mubarak-begumआज के दौर के फिल्म संगीत और गाने के प्रेमियों के लिए मुबारक बेगम का नाम भले ही अनजाना हो लेकिन साठ और सत्तर के दशक में मुबारक बेगम के गाए गीत खूब लोकप्रिय हुआ करते थे. मुबारक बेगम ने एक सौ पंद्रह फिल्मों में करीब पौने दो सौ गाने गाए हैं. मुबारक बेगम ने अपना पहला गाना 1949 में फिल्म आइए के लिए गाया था. इनको पार्श्वगायकी का पहला मौका देने वाले थे उस दौर के मशहूर संगीतकार शौकत हैदरी उर्फ नौशाद. मुबारक बेगम का पहला गाना था-मोहे आने लगी अंगड़ाई, आ जा आ जा बलम हरजाई. इस फिल्म में ही मुबारक बेगम ने लता मंगेशकर के साथ एक डूयट भी गाया था- जिया डोले ही जिया डोले ही किसी के ख्याल में. उसके बाद 1961 हमारी याद आएगी का गाना- कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी, अंधेरे छा रहे होंगे कि बिजली कौंध जाएगी-को लोगों ने काफी पसंद किया था. मुबारक बेगम ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इस गीत के बोल उनकी जिंदगी में साकार हो उठेंगे लेकिन ऐसा हो गया है. मुंबई के बीएसईएस अस्पताल के बिस्तर पर गुमनामी में अपना इलाज करवा रही मुबारक बेगम तन्हाइयों में अपनी सफलता के दौर को याद कर रही हैं.

उन्हें भी इस बात का इंतजार है कि उनकी जिंदगी में छाए अंधेरे में कोई बिजली कौंधेगी. कोई रौशनी होगी जो उनकी अंधेरी जिंदगी में थोड़ा प्रकाश भर देगी. तेइस साल तक फिल्म इंडस्ट्री में अपनी प्रतिभा के दम पर बनी रहने और हर साल कई-कई हिट गाने गाने के बाद भी आज अस्सी साल की उम्र में मुफलिसी में इलाज के लिए मदद का मुंह जोह रही हैं मुबारक बेगम. उन्नीस सौ तिरसठ में सुपरहिट फिल्म हमराही का गाना- मुझको अपने गले लगा लो-जब मुबारक बेगम ने गाया था तब उस वक्त भी उनकी आवाज को लेकर खूब प्रसिद्धि मिली थी, लेकिन उस गाने के पचपन साल बाद भी अस्पताल के बेड पर मुबारक बेगम सोच रही होंगी कि काश कोई मुझे अपने गले लगा ले यानि मदद का हाथ फैलाए. गले लगाने का सरकार ने वादा किया था, लेकिन वह हो न सका. अस्सी साल की उम्र में तंगहाली में रह रही मुबारक बेगम ने अपने श्रेष्ठ दौर में पैसों को अहमियत नहीं दी. वो कहती हैं उस वक्त फिल्मों में गाने के लिए ज्यादा पैसे नहीं मिलते थे. एक गाने के तीन चार सौ रुपये मिला करते थे और वो यह भी बताती हैं कि वह गाने के लिए पैसों को लेकर मोलभाव नहीं करती थीं. जो भी जितना देता था रख लेती थीं. सच्चा कलाकार ऐसा ही होता है वो अपनी कला का सौदा नहीं करता है. मुबारक बेगम के दौर के पहले के संगीतकार नौशाद ने वो मुकाम हासिल किया था जो आमतौर पर नायकों को ही हासिल हो पाता था.

Read more.. सपा अर्श पर भाजपा फर्श पर

वह किसी भी फिल्म में संगीत देने के लिए मुंहमांगी रकम लेते थे. उनका जो मन होता था वह मांगते थे और फिल्म निर्माता उतना पैसा देते थे. पचास के दशक में नौशाद एक फिल्म के एक लाख दस हजार रुपये लेते थे, जबकि निर्देशकों को उसका आधा पैसा भी नहीं मिलता था. कई फिल्मों में तो नायकों को भी इतना मेहनताना नहीं मिलता था. बाद में तो शंकर-जयकिशन की जोड़ी आई जो प्रति फिल्म बीस हजार रुपये पर काम करने लगी थी लेकिन तब भी नौशाद की शान और दाम दोनों में कोई कमी नहीं आई. नौशाद के संगीत का यह जलवा था कि उनका नाम देखकर ही फिल्में हिट हो जाती थीं. कहते हैं कि यह नौशाद के नाम का ही असर था कि दर्शकों और श्रोताओं को भरमाने के लिए नक्शब ने शौकत देहलवी का नाम नाशाद रख दिया था. यह वही नाशाद थे जिन्होंने मुबारक बेगम को ब्रेक दिया था. यह अलहदा बात है कि नाशाद कभी भी नौशाद के स्तर तक नहीं पहुंच पाए लेकिन उन्होंने कई बेहतरीन गाने दिए. उन्होंने अपने संगीत में कई तरह के प्रयोग किए. खैर ये अवांतर प्रसंग है.

यह सुनने में अच्छा लगता है कि कला का सौदा नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन जब कलाकरों को वक्त के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलना होता है तो उनको कई बार अफसोस होता है कि काश अपने अच्छे दिनों का सौदा कर लिया होता या अपने फन के लिए उचित पैसे ले लिए होते तो आज यह दिन नहीं देखने होते. हमें पता नहीं कि इन दिनों मुबारक बेगम को इस बात का अफसोस हो रहा है या नहीं कि उन्होंने अपने अच्छे समय में पैसे को लेकर मोलभाव क्यों नहीं किए थे? क्यों नहीं उन्होंने गाने के लिए ज्यादा पैसों की मांग की थी? लेकिन उन्हें इस बात का बेहद अफसोस है कि मदद का ऐलान करने के बावजूद महाराष्ट्र सरकार उनकी मदद के लिए अबतक आगे नहीं आई है. खुद महाराष्ट्र के संस्कृति मंत्री के ऐलान के बावजूद मदद नहीं मिलने से हमारी व्यवस्था की संवेदनहीनता उजागर होती है. मदद तो दूर की बात सरकार का कोई नुमाइंदा मुबारक बेगम का हाल चाल लेने.

Read More.. सपा अर्श पर भाजपा फर्श पर

अस्पताल तक नहीं पहुंचा. इन दिनों मुबारक बेगम की मदद उनके साथ फिल्मों में गायकी करने वाली लता मंगेशकर कर रही हैं और बहुधा दवाइयों का खर्चा सलमान खान उठा रहे हैं. लता मंगेशकर पैसों से भी उनकी मदद करती हैं लेकिन वह उनकी बीमारी को देखते हुए नाकाफी है. कुछ दिनों पहले सैकड़ों फिल्मों में काम करने वाले मशहूर अभिनेता एके हंगल की मुफलिसी की खबरें भी आईं थी. तब भी सरकार की संवेदनहीनता पर सवाल उठे थे लेकिन तब से लेकर अबतक कोई बदलाव नहीं आ पाया है. कलाकार को, लेखक को, अभिनेता को तो हमें अपनी विरासत की तरह सहेज कर रखना चाहिए, लेकिन हो यह रहा है कि यह भी विरासत की तरह ही नष्ट होते जा रहे हैं. कलाकारों को सरकार की तरफ से तवज्जो ही नहीं मिल रही है, मदद की बात तो दूर. क्या केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वो इतनी अच्छी गायिका की उनके बुरे दिनों में मदद करे. क्या संगीत नाटक अकादमी के पास इस बात के लिए पैसे नहीं हैं कि वो मुबारक बेगम के अच्छे इलाज का इंतजाम करवा सके. इन अकादमियों को क्या सिर्फ पुरस्कार, गोष्ठी और सेमिनारों तक सीमित कर दिया जाना चाहिए.

इस वजह से काफी समय से एक मांग उठ रही है कि मुफलिसी के वक्त कलाकारों, लेखकों की मदद के लिए एक कोष की स्थापना की जाए और उसमें संबंधित अकादमियों के नुमाइंदों के साथ-साथ उस क्षेत्र की एक-एक मशहूर हस्तियां भी हों. इस कोष में सरकार एक आधार राशि अनुदान के तौर पर दे और उसके बाद इंडस्ट्री और कला प्रेमियों से डोनेशन लेकर इस फंड को बढ़ाने की कोशिश की जानी चाहिए. ताकि वक्त पर जरूरतमंद कलाकारों और लेखकों की मदद की जा सके. हमें याद पड़ता है कि हिंदी के वरिष्ठ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी साल मुफलिसी में ही गुजारे थे. जब उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जब इस बात का पता चला था तब उन्होंने साहित्य अकादमी के मार्फत निराला जी की मदद करवाई थी. सवाल यही उठता है कि क्यों लेखकों को इस स्थिति का सामना करना पड़ता है. फिल्मों में गायक गायिका से लेकर सबने अब अपनी आर्थिक स्थिति के मद्देनजर अपने को मजबूत बनाने का काम किया और अपनी जिंदगी के पूर्वार्ध की आर्थिक सुरक्षा पक्की कर ली. लेकिन हिंदी साहित्य की स्थिति अब भी जस की तस बनी हुई है. आज भी हिंदी साहित्य रचकर जीविकोपार्जन कर पाना मुश्किल है. शायद ही हिंदी का कोई साहित्यकार हो जो सिर्फ साहित्य सृजन कर अपनी जिंदगी अच्छे से रह सकता है.

साहित्यकारों, संगीतकारों और गायकों की मदद करने के लिए कई निजी संस्थाएं सक्रिय हैं लेकिन उनकी सक्रियता काफी नहीं है. मुंबई में ही एक कार्यक्रम रहमतें के नाम से होता है और उसको आयोजित करने वाली संस्था हर साल कलाकारों की मदद करती है. मदद करने का उनका अपना अनूठा तरीका है. वह कलाकारों का एक निश्चित रकम का बीमा करवाकर उनको देती है, जो मौके पर काम आ सके. इसी तरह से कई निजी कंपनियां कलाकारों की समय-समय पर मदद करती हैं, लेकिन कोई केंद्रीय संस्था नहीं है जो कलाकारों, लेखकों को उनके बुरे वक्त में मदद कर सके .

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here