लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह को अमर सिंह की याद भी आई थी, क्योंकि उनके साथ इस बार आजम खां एवं रेवती रमण सिंह के अलावा कोई अनुभवी नेता नहीं रह गया था. अमर सिंह मुलायम के दाहिने हाथ थे, ठीक उसी तरह, जैसे एक समय बेनी प्रसाद वर्मा मुलायम सिंह के दाहिने हाथ समझे जाते थे. बेनी वर्मा, आजम खां एवं अमर सिंह की तिकड़ी मुलायम सिंह के इर्द-गिर्द घूमती रही, जिससे हमेशा मुलायम सिंह को बल मिलता रहा. 
Mulayam_Akhilesh_PTIलोकसभा चुनाव में मात खाए सपा प्रमुख इन दिनों पसोपेश में हैं कि वह अब अकेले हैं. पिछली लोकसभा में उनके साथ मोहन सिंह जैसे प्रखर नेता मौजूद थे, जो कहीं न कहीं पार्टी में जामवंत की भूमिका निभाते थे और गाहे-बगाहे सामने आने वाली विरोधी ताकतों को मुंह तोड़ जवाब देते थे. पहली और दूसरी संप्रग सरकार में मुलायम सिंह के पास सदन में सांसदों की संख्या मतलब भर थी, लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में उन्हें बहू-भतीजों सहित चार सीटें मिलीं. दो सीटों पर जीते मुलायम सिंह ने अपनी आजमगढ़ सीट बरकरार रखते हुए मैनपुरी सीट इसलिए छोड़ रखी है कि इस सीट पर वह कोई ऐसा योद्धा लड़ाएंगे, जो सदन के अंदर मुकाबला करने के दौरान उनकी मदद करे. मुलायम सिंह को ऐसे सारथी की आवश्यकता महसूस हो रही है. भले ही वह अपना दुखड़ा पार्टी के लोगों से सुनाने में हिचक रहे हों, लेकिन राजनीति के जानकार समझ रहे हैं कि कहीं न कहीं मुलायम सिंह को अब एक लड़ाके की ज़रूरत है, जो उनके जज्बात समझे और साथ ही पार्टी का शुभचिंतक, चाणक्य बुद्धि वाला एवं दूरदर्शी भी हो. तब कहीं जाकर वह भाजपा जैसी बड़ी पार्टी का मुकाबला कर सकते हैं. राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि ऐसे ही प्रखर विद्वान सांसद प्रत्याशी की खोज पार्टी के दिग्गज कर रहे हैं, लेकिन अभी तक कहीं से ऐसी कोई ख़बर नहीं आ रही है कि आख़िर मैनपुरी सीट से उम्मीदवार के रूप में कौन-सा शख्स सामने आएगा, जो जिताऊ हो, साथ ही हीरे की परख रखने वाला जौहरी भी. दरअसल यह काम थोड़ा दुरुह है, क्योंकि भाजपा ने उत्तर प्रदेश में सपा के महाभटों को अपने जादुई बाण से एक ही बार में किनारे लगा दिया है.
यह तो गनीमत रही कि मुलायम सिंह के बहू-भतीजे किसी तरह बच गए, जिसके लिए सपा ईश्‍वर का लाख-लाख शुक्रिया अदा कर रही है. मुलायम सिंह तो यहां तक सोच चुके हैं कि जान बची तो लाखों पाए, लौट के बुद्धू घर को आए. एक समय मुलायम सिंह के साथ मोहन सिंह एवं जनेश्‍वर मिश्र जैसे प्रखर नेता मौजूद थे, जो पार्टी की विभिन्न समस्याओं का समाधान समाजवादी विचारधारा के माध्यम से कर दिया करते थे. वे देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था एवं विदेश नीति सहित सभी मामलों में अपनी राय बड़े तार्किक ढंग से बेबाकी और निडरता के साथ रखते थे. अपने व्यक्तित्व, विचार शक्ति एवं संघर्ष क्षमता के बल पर वे मुलायम सिंह के बेड़े के कामयाब संचालक रहे. समाजवादी सिद्धांतों के प्रति समर्पण की भावना उनके रोम-रोम में थी, जिसे मुलायम सिंह आज भी याद करते हैं. यही कारण है सपा सरकार ने इन बड़े नेताओं की याद में लोहिया पार्क एवं जनेश्‍वर मिश्र पार्क जैसे स्मारक बनवाए हैं. सपा प्रमुख को अपने जीवनकाल में ऐसा पहली बार देखने को मिला, जबकि उनके मंसूबों के अनुसार सफलता नहीं मिल पाई. ऐसा तब हुआ, जबकि उत्तर प्रदेश में सपा की प्रचंड बहुमत की सरकार थी. खैर, मुलायम सिंह दो जगहों यानी आजमगढ़ और मैनपुरी से जीते. फिरोजाबाद, कन्नौज एवं बदायूं संसदीय सीटें भी सपा के खाते में दर्ज हुईं.
लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह को अमर सिंह की याद भी आई थी, क्योंकि उनके साथ इस बार आजम खां एवं रेवती रमण सिंह के अलावा कोई अनुभवी नेता नहीं रह गया था. अमर सिंह मुलायम के दाहिने हाथ थे, ठीक उसी तरह, जैसे एक समय बेनी प्रसाद वर्मा मुलायम सिंह के दाहिने हाथ समझे जाते थे. बेनी वर्मा, आजम खां एवं अमर सिंह की तिकड़ी मुलायम सिंह के इर्द-गिर्द घूमती रही, जिससे हमेशा मुलायम सिंह को बल मिलता रहा. उन्हें कभी भी परवाह नहीं रहती थी. सबसे ज़्यादा फ़ायदा मुलायम सिंह को अमर सिंह से मिला, जिनकी वजह से मुलायम सिंह फिल्मी हस्तियों के साथ-साथ उद्योगपतियों का भी समर्थन पाते रहे. यह वही अमर सिंह थे, जिन्होंने 2008 में यूपीए सरकार को विश्‍वास मत दिलाने के अभियान में केंद्रीय भूमिका निभाई थी. ग़ौरतलब है कि 9 जुलाई, 2008 को वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और उसी समय यूपीए सरकार को परमाणु करार के लिए संसद का समर्थन हासिल करना था. अमर सिंह की इस मेहरबानी के पीछे एक अहम कारण यह भी बताया जाता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में हुए अरबों रुपये के खाद्यान्न घोटाले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी, जिसमें सपा प्रमुख की गर्दन फंसती नज़र आ रही थी.
ऐसे में, अमर सिंह ने मुलायम को बचाने के लिए सांसदों के खरीद-फरोख्त में प्रमुख भूमिका निभाई. यूपीए को मुलायम के 39 सांसदों की ज़रूरत थी, जो अमर सिंह ने पूरी कर दी. जिन अमर सिंह ने आय से अधिक संपत्ति और खाद्यान्न घोटाले के लिए सरकार से सौदा करके मुलायम सिंह को बचाया था, उन्हें ही मुलायम ने पार्टी से निकाल दिया. अमर सिंह इन दिनों राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजित सिंह के साथ हैं, जो मुलायम सिंह के प्रबल विरोधी हैं. बहरहाल, मुलायम सिंह अपना इकबाल बरकरार रखने के लिए आज भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. उन्होंने वोट हासिल करने के लिए जहां दस्यु सरगनाओं एवं दस्यु सुंदरियों को सांसद-विधायक बनाया, वहीं बड़े-बड़े धन्ना सेठों के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी राजनीतिक धरती भी खूब सींची. भले ही समय-समय पर कई लोग उनसे अलग हो गए. कई ऐसे नेता भी रहे, जिनके बल पर मुलायम सिंह की साख सधी रही, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. आज लोकसभा में अलग-थलग पड़े मुलायम सिंह को उन सभी की बहुत याद आ रही है. इसलिए वह मैनपुरी से चुनाव लड़ाने के लिए किसी ऐसे योद्धा की तलाश कर रहे हैं, जो इस मा़ैके पर उनका सहारा बनकर सामने आए. ऐसी किसी बैसाखी की उन्हें सख्त ज़रूरत है. मुलायम को लोकसभा में अपने लिए एक सारथी चाहिए, जिसकी खोज लगातार जारी है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here