MR-Morarkaअगर कोई व्यक्ति 1961 में किताब लिखे. किताब भी समाजवाद एक अध्ययन का निष्कर्ष हो और वह व्यक्ति जिद करे कि मैं इस किताब को तब तक सार्वजनिक नहीं करूंगा जब तक प्रसिद्ध समाजवादी और सर्वोदयी नेता, जिन्हें बाद में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम से जाना गया, इसकी भूमिका नहीं लिखेंगे. किताब 1961 में लिखी गई और 1962 तक उनकी अलमारी में बंद रही. उनके एक मित्र राजेश्वर पटेल जी की वजह से जयप्रकाश जी ने किताब की भूमिका लिखनी शुरू की. उन्होंने पहले किताब पढ़ी. आप उस भूमिका को पढ़ें (बॉक्स) और तब आप समझ पाएंगे कि उस व्यक्ति के बारे में जयप्रकाश जी क्या कहते हैं. जब जयप्रकाश जी ने भूमिका लिख दी, तो श्री महावीर प्रसाद आर. मोरारका साहब ने उसे फौरन प्रकाशित कराया. भारती प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया था. बाद में उनके पुत्र श्री कमल मोरारका ने 2011 में इस पुस्तक को दोबारा छपवाया और उसका अंग्रेजी अनुवाद भी बाजार में आ गया.

तभी पता चला कि एमआर मोरारका क्या थे. एमआर साहब सार्वजनिक हितों के प्रति सरोकार रखने वाले व्यक्ति थे, साथ ही उनके व्यक्तित्व का अनूठापन उन्हें न सिर्फ अपने समाज में अनूठा बनाता है, बल्कि देश में भी अनूठा बनाता है. सोने पर सुहागा यह कि वह व्यक्ति राजनैतिक कार्यकर्ता नहीं है, किसी राजनीतिक विचारधारा का पुरोधा नहीं है. वह व्यक्ति व्यापारी वर्ग से आता है. इनका नाम श्री महावीर प्रसाद आर मोरारका है, जिन्हें लोग एमआर साहब के नाम से पुकारते हैं. यह वर्ष एमआर मोरारका की जन्म शताब्दी का वर्ष है. इसलिए आज यह अवसर है कि इस व्यक्ति से जुड़ी कुछ बातों को परखा जाए. कम से कम वह बात मैं आपसे साझा करना चाहता हूं, जिसने मुझे रोमांचित कर दिया था.

मिल में मज़दूरों की साझेदारी

1959 में देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू इंदौर आए थे. इंदौर में एक हुकुमचंद मिल थी. इस मिल का काम श्री एमआर मोरारका की देखरेख में होता था. उन्होंने हिन्दुस्तान में पहली बार अपनी मिल में गांधी जी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को लागू किया. देश में घनश्यामदास बिड़ला भी थे, जिन्होंने गांधी जी के अभिभावक के रूप में अपने को प्रचारित कर रखा था. जमनालाल बजाज भी थे, जिन्होंने गांधी जी को अपना पोष्य घोषित कर रखा था और भी कई बड़े उद्योगपति रहे होंगे. लेकिन किसी भी ने गांधी जी के किसी सिद्धांत को लागू नहीं किया. लेकिन श्री एमआर मोरारका ने हुकुमचंद मिल में मजदूरों की साझेदारी की गांधी जी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को लागू किया. इसी का उद्घाटन करने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इंदौर आए थे और उन्होंने खुशी के साथ एमआर मोरारका की शान में बहुत सारी बातें कही थी.

उस समय व्यापारी वर्ग के बीच उनके इस अनूठे कदम ने हलचल तो मचाई ही थी, लेकिन वे इतने विनम्र थे कि उन्होंने अपने इस कदम का कोई भी फायदा अपने लिए नहीं उठाया. उन्होंने समाज का अध्ययन किया, समाज के अंतरविरोधों को जाना, उसे समझा, कहां-कहां परेशानियां हैं, उनका क्या हल हो सकता है, इसे अपने नजरिए से देखा और फिर उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम उन्होंने ‘समाजवाद एक अध्ययन’ रखा.

उनके मित्रों में श्री हरीश साल्वे के पिता एनकेपी साल्वे, जस्टिस शरद अरविन्द बोबड़े के पिता श्री अरविन्द बोबड़े जैसे लोग शामिल थे. एक बार एनकेपी साल्वे ओबेरॉय होटल में ठहरे हुए थे और वहां पर एमआर साहब से उनकी मुलाकात चल रही थी. उसी समय दिलीप कुमार साहब, एनकेपी साल्वे साहब से कोई सलाह लेने आए. एनकेपी साल्वे साहब ने एमआर साहब से कहा कि ये युसुफ साहब हैं, इनकी समस्या है, इसका हल क्या है. युसुफ खान, जिन्हें हम दिलीप कुमार साहब के नाम से जानते हैं, बड़े हैरान रह गए कि खुद एनकेपी साल्वे साहब किसी से राय मांग रहे हैं, तो वह कितना बड़ा आदमी होगा. उसके बाद उनका सम्बन्ध एमआर साहब से हो गया.

एमआर साहब के जाने के बाद उनके पुत्र कमल मोरारका से भी जब दिलीप साहब मिलते हैं, तो उन्हें गले लगाकर उसी आत्मीयता से बात करते हैं, जिसकी शुरुआत उन्होंने एमआर साहब और एनकेपी साल्वे के साथ की थी. एमआर साहब की एक खासियत थी कि जो उनके पास आता था, उसे वह सही सलाह देते थे. उनके समाज में, यानि मारवाड़ी समाज में मशहूर था कि अगर सही राय लेनी है और किसी समस्या का सही हल निकालना है, तो महावीर प्रसाद जी के पास जाना चाहिए. उनके समाज के अधिकांश लोग उनके पास राय लेने के लिए आते थे, जिन्हें वे सही सलाह देते थे. समस्या चाहे परिवार की हो या कंपनी की हो, उनके रिश्तेदार और रिश्तेदारों के रिश्तेदार भी एमआर साहब के पास आते रहते थे और वे दिनभर लोगों से बातचीत करते रहते थे. उन्हें लोगों की समस्याएं सुलझाना और उन्हें ईमानदारी से सलाह देना बहुत अच्छा लगता था. उन्हें सयाना माना जाता था.

उनके बारे में माना जाता था कि अक्लमंदी की सलाह चाहिए, तो महावीर प्रसाद जी के पास जाना चाहिए. उनके एक मित्र एमआर पारपिया वरिष्ठ वकील थे. हीरालाल ठक्कर थे. दरअसल इनके साथ उनकी चर्चा कभी राजनीतिक नहीं होती थी. बौद्धिक चर्चा में उन्हें बहुत मजा आता था. बौद्धिक चर्चा के साथ-साथ वे शतरंज के बहुत शौकीन थे. शतरंज खेलते हुए उन्होंने एक बार कमल मोरारका को बताया कि इंटेलिजेंट होना क्या है. उन्होंने कहा कि एक चौबे जी हैं, जो मेरे साथ लगातार शतरंज खेलते हैं, कभी-कभी मुझे हरा भी देते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि ये इंटेलीजेंट हैं, हां इन्हें शतरंज खेलना आ गया है. वे रोजाना सुबह 10 बजे से 12 बजे तक शतरंज खेलते थे. उनका सबसे बड़ा शौक या सबसे बड़ा पैशन सुगर मिल थी, जिसे वे देखते थे.

गन्ना उत्पादन करने वाले किसानों से उनका बहुत अच्छा रिश्ता था. गन्ना किसान उन्हें अपने पिता की तरह मानते थे, क्योंकि वे गन्ना किसानों की सारी समस्याओं को हल करते थे. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक मिल से चार-पांच हजार गन्ना किसान जुड़े रहते हैं और उन सबका एमआर साहब से व्यक्तिगत रिश्ता था. एमआर साहब ने समझाया कि बिना आपस के सहयोग के कभी काम नहीं चलता. ये सीख कमल मोरारका की सोच में ध्रुव तारे की तरह चिपक गई. वे उनसे मिली सीखों का अक्षरश: पालन करते हैं.

हिन्दी के विद्वान

हालांकि वे कभी अपने पुत्र कमल मोरारका के तरीके से सहमत नहीं थे. गैनन डंकरली आई और इसी के साथ परिस्थितिवश सारी चीनी मिलें उन्हें बंद करनी पड़ी. वे अपने दोस्त सीपी मेहता साहब से कहते थे कि कमल गैनन डंकरली चला नहीं पाएगा, क्योंकि वो वहां वक्त ही नहीं देता है. लेकिन सीपी मेहता उन्हें समझाते थे कि कमल की कंपनी पर पूरी पकड़ है. आप भले ही कमल के तरीके से सहमत नहीं हों, लेकिन कमल कंपनी को बहुत अच्छी तरह चलाएंगे. एमआर साहब मुस्कुरा देते थे. वे परिवार में अपनी पुत्रियों से ज्यादा नजदीक थे और उनसे साहित्यिक चर्चा करते थे. लेकिन कमल मोरारका जब कोई राय देते थे, तो अपनी पत्नी से कहते थे, देखो तुम्हारा बेटा क्या कह रहा है.

प्यार-प्यार से कमल जी को जीवन के उन पहलुओं की सीख देते थे और शायद अपने सभी बच्चों को सीख देते होंगे, जिसे उन्होंने अपने अनुभव से सीखा था. वे हिन्दी के विद्वान थे. कालिदास और गालिब उन्हें सबसे प्रिय थे. उन्हें हिन्दी के कवियों में लगभग सारे कवि पसंद थे. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔैद्ध, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन आदि सभी की किताबों का संकलन उनके पास था और इन सभी लोगों से उनके साहित्यिक सम्बन्ध भी थे.

बच्चन जी की हर किताब पर वे उनके हस्ताक्षर लेते थे. बच्चन जी के हस्ताक्षर बहुत अनूठे थे. प्रिय प्रवास, रघुवंश का पहला श्लोक उन्होंने अपने पुत्र कमल मोरारका को हंसी-हंसी में सिखा दिया. वे ज्यादा गुजराती और हिन्दी ड्रामा देखते थे और ड्रामा के बहुत प्रशंसक भी थे. कैलाश सेकसरिया ने, जो हमेशा एमआर साहब से मिलते रहते थे और आज हमारे बीच हैं, मुझे बताया कि एमआर साहब से मिलने उस समय के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई आए, क्योंकि एमआर साहब ने इनकम टैक्स को लेकर एक किताब लिखी थी. किताब छपे, इसके पहले उसकी चर्चा हो गई.

मोरारजी भाई ने एमआर साहब से अनुरोध किया कि आप इस किताब को प्रकाशित नहीं कराइए, अन्यथा इनकम टैक्स विभाग पर बहुत असर पड़ेगा. दरअसल एमआर साहब इनकम टैक्स के विशेषज्ञ थे. उन्होंने इनकम टैक्स के बुरे और सही पहलू को लेकर एक किताब लिखी थी. उन्होंने मोरारजी भाई को वचन दे दिया कि यह किताब प्रकाशित नहीं होगी. उस किताब की पांडुलिपी अभी भी उनकी अलमारी में पड़ी हुई है. उनके लिखे किसी नोट को इनकम टैक्स कमिश्नर बहुत ध्यान से पढ़ते थे और अधिकांश में उन्होंने नियमों को गलत पाया और एमआर साहब को सही.

समाजवाद की पैरवी एक पूंजीपति द्वारा

एमआर साहब, गांधी जी और पंडित जी से बहुत प्रभावित थे. लेकिन वे प्रशंसक सरदार के पटेल थे और उन्हें ज्यादा सही समझते थे. एमआर साहब के जीवन, उनकी सोच और व्यक्तित्व को समझना हो तो उनकी लिखी किताब पढ़नी चाहिए. ‘समाजवाद एक अध्ययन’ में एमआर साहब ने कहा है कि पूंजीवाद के संकट का समाधान समाजवाद के रास्ते से ही संभव है.

सबसे अच्छी बात, जिसे मस्तराम कपूर ने अपने शब्दों में कहा, कि समाजवाद की पैरवी एक पूंजीपति द्वारा की गई है, यह सबसे अद्भुत पहलू है. जॉर्ज बर्नाड शॉ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द इंटेलिजेंट विमेंस गाइड टू सोशलिज्म’ से संभवतः प्रेरित यह पुस्तक विश्व के वर्तमान अर्थिक संकट को समझने में लोगों की मदद कर सकती है. इसके कुछ अध्याय बहुत ध्यान से पढ़ने लायक हैं. जैसे, फालतू धन की माया, लागत पूंजी के विभिन्न रूप, पूंजी बाजार, सट्‌टा, बैंकिंग मुद्रा और मुद्रा नियंत्रण आदि. यह पुस्तक आप पढ़ेंगे तो आपको नहीं लगेगा कि आपने इससे मिलते-जुलते विषयों को कहीं और पढ़ा है.

जीवन के अनुभव से सीखी हुई बातें, जिसे सिद्धांत में परिवर्तित कर एमआर साहब ने लिखा है, वैसी किताब हिन्दुस्तान में और कोई दूसरी नहीं दिखाई देती. यह शास्त्रीय किताब नहीं है, जीवन का ज्ञान है. मस्तराम कपूर जी का कहना है कि जैसे गुलाब राय ब्रोकर ने गुजराती भाषा को आर्थिक जगत की रहस्यमयी वादियों की जानकारी से समृद्ध बनाया, उसी प्रकार एमआर साहब की यह पुस्तक भी हिन्दी भाषा को आर्थिक जगत की वादियों की गहन जानकारी से समृद्ध बनाती है. पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों से हटकर तीसरे रास्ते समाजवाद की सिफारिश एमआर साहब ने की है और यह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि एमआर साहब खुद व्यापारी वर्ग से आते हैं.

इस किताब में बहुत कुछ और भी है. इसके खंडों को देखें तो आपको मजेदार चीजें मिलेंगी. भ्रष्टाचार बनाम परमिट परपीड़न, मनुष्य का यंत्रीकरण, सहकारिता आंदोलन, कंपनियों का अवतरण, पीड़ित श्रमिक वर्ग, फैक्ट्री एक्ट, वर्ग युद्ध, स्त्री कामगार, धन की कीमत, पूंजी बाजार, मुआवजा, उद्योग के संचालन का राष्ट्रीयकरण, कानूनी लूट-मार आदि अध्याय बहुत मायने रखते हैं. पत्रकारिता क्या है और कैसे पूंजीपतियों ने पत्रकारिता को अपनी जेब में रख लिया है, पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए, इसके बारे में भी एमआर साहब ने बहुत विस्तार से इस किताब में लिखा है.

मैं एमआर साहब की प्रशंसा में बहुत कुछ लिखना चाहता हूं. इसलिए लिखना चाहता हूं कि वह व्यक्ति उस समय हमारे सामने था, जब हिन्दुस्तान आजाद हुआ था और आजादी के रास्ते पर नए कदम बढ़ने शुरू हुए थे. ऐसे समय हिम्मत के साथ उन सिद्धांतों को अपने जीवन में लागू करना बिल्कुल वैसा ही था, जैसा पथरीले और अंधेरे रास्ते पर चलते हुए लोगों को मशाल की रोशनी दिखाना. एमआर साहब का मूल्यांकन मारवाड़ी समाज ने नहीं किया. एमआर साहब का मूल्यांकन इस देश ने भी नहीं किया.

एमआर साहब अपनी प्रशंसा चाहते भी नहीं थे. लेकिन उन दिनों ऐसे व्यक्तित्व का होना आज हमें यह बताता है कि किस हिम्मत के साथ अपने परिवार, अपने समाज और देश से अपनी बात कहनी चाहिए, शाश्वत चर्चा करनी चाहिए. तभी आज कहना पड़ता है कि एमआर साहब, कमल मोरारका के पिता नहीं, बल्कि कमल मोरारका एमआर साहब जैसे यशस्वी और बुद्धिजीवी उद्योगपति की संतान हैं. शायद इसीलिए कमल मोरारका आज निडर हैं, वैचारिक रूप से संपन्न हैं. एमआर साहब की एक युक्ति मुझे उन्हीं के पुत्र श्री कमल मोरारका ने बताई. उन्होंने बताया कि उनका चंद्रशेखर जी से उनका बहुत अच्छा रिश्ता था.

चंद्रशेखर जी उनके घर आकर ठहरते थे, क्योंकि एमआर साहब के छोटे भाई आर आर मोरारका प्रसिद्ध सांसद थे और लोकलेखा समिति के अध्यक्ष थे. दोनों भाई एक साथ रहते थे. जब चंद्रशेखर जी मुंबई आते थे तो इन्हीं के घर ठहरते थे. हमेशा एमआर साहब कहते थे कि यह व्यक्ति एक दिन प्रधानमंत्री बनेगा. बाकी विषयों पर अपनी साफ राय रखने वाले एमआर साहब की यह भविष्यवाणी 1990 में तब सही हुई, जब चंद्रशेखर जी देश के प्रधानमंत्री बन गए. वे एक शेर अक्सर गुनगुनाते थे:

‘कसीदे से चलता है न यह दोहे से चलता है,

समझ लो खूब कार-ए-सल्तनत लोहे से चलता है.’


लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा लिखित समाजवाद एक अध्ययन पुस्तक की भूमिका समाजवाद पर चर्चा के लिए इस पुस्तक का स्वागत होना चाहिए


यह प्रसन्नता की बात है कि देश के धनपतियों में समाज के मूलभूत प्रश्नों पर विचार करने की रुचि जग रही है. साधारणतया उनकी दिलचस्पी व्यापार उद्योग के सवालों तक सीमित होती है. ऐसी दशा में श्री महावीर मोरारका का प्रस्तुत प्रयास सराहनीय है. अच्छा होता यदि पुस्तक की रचना कुछ अधिक व्यवस्थित होती और विषयांतर कम होता. कई विषयों पर लेखक के विचार कुछ निराले से ही हैं, परन्तु उन्होंने साहस तथा स्पष्टता से उन्हें व्यक्त किया है.

समाजवाद वर्तमान काल का एक महत्वपूर्ण विषय है और उसका साहित्य बड़ा ही विस्तृत तथा गंभीर है. समाजवाद के मुख्य उद्देश्य जहां सर्वमान्य हैं, वहां उनको प्राप्त करने में उपायों के सम्बन्ध में गहरा मतभेद है. अभी के औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए देशों में समाजवाद के निर्माण के प्रयत्न अलोकतांत्रिक ढंग से किए गए हैं. स्वभावत: उसमें सफलता आंशिक ही हुई है. भारत दुनिया का पहला पिछड़ा देश है, जहां यह प्रयत्न लोकतंत्र के साधनों से किया जा रहा है. इसकी सफलता के लिए यह आवश्यक है कि समाजवाद की व्यापक चर्चा इस देश में हो. इस दृष्टि से भी प्रस्तुत पुस्तक का स्वागत होना चाहिए.

समाजवाद के निर्माण के अनुभवों से एक बात बड़ी स्पष्टता से सामने आई है कि समाजवाद का सच्चा निर्माण केवल समाज के कानूनों तथा संस्थानों के परिवर्तन से नहीं हो सकता. समाजवाद के जो नैतिक तथा सांस्कृतिक मूल्य हैं, वे जब तक जनमानस में नहीं पैठ जाते, तब तक समाजवादी संस्कृति का निर्माण नहीं हो सकता. यह कार्य राजनीति तथा राजसत्ता के द्वारा नहीं किया जा सकता. इसके लिए व्यापक लोकशिक्षण की आवश्याक्ता होगी. दुर्भाग्य से दुनिया के समाजवादियों का ध्यान इस कर्तव्य की ओर कम गया है. सत्ता के संघर्ष तक ही उनका प्रयास सीमित रहता है. इस देश में महात्मा गांधी के मार्गदर्शन के कारण सर्वोदय आंदोलन के रूप में यह प्रयास हो रहा है. समाजवाद की ओर यह एक नया कदम है.

जयप्रकाश नारायण

बम्बई

26.07.1962 

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