जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद ने देवबंद में सम्मेलन आयोजित करके एक बार फिर अपनी ताक़त का अहसास कराने की कोशिश की. लोग भी ब़डी संख्या में जुटे, लेकिन उनमें वे भी शामिल थे, जिन्हें समाज की बुराइयों और अपने कथित अगुवाकारों की चालाकी से पर्दा उठाने में तनिक गुरेज़ नहीं था. मतलब यह कि वे दिन हवा हुए, जब मुसलमान किसी के इशारे पर नाचा करते थे. आज वे अपना बुरा-भला अच्छी तरह समझते हैं और दूसरों को समझा भी सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले का देवबंद क़स्बा. पिछले दिनों जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद के 30वें वार्षिक सम्मेलन में यहां लाखों लोग जुटे थे. स़िर्फ और स़िर्फ पुरुष. जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद देवबंदी फिरके के मुस्लिम उलेमाओं का कट्टरपंथी धड़ा है. सूत्रों का दावा है कि इस सम्मेलन में पूरे देश के कोने-कोने से पांच लाख से भी ज़्यादा लोग एकत्र हुए थे. सम्मेलन वाले स्थान पर जाने के संकरे और धूल भरे रास्ते पर भीड़ इतनी थी कि लोग बमुश्किल ही आगे बढ़ पा रहे थे. मीडिया के ज़्यादातर लोगों ने भीड़ से बचने के लिए सभा स्थल से थोड़ी दूरी पर डेरा जमा लिया था. लाउड स्पीकर की वजह से मीलों दूर बैठकर भी सभा की गतिविधियों से वाक़ि़फ हुआ जा सकता था. दारूल उलूम के बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया का संभवतः सबसे बड़ा मदरसा है और देवबंदी आंदोलन का मुख्य केंद्र बिंदु भी.
सम्मेलन की शुरुआत आज़ादी की लड़ाई में जमायत के उलेमाओं के योगदान की प्रशंसा के साथ हुई. कहा गया कि हम लोगों ने पाकिस्तान के निर्माण का कड़ा विरोध किया. हमारे लोगों ने देश के लिए क़ुर्बानियां दीं. हम सभी तरह के आतंकवाद की निंदा करते हैं. हम वतनपरस्त हैं और भारत से मुहब्बत करते हैं, भले ही आप मानें या न मानें. मौलाना बोले ही जा रहे थे. मेरे आसपास जो भी लोग बैठे थे, उनकी वेशभूषा भीड़ में शामिल लोगों जैसी ही थी. झक स़फेद कुर्ता-पाजामा, चेहरे पर उलझी हुई दाढ़ी और सिर पर गोल जालीदार टोपी. लाउड स्पीकर पर वह मौलवियों की बातों को सुनते और सहमति में अपना सिर हिलाते. शायर मौलवी की तरह ही वह अपनी वतनपरस्ती, पाकिस्तान विरोधी मत और आतंकवाद विरोधी रुझान साबित करने के बोझ तले दबे हुए थे. ऐसे व़क्त में जबकि पूरा विश्व इस्लामोफोबिया से ग्रस्त है, वह अपने मजहबी साथियों के साथ एक अवांछनीय स्थिति साझा करने को मजबूर थे.
सम्मेलन की भाषणबाज़ी से भी ज़्यादा मुझे जो बातें दिलचस्प लगीं, वे उसमें शामिल लोगों की प्रतिक्रियाएं थीं. इनमें दारूल उलूम के छात्र और पूर्व छात्र भी थे. उनमें से भी सबसे ज़्यादा दिलचस्प मुझे सहारनपुर के पास के किसी गांव के खेतिहर युवक अकरम की दलील लगी. बकौल अकरम, सब कुछ जमायत के स्वनाम धन्य प्रमुख मौलाना महमूद मदनी की राजनीतिक शिगूफेबाज़ी है. सारा मजमा बस ताक़त का मुजाहिरा है. वह चाहते हैं कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों पर उनके प्रभाव से अभिभूत हो जाए और कांग्रेसी हुक्मरानों से उनकी गहरी छन जाए.
अकरम का इशारा जमायत के भीतर असंदिग्ध आचरण के बारे में था, ये स्वार्थी मुल्ला कभी एकमत नहीं होंगे. बावजूद इसके कि वे मुसलमानों की आपसी एकता को ध्यान में रख रहे हैं. आपसी खींचतान के अलावा उन्हें किसी भी बात की फिक़्र नहीं है. अकरम अपनी बात का पूरा विश्लेषण करता है, जमायत कई प्रतिद्वंद्वी धड़ों में बंट गई. एक का नेतृत्व हाल ही में मरहूम मौलाना फुजैल कर रहे थे. जबकि दो धड़ों की कमान मौलाना अरसद मदनी और उनके भांजे मौलाना महमूद मदनी संभाले हुए हैं. मौलाना अरसद मदनी ने हाल ही में एंटी टेररिज्म कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था और मीडिया ने आयोजन की ख़बरों को पूरी तवज्जो दी.
अकरम अपनी बातें कहना जारी रखता है, मौलाना महमूद मदनी जो अरसद के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरे हैं, ने इस जलसे का बड़े पैमाने पर आयोजन किया है. अपना दबदबा दिखाने का यह घटिया खेल है. अकरम पूरे दावे के साथ कहते हैं कि महमूद के नेतृत्व वाली जमायत ने इसके लिए भारी पैसे ख़र्च किए हैं. लोगों को लाने के लिए रियायती भाड़े पर ट्रेन, देवबंद में ठहरने की व्यवस्था और मुफ्त की चिकन बिरयानी का इंतज़ाम किया गया. अगर कोई असली देवबंदी है तो वह कभी इन चीज़ों को स्वीकार नहीं करेगा. वह रोषपूर्ण लहज़े में कहते हैं, ये मुल्ला किस तरह मुसलमानों को एकजुट करेंगे और कैसे हमारी आवाज़ बुलंद करेंगे?
दारूल उलूम के क़रीब स्थित किताब की दुकान के मालिक फैसल कहते हैं, इस पूरे मजमे में आप एक भी आधुनिक शिक्षा प्राप्त मुसलमान नहीं तलाश पाएंगे. मौलवी उन्हें दूर ही रखना पसंद करते हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि ये उन्हें धार्मिक नहीं मानते, बल्कि इसलिए कि इन्हें यह डर सताता है कि इनकी सत्ता को वे कहीं चुनौती न दे दें. फैसल अपनी दुकान के आसपास मंडरा रही भीड़ की ओर इशारा करते हैं. उनका हुलिया, उनकी वेशभूषा और उनके तौर-तरीक़े सभी इस बात का खुलासा करते हैं कि वे या तो ग़रीब किसान हैं या फिर मस्जिदों और मदरसों के मुल्ले-मौलवी.
फैसल बेबाक टिप्पणी करते हैं,  मुल्लों-मौलवियों को आधुनिक दुनिया की जरा भी समझ नहीं है. ऐसे में वे हमें नेतृत्व कैसे प्रदान करेंगे? लेकिन मुस्लिम मध्यम वर्ग अभी भी या तो सामुदायिक मसलों के प्रति उदासीन है या फिर मुल्लों-मौलवियों के ख़िला़फ मुंह खोलने से वह डरता है. इस तरह समुदाय पर उनकी पकड़ को अभी भी कहीं से कोई चुनौती नहीं है. यही वजह है कि जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद आसानी से लोगों को इस जलसे में शामिल होने के लिए तैयार कर सकी.
दारूल उलूम का छात्र बिलाल मदरसा रिफॉर्म्स का विरोध करने के लिए जमायत के नेताओं की आलोचना करता है. कॉन्फ्रेंस के आख़िर में पारित उस प्रस्ताव से यह बात ज़ाहिर भी होती है, जिसमें जमायत ने सरकार द्वारा नेशनल मदरसा बोर्ड के गठन के सुझाव की आलोचना की थी. राजनीति से प्रभावित ये मौलवी अपने बच्चों को आधुनिक स्कूलों में पढ़ाते हैं, उन्हें शिक्षा के लिए विदेश भेजते हैं. लेकिन, उन्हें इस बात की जरा भी फिक़्र नहीं है कि मदरसे के बच्चे, जिनमें ज़्यादातर ग़रीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, आधुनिक दुनिया के बारे में कुछ जानें. ये हमें मूढ़ बनाकर रखना चाहते हैं, इसलिए हमारे नाम पर राजनीति का खेल खेलते हैं. फैसल मदरसे की दीवार से सटे खुले नाले में बह रहे मैले पानी में तैर रहे प्लास्टिक के बैग और ताज़े मल की ओर इशारा करते हैं. आगे मस्जिद की दीवार से सटे बग़ैर दरवाज़े वाले शौचालय से निकल कर मल गलियों में बह रहा था. वह रसूल का हवाला देते हुए एक कहावत कहते हैं कि सा़फ-स़फाई तो आधी आस्था है और यहां आप देख रहे हैं कि हमारी आधी आस्था गटर में है.
बिलाल मुझे मदरसे के छात्रावास की ओर लेकर जाते हैं. अंधेरे, गंदे और सीलन भरे कमरे और प्रत्येक कमरे में आधा दर्ज़न से ज़्यादा छात्र. कमरे की सतह पर गंदगी का साम्राज्य नज़र आता है. दारूल उलूम वक्फ के पास तो स्थिति और भी बदतर नज़र आती है. इसकी स्थापना देवबंदी मौलवियों के प्रतिद्वंद्वी समूह ने की है. 1980 में देवबंद मदरसा के उलेमा मौलाना कारी तैयब को बेदख़ल कर मदनी परिवार एक तरह से इस संस्थान पर हावी हो गया. यहां छात्रावास के कमरों के बाहर बिखरे पड़े सब्ज़ियों के छिलकों, बची-खुची दाल और चावल पर मक्खियां भिनभिना रही थीं. लेकिन यहां के मुल्ले-मौलवी, जो ख़ुद को पैगंबर का वारिस बताते नहीं थकते, उन्हें इन बातों की जरा भी फिक़्र नहीं है. उन्हें फिक़्र है तो बस सत्ता और शोहरत की. बिलाल अपना रोष प्रकट करते हैं.
अगली सुबह हर अख़बार के पन्ने देवबंद के सम्मेलन की ख़बरों से रंगे दिखाई देते हैं. सम्मेलन में जमायत द्वारा पारित कई प्रस्तावों में से एक यानी वंदे मातरम गाने की अनिवार्यता के विरोध में प्रस्ताव को सभी अख़बारों में पूरी तवज्जो मिली होती है. रिजवान दारूल उलूम से स्नातक हैं और फिलहाल आगरा के देवबंदी मदरसा में अध्यापन कर रहे हैं. उनकी राय भी सम्मेलन में भाग लेने वाले आम प्रतिभागियों जैसी है, हम वतनपरस्त हैं, लेकिन यह मांग जायज़ नहीं है कि सभी वंदे मातरम का गायन करें. वतन के प्रति हमारी निष्ठा की परीक्षा का मूल्यांकन इस गाने के प्रति हमारे नज़रिए से करना पूरी तरह हास्यास्पद है. यह गीत मूल रूप से एक पुस्तक में निहित है, जो खुले तौर पर मुसलमानों के प्रति ऩफरत को हवा दे रहा है. आज़ादी के पूर्व के दिनों में भी इसने बड़ी हलचल पैदा की थी. रिजवान इसकी व्याख्या करते हैं, यह स़िर्फ मुसलमानों को ही अमान्य नहीं है, बल्कि दूसरे एकेश्वरवादियों को भी यह स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इस गाने में मातृभूमि की देवी के रूप में वंदना की गई है. लेकिन साथ ही वह यह कहने से भी नहीं चूकते कि वर्षों से ठंडे बस्ते में पड़े इस मुद्दे को उठाने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी, फिर भी जमायत ने बिना वजह इसे हवा दी. यह मौलाना महमूद और उनके साथियों की विवाद को सुलगा कर उसकी रोशनी में ख़बरों में बने रहने और ख़ुद को मुसलमानों का रहनुमा पेश करने की संभवतः सोची-समझी रणनीति है.
रिजवान मीडिया द्वारा इस सम्मेलन को कवरेज देने के तरीक़े पर भी उतनी ही नाराज़गी प्रकट करते हैं. वह कहते हैं कि मीडिया ने वंदे मातरम मसले को ख़ूब उछाला और सम्मेलन में पारित दूसरे प्रस्तावों जैसे आतंकवाद का जमायत द्वारा विरोध आदि की पूरी तरह से अनदेखी कर दी. सच्चर कमेटी की अनुशंसाओं को लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित किए गए, संप्रदायवाद के ख़िला़फ लड़ाई लड़ने का ऐलान किया गया और मुसलमानों की सुरक्षा का मसला उठाया गया, लेकिन मीडिया ने इन्हें महत्व ही नहीं दिया.
जमायत द्वारा प्रायोजित इस नाटक के पीछे हमारे स्वनाम धन्य नेताओं की तरह ही मीडिया भी मुसलमानों के कल्याण के प्रति दिलचस्पी नहीं रखती है. जिस विवाद को तूल पकड़ने से रोका जा सकता था, जमायत और मीडिया दोनों उसे हवा देने में लगे रहे. बदक़िस्मत तो आम मुसलमान हैं, जिन्हें लगातार इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है और जिनकी आवाज़ अनसुनी कर दी जाती है.

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