सूबे के राजनीतिक हलकों में इन दिनों मुन्नी देवी की खूब चर्चा है. रंगदारी के लिए एक पथ निर्माण कंपनी के दो इंजीनियरों की दिनदहाड़े हत्या के संदर्भ में दरभंगा ज़िले की बहेड़ी प्रखंड पंचायत समिति (बीडीसी) की प्रमुख मुन्नी देवी और उनके पति संजय लालदेव को गिरफ्तार कर लिया गया है. यह हत्या दिसंबर के अंतिम हफ्ते में हुई थी और इस दंपति पर अपराधियों को पनाह देने का आरोप है.
सूबे की राजनीति अब इस सवाल पर सरगर्म है कि मुन्नी देवी किस राजनीतिक दल से जुड़ी हैं, जनता दल (यू) या जीतन राम मांझी के हिंदुस्तान अवामी मोर्चा (हम) से? इन दिनों दोनों दलों के नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें राजधानी के मीडियाकर्मियों को उपलब्ध कराई जा रही हैं, जो प्रसारित भी हो रही हैं. मुन्नी देवी की राजनीतिक निष्ठा को लेकर प्रतिदिन बयान जारी हो रहे हैं, पर कोई उन्हें अपना मानने के लिए तैयार नहीं है.
पुलिस को घटना के समय से ही मुन्नी देवी की तलाश थी. भारतीय जनता पार्टी के नेता सुशील कुमार मोदी ने मुन्नी देवी के जद (यू) से संबद्ध होने की चर्चा सबसे पहले की थी, जिसका जवाब जद (यू) प्रवक्ता संजय सिंह ने मुन्नी देवी द्वारा जीतन राम मांझी को सम्मानित करने की तस्वीर जारी करके दिया. फिर हम ने जद (यू) के संजय झा के साथ मुन्नी देवी की तस्वीर जारी करके मामले को आगे बढ़ा दिया. ताज़ा हाल यह है कि मुन्नी देवी और उनके पति ने खुद को जद (यू) का बताया है. यह बात दोनों से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने कही और मुन्नी-संजय ने खुद पत्रकारों को बताई.
इस प्रकरण को जरा तफ्सील से जानने की ज़रूरत है. अपराधी सरगना संतोष झा गिरोह के मुकेश पाठक एवं अन्य अपराधियों ने इन दिनों मुजफ्फरपुर और दरभंगा प्रमंडलों में रंगदारी का आतंक कायम कर रखा है. उसी संतोष झा की बहन है मुन्नी देवी. कहते हैं कि संतोष कभी नक्सली था और संजय उसके साथ था. उन्हीं दिनों मुन्नी से उसकी शादी हुई थी. बाद में संजय ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. हालांकि, संजय पर क़रीब चौदह-पंद्रह साल पुराना एक मामला है, पर मुन्नी के खिला़फ कहीं कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं है.
आत्मसमर्पण के बाद संजय सामान्य जीवन जीने लगा. राजनीति ने ज़ोर मारा, तो वह स्थानीय तौर पर सक्रिय हो गया. अपने सामाजिक समुदाय (देवहर) को अति पिछड़ी जाति का दर्जा दिलाने के नाम पर उसने राजनीति शुरू की. इसी दौरान उन दिनों नीतीश कुमार के खास के तौर पर विख्यात संजय झा से उसका संबंध बना. संजय झा दरभंगा से संसदीय चुनाव लड़ने की तैयारी में थे. उस संसदीय क्षेत्र में देवहर समुदाय के दो लाख से अधिक मतदाता होने का अनुमान है. इस वोट बैंक ने उन्हें आकर्षित किया. उन्होंने संजय लालदेव की मदद की और यह समुदाय बिहार की अति पिछड़ी जातियों की श्रेणी में आ गया.
इसी बदौलत मुन्नी देवी प्रखंड प्रमुख बन गईं और मुन्नी-संजय जद (यू) के हो गए. संजय की राजनीतिक आकांक्षा हिलोरें लेने लगी और वह विधानसभा की (खुद या मुन्नी की) उम्मीदवारी का तलबगार हो गया. उसकी उम्मीद सीधे संजय झा से जुड़ी थी, पर गत संसदीय चुनाव और विधानसभा चुनाव के बीच जद (यू) के आंतरिक हालात काफी बदल गए थे. नीतीश कुमार के लिए संजय झा की वक़त शायद नहीं रह गई थी.
सो, संजय-मुन्नी ने विकल्प की तलाश की और हम के साथ आ गए. दरभंगा के बेनीपुर या हायाघाट निर्वाचन क्षेत्रों पर उनकी नज़र थी. नीतीश कुमार और इस बहाने महा-गठबंधन के खिला़फ बिगुल फूंकने के सिलसिले में जीतन राम मांझी ज़िलों का दौरा कर रहे थे. उसी दौरान दो अप्रैल, 2015 को दरभंगा में आयोजित जनसभा में मुन्नी-संजय ने हम प्रमुख का अभिनंदन किया था. उसी अभिनंदन की तस्वीर इन दिनों खूब घूम रही है. जितनी तेजी से तस्वीरें घूम रही हैं, उसी शिद्दत से राजनीतिक दल (जदयू और हम) उसके अपने साथ होने से इंकार कर रहे हैं.
मुन्नी-संजय प्रकरण राजनीति में कई सवाल पैदा कर रहा है. यह बार-बार सा़फ होता रहा है कि जन-बल (ज़मीनी कार्यकर्ताओं) से कटते जा रहे राजनीतिक दलों की निर्भरता धन-बल और बाहु-बल पर निरंतर बढ़ती जा रही है. चुनाव या विशेष अभियानों के समय यह तथ्य बेहतर तरीके से सा़फ होता है. ऐसे दौर में ये सारे तत्व पहले कुछ नेताओं के नाम पर दलों के लिए अपने संसाधनों से भीड़ जुटाने का काम करते हैं.
फिर, सूत्र-नेता की राजनीतिक ज़रूरतें पूरी करते-करते प्रमुख या किसी पदधारी के आसपास पहुंच जाते हैं, उनके दरबार में दिखने लगते हैं और उसके बाद चुनाव में उम्मीदवारी के दावेदार हो जाते हैं. ऐसे राजनीतिक जीवों की भरमार सभी दलों में है. चुनाव के ठीक पहले दल-बदलुओं में इनकी संख्या तीन चौथाई से कम नहीं होती. ऐसे मौसमी राजनेताओं और इनके द्वारा उपकृत राजनीतिक आकाओं के कारण पिछले कई दशकों से सार्वजनिक जीवन में जन-सरोकारों और शुचिता का स्तर निम्न हो गया है. कुछ विशिष्ट मतवादी राजनीतिक दलों को छोड़कर कोई भी दल इससे अलग नहीं है.
वे भी नहीं, जो खुद को पार्टी विद अ डिफरेंस कहते हैं. यही कारण है कि राजनीति में ग़ैर ज़िम्मेदार ही नहीं, समाज विरोधी तत्वों के आने (या कहिए लाने) का सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है. मौजूदा राजनीति में हत्या एवं नरसंहार जैसे जघन्य अपराधों के जुर्म में सज़ायाफ्ता से लेकर मुन्नी-संजय जैसों की भरमार है. बिहार ने अपराधी सरगनाओं को स़िर्फ विधायक और विधान पार्षद नहीं, मंत्री तक बनते देखा है.
मुख्यमंत्री के सामने ही राज्य मंत्रि परिषद के सदस्यों को अपराधी सरगनाओं द्वारा अपमानित होते और अपराधी सरगनाओं के बचाव में राज्य सरकार को सार्वजनिक तौर पर सामने आते भी सूबे ने देखा है. बिहार की सत्ता राजनीति के हाल के समीकरणों पर सरसरी निगाह डालने से भी यह सा़फ हो जाता है. मौजूदा विधानसभा और विधान परिषद में भी ऐसे दर्जनों काले चेहरों को माननीय के तौर देखा जा सकता है, जिनकी जगह कहीं और होनी तय थी (कम से कम विधानमंडल के सदनों में तो कतई नहीं). लेकिन, यही तो भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है!
बिहार की राजनीति में इन दिनों कोई मुद्दा नहीं बचा है, मुन्नी-संजय के अलावा. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों और महा-गठबंधन में इसी मसले
पर बयानों का सिलसिला जारी है, मुन्नी-संजय किसके हैं? यह स्थिति राजनीति में जवाबदेही के तत्व का विलोपन करती है, उसका जन-सरोकारों वाला पक्ष गौण करती है.
राजनीतिक दलों में अब यह सवाल नहीं है कि समाज के लिए अमंगलकारी एवं अराजक तत्व किस पक्ष में हैं और किसमें नहीं. इस पर विमर्श की ज़रूरत कोई नहीं समझता. वे केवल कहते हैं कि किसकी कमीज किससे कम गंदी है, किसकी कमीज किससे अधिक गंदी है. सूबे में हाल की आपराधिक घटनाओं के चलते सार्वजनिक निर्माण (मुख्यत: सड़क निर्माण) कार्य ठप्प तो नहीं, लेकिन गंभीर रूप से बाधित हैं, जिसकी मार बिहार की साख और विकास पर पड़ रही है. इस अराजक स्थिति को कैसे समाप्त किया जाए, मौजूदा राजनीति की चिंता यह नहीं है.
विपक्ष की चिंता सत्ता पक्ष को घेरने की, तो सत्ता पक्ष की चिंता विपक्ष को कोसने की रही है. सूबे में धान की खरीद में अपेक्षित गति नहीं आ रही है. किसान अपनी उपज औने-पौने दामों पर बिचौलियों को बेच रहे हैं. अच्छे किस्म के धान बिहार से बाहर भेजे जा रहे हैं. इस हालात से निपटने की ठोस व्यवस्था हो, इसकी चिंता कहीं किसी हलके में नहीं दिखती. जनवरी बीत रही है और वित्तीय वर्ष समाप्त होने में अब तीन महीने का भी वक्त नहीं बचा है.
राज्य की योजना राशि के खर्च को अब भी अपेक्षित गति नहीं मिली है, लेकिन इसके लिए किसी भी पक्ष की ओर से कोई दबाव नहीं बनाया जा रहा है. यह मान लिया गया है कि सारे काम सरकार के हैं और वही जवाबदेह एवं ज़िम्मेदार है. लेकिन, यह भुला दिया गया है कि सत्ता को जवाबदेह एवं ज़िम्मेदार बनाने में विपक्ष की भूमिका बड़ी होती है, जिससे वह मुकर नहीं सकता.
इस लिहाज से सूबे के हालात में तात्विक सुधार की दिशा में कहीं किसी पक्ष में कोई सक्रियता नहीं दिख रही है. आंदोलन करना विपक्ष का मूल धर्म है और उसे करना भी चाहिए, लेकिन उसका मकसद सत्ता को जवाबदेह एवं ज़िम्मेदार बनाना होना चाहिए. ऐसा हो रहा है क्या? इस सवाल का जवाब खोजने के पहले यह देखना भी ज़रूरी है कि विपक्ष की सक्रियता या आंदोलनों को सत्ता किस तरह ग्रहण करती है?
सूबे के हालात (सरकार के नौकरशाह, प्रतिनिधि एवं सत्तारूढ़ महा-गठबंधन के नेता भले कुछ भी दावा करें) कतई बेहतर सुबह की उम्मीदें नहीं जगाते. इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि सूबे में सत्ता का इकबाल कायम हो. निर्माण कार्यों में लगीं ग़ैर बिहारी कंपनियों में भरोसा जगाने की ज़रूरत है, क्योंकि वे खुद को असुरक्षित महसूस कर रही हैं. उनके अधिकारियों-अभियंताओं में व्याप्त डर तुरंत समाप्त करना सत्ता की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है.
दरभंगा, सीतामढ़ी, छपरा, पटना, शिवहर, लखीसराय, गया एवं औरंगाबाद आदि क़रीब एक दर्जन ज़िलों में रंगदारी की मांग और रंगदारी के लिए हत्या की वारदातें हुई हैं, लेकिन दोषियों को पकड़ने के मामले में पुलिस-प्रशासन को अब तक कोई विशेष कामयाबी नहीं मिली. इन तत्वों पर अंकुश के बिना राज्य का भला संभव नहीं है. यह काम केवल सरकार का नहीं है, सत्ता के राजनीतिक नेतृत्व में शामिल दलों का भी है. जनता से सीधा साबका राजनीति का होता है, नौकरशाही का नहीं.
सो, सत्ता से संबद्ध राजनीतिक दलों को अपनी इस विशेष स्थिति का सदैव ख्याल रहना चाहिए और अपनी जन-सहभागिता की ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए. यदि उन्हें इसका ख्याल नहीं है या वे अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल नहीं करते हैं, तो विपक्ष इस मोर्चे पर उन्हें खींचे. लेकिन, सूबे में क्या ऐसी राजनीति हो रही है? इसका जवाब खोजने पर निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं आता. बिहार की राजनीति में जवाबदेही एवं ज़िम्मेदारी का भाव कमज़ोर न हो और यह बोध अधिकाधिक फले-फूले, यही कामना की जा सकती है. लेकिन, अभी तो कमीज पर दाग खोजे जा रहे हैं, दोनों पक्षों की ओर से.