मुस्लिम सरकारी अधिकारियों की कमी कहें या सरकारों की मंशा, या फिर सरकारों की अदल-बदल का असर, प्रदेश के सभी मुस्लिम इदारे इन दिनों अधिकारी विहीन हैं। यहां की व्यवस्थाएं उधार के (प्रभारी) अफसरों के हवाले हैं। नियमों के दायरे में बंधे इन अफसरों की मजबूरी का आलम यह है कि अधिकांश मुस्लिम इदारों के कर्मचारी पिछले कई महीनों से वेतन के लिए भी तरसते नजर आ रहे हैं। अफसरों की गैरमौजूदगी के चलते यहां से होने वाले जरूरी कामों पर भी तालाबंदी के हालात बने हुए हैं।

प्रदेश हज कमेटी सीइओ दाऊद अहमद खान को पिछले दिनों सेवानिवृत्त कर दिया गया है। जिसके चलते अकीदत से बंधे इस इदारे के कामकाज प्रभावित होने के हालात बन सकते हैं। आनन-फानन में यहां किसी मुस्लिम अधिकारी की नियुक्ति होने के आसार भी कम ही हैं, वजह यह है कि इससे पहले भी कमोबेश सभी मुस्लिम इदारों में अफसर मौजूद नहीं हैं। इसके चलते यहां के कामकाज प्रभारी अधिकारियों के जिम्मे हैं।

सभी संस्थाओं में खालीपन

जानकारी के मुताबिक फिलहाल राज्य अल्पसंख्यक आयोग, मप्र वक्फ बोर्ड, मसाजिद कमेटी आदि में व्यवस्थाएं प्रभारी अधिकारियों के जिम्मे हैं। जहां आयोग का जिम्मा विभागीय कमिश्नर ने अपने हाथों में ले रखा है, वहीं मप्र वक्फ बोर्ड में पिछले दिनों बमुश्किल एसडीएम जमील खान को यहां की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके अलावा मसाजिद कमेटी का प्रभार यहां के अधीक्षक यासिर अराफात को दिया गया है। इधर मुस्लिम संस्थाओं में शामिल मप्र मदरसा बोर्ड और मप्र उर्दू अकादमी की जिम्मेदारियां भी प्रभारी अफसरों के हाथों मेंं हैं।

नियमों से बंधे प्रभारी

जानकारों का कहना है कि प्रभारी अधिकारियों के हवाले जिम्मे किए जाने वाले विभागों में तात्कालिक तौर पर अधिकारी की मौजूदगी तो हो गई है, लेकिन इनके हाथों में अधिकार न होने से यहां से होने वाले जरूरी कामों को कर पाना मुश्किल है। मूलभूत नियम 49 और सामान्य प्रशासन विभाग के ज्ञाप 1962 को रेखांकित किया जाए तो ऐसे सभी प्रभारी अधिकारियों को नियम, अधिनियमध् परिनियम की शक्तियों को इस्तेमाल करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। जिसके चलते वे महज दफ्तर की व्यवस्था, कर्मचारियों के वेतन आहरण आदि से संबंधित काम ही कर सकते हैं, जबकि किसी नीतिगत निर्णय को लेने के लिए वे अधिकृत नहीं हैं।

प्रभारियों के जिम्मे काम का बोझ

किसी अन्य विभाग से प्रभार के तौर पर आयातित किए गए अफसरों पर काम का दोहरा बोझ होता है। ऐसे में उन्हें प्राथमिकता से अपने मूल विभाग का काम निपटाना होता है और वे अतिरिक्त प्रभार वाले विभाग की तरफ कम ही ध्यान दे पाते हैं। राज्य अल्पसंख्यक आयोग, मप्र वक्फ बोर्ड, मप्र मदरसा बोर्ड, मप्र उर्दू अकादमी में नियुक्त किए गए प्रभारी अधिकारियों के साथ कमोबेश यही हालात हैं कि वे पहले अपने मूल विभाग के काम को तवज्जो देते हैं, जबकि बचे हुए समय में वे इन विभागों की जरूरत को पूरा करने की कोशिश करते हैं। नतीजा यह है कि प्रभार वाले विभाग के काम अधूरे ही रह जाते हैं।

पड़े वेतन के लाले

जानकारी के मुताबिक मप्र वक्फ बोर्ड, हज कमेटी, मप्र मदरसा बोर्ड और मसाजिद कमेटी में कर्मचारियों को 4 से 7 महीने तक का वेतन नहीं मिल पाया है। बताया जाता है कि वक्फ बोर्ड और मसाजिद कमेटी के वेतन का मामला अब भी अटका हुआ है। जबकि मप्र मदरसा बोर्ड से अनुदानित मदरसों के संचालकों को पिछले चार साल से अनुदान राशि हासिल नहीं हुई है। जिसके नतीजे में राजधानी सहित प्रदेश के आधे मदरसा बंद होने की कगार पर पहुंच गए हैं। वेतन न मिल पाने से कर्मचारियों के आर्थिक हालात भी बदहाल हो गए हैं।

शहर काजी को नहीं मिला 7 माह से वेतन

सूत्रों का कहना है कि मसाजिद कमेटी दारुल कजा से संबद्ध काजी-ए-शहर सैयद मुश्ताक अली नदवी और यहां के बाकी उलेमाओं को करीब 7 माह से वेतन नहीं मिल पाया है। मर्जर एक्ट के तहत दी जाने वाली मुआवजा राशि का आवंटन पिछले कई महीनों से रुका होने के चलते भोपाल रियासत की मस्जिदों के ईमाम-मुअज्जिन की तंख्वाह भी लंबे समय से रुकी हुई थी, लेकिन पिछले माह इसका आंशिक भुगतान अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री रामखेलावन पटेल के हस्तक्षेप के बाद हो गया था, लेकिन इस दौरान काजी, मुफ्ती और अन्य उलेमाओं के वेतन के रास्ते आसान नहीं हो पाए हैं।

ओहदेदारों की गैरमौजूदगी से भी बने हालात

पिछली भाजपा सरकार, उसके बाद कांग्रेस सरकार की छोटी पारी और फिर भाजपा सरकार की नई आमद के बीच प्रदेश के अधिकांश मुस्लिम इदारे खालीपन का शिकार हैं। राज्य अल्पसंख्यक आयोग, मप्र वक्फ बोर्ड, प्रदेश हज कमेटी, मप्र मदरसा बोर्ड, मसाजिद कमेटी और मप्र उर्दू अकादमी में ओहदेदारों की नियुक्तियां नहीं हो पाई हैं। कुछ समय पहले निगम-मंडलों में नियुक्तियों की सुगबुगाहट के साथ इन संस्थाओं को भी ओहदेदार मिलने की उम्मीदें बंधी थीं, लेकिन निकाय चुनाव के सामने होने के चलते सरकार ने फिलहाल इन नियुक्तियों से ध्यान हटा लिया है। ऐसे हालात में मुस्लिम संस्थाओं की नियुक्तियों के रास्ते भी फिलहाल रुके हुए हैं।

खान अशु

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