102014 के आम चुनाव में जीत हासिल करके 16वीं लोकसभा में पहुंचने वाले सभी उम्मीदवारों के नाम का ऐलान हो चुका है. पिछली बार जहां जीतने वाले उम्मीदवारों की संख्या 30 थी, इस बार वह घटकर 23 पर पहुंच चुकी है. लोकसभा की कुल 543 सीटों की लड़ाई में 52 सीटें ऐसी थीं, जहां पर मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे, 46 तीसरे और 53 पर चौथे नंबर पर रहे. इसलिए अगर कुल मिलाकर देखा जाए, तो 175 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रदर्शन बहुत बेहतर था. लेकिन, यह भी एक सच्चाई है कि इस बार का चुनाव मुसलमानों ने पूरी तरह से मोदी के खिलाफ लड़ा, जिसकी वजह से उनका वोट हर जगह बिखर गया.
लोकसभा में मुसलमानों की घटते प्रतिनिधित्व के लिए जहां एक तरफ कांग्रेस पार्टी जिम्मेदार है, वहीं इस बार आम आदमी पार्टी को कसूरवार ठहराया जाए तो ग़लत नहीं होगा. पहले कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल या उन्हें बेवकूफ बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा. उसी तरह इस बार के आम चुनाव में मुसलमानों को यह ग़लतफहमी पैदा हो गई कि राष्ट्रीय स्तर पर सिर्फ आम आदमी पार्टी ही है, जो उन्हें भाजपा या मोदी से निजात दिला सकती है.
मुसलमानों के अंदर इस भ्रम को पैदा करने के लिए अगर किसी को सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना जाएगा, तो वह खुद मुसलमानों के तथाकथित धार्मिक रहनुमा या फिर मुसलमानों के बीच काम करने वाले मुस्लिम संगठन हैं, जिन्होंने अपनी तरफ़ से अपील जारी करके अलग-अलग लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को वोट डालने को कहा. नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों का वोट पूरे देश में बुरी तरह से बिखर गया. दूसरी तरफ भाजपा को मुस्लिम वोटों की ज्यादा चिंता करने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ी, क्योंकि बुनियादी तौर पर मुस्लिम वोटों को बांटने की जो रणनीति भाजपा की रही है जाने अनजाने में सारे मुस्लिम संगठन इसी रणनीति पर काम कर रहे थे. इसलिए भाजपा उन तमाम क्षेत्रों में जहां मुस्लिम वोट निर्णायक थी, मुस्लिम संगठनों की बेवकूफी पर और अपने उम्मीदवारों की सुनिश्‍चित जीत पर मन ही मन मुस्कुराती रही और जब नतीजों का ऐलान हुआ तो भाजपा ने जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ और इसका फायदा भाजपा को बड़ी भारी बहुमत के रूप में मिला.
मुसलमानों को कम से कम यह बात समझ लेनी चाहिए कि लोकतंत्र में मजहबी गुटबंदी का कोई मतलब नहीं होता है. यही इस चुनाव की अच्छी बात रही है कि धर्मनिरपेक्षता की जो परिभाषा कांग्रेस पेश करती रही और उसने जिस तरह उर्दू भाषा को सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों से जोड़ दिया था, उसी तरह धर्मनिरपेक्षता को मुसलमानों से जबरदस्ती जोड़ने की कोशिश की, जो पूरी तरह से नाकाम हो गई. आइए ये देखते हैं कि देश के अलग-अलग राज्यों में मुसलमानों के वोटों का बंटवारा किस तरह से हुआ.
मुस्लिम वोटों का विभाजन ज्यादातर उत्तरप्रदेश और बिहार में हुआ. पश्‍चिम बंगाल में ममता बनर्जी मुसलमानों को अपने साथ जोड़े रखने में कामयाब रहीं. यही काम असम में बदरुद्दीन अजमल ने भी किया, जिसका फायदा इन दोनों राज्यों में क्रमशः तृणमूल कांग्रेस और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक फ्रंट को हुआ. बिहार की बात करें, तो वहां पर मुसलमानों ने आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन को अपना वोट दिया. लेकिन इसके बावजूद मुस्लिम वोट बिहार में बिखराव से नहीं बच सके. मिसाल के तौर पर मधुबनी सीट पर राष्ट्रीय जनता दल और जद-यू दोनों ही पार्टियों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा जिसकी वजह से मुस्लिम वोट बुरी तरह से बंट गए, जिसकी वजह से भाजपा के उम्मीदवार हुकुमदेव नारायण यादव को जीत मिल गई. लक्षद्वीप की एकमात्र लोकसभा सीट पर कुल छह उम्मीदवार खड़े थे, जिनमें पांच मुसलमान थे. आश्‍चर्य की बात यह है कि मुसलमानों का वोट बांटने के लिए भाजपा ने जहां पहली बार यहां से मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा किया था. वहीं, सीपीआई और सीपीएम ने मुुसलमान उम्मीदवार उतारे थे. जबकि समाजवादी पार्टी ने गैर-मुस्लमि उम्मीदवार को टिकट दिया था. बुनियादी तौर पर मुकाबला कांग्रेस और एनसीपी के बीच था, जिसमें एनसीपी के उम्मीदवार मो फैजल विजयी हुए.
इसी तरह तमिलनाडु के वेल्लोर सीट पर नजर डालें, तो यहां अन्नाद्रमुक के उम्मीदवार ने भाजपा के उम्मीदवार को हराया, जबकि तीसरे स्थान पर इंडियन मुस्लिम लीग उम्मीदवार अब्दुर रहमान थे. इस सीट पर कुल तीन मुस्लिम उम्मीदवार थे, जिनके प्राप्त वोटों को जोड़ दिया जाए, तो विजयी उम्मीदवार से ज्यादा हो जाता है.
उत्तरप्रदेश की बात करें, तो यहां मुसलमान वोटों का सबसे अधिक बिखराव हुआ, जिसका नतीजा यह हुआ कि इस राज्य से एक भी मुस्लिम उम्मीदवार जीत दर्ज करने में सफल नहीं हो पाया. पिछली लोकसभा में कुल पांच उम्मीदवार इस राज्य से लोकसभा पहुंचे थे. त्रासदी यह कि कांग्रेस के कद्दावर मुस्लिम नेता और केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद फरुखाबाद से अपनी सीट बचाने में नाकाम ही नहीं रहे, बल्कि चौैथे नंबर पर पहुंच गए. अलीगढ़ में भी मुस्लिम वोट एसपी, बसपा, कांग्रेस और आप के बीच बंट गए. इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा के उम्मीदवार बड़ी आसानी से जीत गए. अमरोहा सीट का भी हाल यही रहा, जहां सपा और बसपा के बीच वोटों के बंटने की वजह से भाजपा के उम्मीदवार की जीत हो गई.
डुमरियागंज की सीट पर बसपा के उम्मीदवार मो मुकीम, पीस पार्टी के डॉ अयूब, आप के बदरेआलम और सपा के माता प्रसाद पांडेय के बीच बंट गए, जिसका फायदा कांग्रेस छोड़कर भाजपा की टिकट से लड़ रहे जगदंबिका पाल को हुआ. वे लगभग एक लाख वोटों से जीतने में सफल हुए.
मेरठ, पश्‍चिमी उत्तरप्रदेश का वह इलाका है, जो सांप्रदायिक तनाव की वजह से हमेशा सुर्खियों में रहता है. यहां सांप्रदायिक हिंसा का एक इतिहास रहा है. पिछले दिनों मेरठ के पास ही जिले मुजफ्फरनगर और शामली में सांप्रदायिक दंगे हुए थे, जिसमें मुसलमानों का काफी नुकसान हुआ था. इन इलाक़ों में दंगों का फायदा चुनावों में पूरी तरह से भाजपा को मिला. इस इला़के के मुसलमान वोटर इतने डरे हुए थे कि उन्होंने हर क्षेत्र में भाजपा के उम्मीदवार को हराने के लिए वोट डाला. लेकिन उनका वोट बसपा, सपा और कांग्रेस में बंट गया, जिसकी वजह से भाजपा की जीत तय हो गई.
उत्तरप्रदेश में रामपुर लोकसभा क्षेत्र देश के उन गिनेचुने सीटों में से है, जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अधिक है. इसके बावजूद भाजपा के उम्मीदवार डॉ नेपाल सिंह जीतने में कामयाब रहे. उन्होंने सपा के उम्मीदवार नसीर अहमद खान को 23,435 वोटों से हराया. इस क्षेत्र से दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर रहने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों के वोटों को जोड़ा जाए, तो कुल 6 लाख से अधिक हो जाता है. इसी तरह सहारनपुर, संबल में भी मुस्लिम नोटों में विभाजन की वजह से भाजपा के उम्मीदवार को जीत मिली.
इससे यह पता चलता है कि मुसलमानों को भाजपा और मोदी के ख़िलाफ़ खड़ा करके कांग्रेस पार्टी ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी. साथ ही साथ सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाया. दूसरे तरफ कांग्रेस समेत सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू प्रसाद यादव, बसपा की मायावती, आप के अरविंद केजरीवाल का सेकुलरिज्म के नाम पर मुसलमानों को बरगलाना मुसलमानों के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदेह साबित हुआ. मुसलमान खुद को सेकुलर कहने वाली पार्टियों के जाल से जितनी जल्दी बाहर निकल आए, उनके लिए उतना ही अच्छा होगा, नहीं तो सेकुलरिज्म के नाम पर जिस तरह उन्हें 60 से अधिक वर्षों से बेवकूफ बनाया जाता रहा है. यह सिलसिला उसी तरह चलता रहेगा. इन सबके बीच यह सवाल बहस का मुद्दा बना हुआ है कि क्या मुसलमानों ने इस बार भारतीय जनता पार्टी को भी वोट दिया है. राष्ट्रीय स्तर पर अगर मुसलमानों के वोटिंग ढांचे की बात की जाए, तो शिया मुसलमानों का एक बड़ा तबका काफी पहले से भाजपा को अपना वोट देता रहा है. लेकिन, क्या इस बार सुन्नी मुूसलमानों ने भी भाजपा को वोट दिया है. इस सवाल के जवाब में अगर हम उन लोकसभा क्षेत्रों का जायजा लें, जहां से भाजपा ने अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं, तो जवाब हां में जाता है. मिसाल के तौर पर इस बार लक्षद्वीप में भाजपा ने पहली बार अपना मुस्लिम उम्मीदवार उतारा. कुल डाले गए वोटों 46, 239 वोटों में से भाजपा के उम्मीदवार को सिर्फ 187 वोट मिले. उसी तरह भाजपा ने कश्मीर के श्रीनगर से फैय्याज़ अहमद बट्ट को टिकट दिया था, जिन्हें कुल 3, 12, 212 वोटों में से 4, 464 वोट मिले. इस सीट पर वे चौथे नंबर पर थे. ऐसे में जाहिर है कि श्रीनगर सीट पर भाजपा को मुसलमान वोट जरूर मिले होंगे. भाजपा ने 98.2 फीसदी आबादी वाले अनंतनाग सीट पर अपना मुस्लिम उम्मीदवार उतारा था, जिन्हें 4,720 वोट मिले. वो भी यहां चौथे स्थान पर थे. बारामुला सीट पर भाजपा उम्मीदवार गुलाम मोहम्मद मीर को कुल चार लाक 65 हजार 992 में से 6, 558 वोट मिले. वे भी चौथे पायदान पर थे. बंगाल के घटाल लोकसभा सीट से भाजपा ने मोहम्मद आलम को अपना उम्मीदवार बनाया था, जिन्हें वहां कुल 13,66,709 वोटों में से 94,842 वोट मिले. वहां पर वे चौथे स्थान पर ते. उसी तरह बिहार के भागलपुर सीट से वर्तमान सांसद शाहनवाज हुसैन को उतारा था, लेकिन वो इस बार अपनी सीट बचाने में नाकाम रहे. राजद के उम्मीदवार शैलेश कुमार से सिर्फ 9,485 वोटों के मामूली अंतर से हार गए और दूसरे नंबर पर रहे. जाहिर है शाहनवाज हुसैन को मुसलमान वोट मिलते रहे हैं. इस बार उन्हें मुसलमानों को वोट बड़ी तादाद में मिले. इस बार भाजपा ने किसी भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया था और न ही किसी अन्य राज्य में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे.


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