा मगर किसी भी राजनीतिक पार्टियों की ओर से इन बिंदुओं पर कोई बातचीत नहीं हुई. मस्जिदों के इमामों के संगठन के अध्यक्ष उमैर इलियासी एवं नदवतुल उलेमा के साथ साथ यूनाइटेड मुस्लिम फ्रंट के सुप्रीमो मौलाना सलमान हसनी नदवी की राय भी साफ नहीं थी. उनकी ये राय अप्रभावी रही. एक ओर मुस्लिम संगठनों की उलझी हुई राय एवं दूसरी ओर उलेमा के अलग अलग प्लेटफॉर्म अलग अलग पार्टियों के लिए की गई अपीलों में मुसलमानों को बेजार कर दिया. और फिर उन्होंने अपने क्षेत्र के उसी उम्मीदवार को वोट दिया जिससे उनकी आशाएं जुड़ी हुई थीं चाहे वह उम्मीदवार किसी भी पार्टी से संबंध रखता हो. यही कारण है कि कुछ मुस्लिम वोट भाजपा को भी गया. शिया एवं सून्नी के नाम पर लखनऊ एवं अन्य शहरों में मुसलमानों का वोट बिखर कर भाजपा को मिला. गौरतलब है कि 2009 में भी भाजपा को 3.7 प्रतिशत मुस्लिम मत मिला था और इससे पूर्व भी कमोबेश मुस्लिम मत उन्हें मिलता रहा था और इस बार के चुनाव में सीएनएन, आईबीएन एवं सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार 9 प्रतिशत मुसलमानों ने बीजेपी को वोट दिया है.
अगर इस लिहाज से देखें तो कहा जा सकता है कि मुस्लिम समाज ने इस बार उलेमा एवं मुस्लिम संगठनों की अपीलों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया और यही कारण है कि वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी होने के बावजूद इनका वोट क्षेत्रीय स्तर पर विवादित हो गया और इसका फल यह निकला अतीत की तरह इस बार भी मुस्लिम उम्मीदवार अपनी जनसंख्या के अनुपात में संसद में नहीं पहुंच पाए. देश में मुस्लिम आवादी के अनुपात में संसद में 73 मुस्लिम सदस्य होने चाहिए परंतु ये उम्मीद 1952 से लेकर अब तक पूरी नहीं हो पाई और इसमें निरंतर गिरावट ही हो रही है.
इस संदर्भ में प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय इक्बाल अंसारी ने अपनी पुस्तक भातीय मुसलमानों की राजनीतिक नुमाइंदगी में 1952 से लेकर 2004 तक हुए चुनावों का विश्लेषण किया है. उनके अनुसार 1952 में निर्वाचित लोकसभा सदस्यों ने मात्र 21 मुस्लिम थे जबकि अपनी जनसंख्या के अनुसार उस समय उनकी यह संख्या 49 होनी चाहिए थी, जिसका साफ मतलब यह हुआ कि प्रथम लोकसभा में मुसलमानों की साझीदारी उनकी जनसंख्या के अनुपात की बुनियाद पर आधे से भी कम थी. 1957 में हुए आम चुनाव में मुसलमानों की संख्या 24, 1962 में 23, 1967 में 29, 1972 में 30, 1977 में 34 एवं 1980 में बढ़ कर 49 हो गई. 1980 में हुए लोकसभा के मध्यवर्ती चुनाव में सबसे अधिक संख्या 49 रही जोकि अपने आप में एक रिकॉर्ड है. इसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में मुस्लिम नुमाइंदगी में निरंतर कमी हुई है. 1984 में जहां यह संख्या 46 थीं, वहीं 1989 में यह संख्या घट कर 33 एवं 1991 में मात्र 28 रह गई है. 1996 में हुए आम चुनाव में 543 सदस्यों वाली लोकसभा में मुसलमानों की संख्या 28 थी जबकि उस समय उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार ये संख्या 66 होनी चाहिए थी. 1998 में भी प्रायः यही संख्या बरकरार रही. परंतु 1999 में हुए मध्यवर्ती चुनाव में थोड़ी सी वृद्धि हुई एवं मुस्लिम सदस्यों की संख्या लोकसभा में 32 हुई. 2004 में हुए चुनावों में 36 मुस्लिम सदस्य निर्वाचित हुए जबकि 2009 में संख्या कम होकर 29 हो गई है.
परंतु एक बात यह भी कही जाती है कि अब तक मुस्लिम नुमाइंदों के संसद में कम पहुंचने का एक कारण यह था कि तमाम राजनीतिक पार्टियों ने उन्हें टिकट देने में कंजूसी एवं भेदभाव किया, वहीं एक फैक्टर यह भी था कि मुसलमान मतदान में दिलचस्पी कम लेते थे परंतु इस बार मुसलमानों ने जिस तरह से दिलचस्पी दिखाई है उससे ये प्रतीत होता है कि उनका मत विभाजित नहीं होता तो 2009 की तुलना में ज्यादा सीटें ला सकते थे क्योंकि 147 ऐसे क्षेत्र है जहां मुसलमानों का वोट निर्णायक है और लगभग 40-45 ऐसी सीटें हैं जहां मुसलमानों की आवादी 30-40 प्रतिशत है. अगर इन क्षेत्रों में मुस्लिम वोट विभाजित नहीं होता तो वहां से मुस्लिम उम्मीदवार आसानी से सफल हो सकते थे परंतु ऐसा नहीं हुआ.
मुस्लिम मतदाता पर उलेमा एवं संगठनों की अपीलें बेअसर
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