इतिहास गवाह है कि समय बदलता है तो भूमिकाएं भी बदलती हैं । गणेश शंकर विद्यार्थी सिर्फ पत्रकार ही होते तो उनकी भरी सड़क पर इस कदर हत्या नहीं होती । यह हम सब जानते हैं । हमने यह भी सुना है कि हनुमान को , यानी ताकतवर को उसकी शक्तियों का अहसास कराना पड़ता है । सब लोग सब कुछ जानते हैं । पर सब कुछ जानते समझते भी दुर्योधन की सभा में हर दिग्गज शिखंडी समान हो जाता है । नपुंसक सा । बड़ा द्वंद्व है। आज नरेन्द्र मोदी ने जो लंबी लकीर खींच दी है पूरे समाज में , सारे पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक और प्रबुद्ध जन उससे अभिभूत से जान पड़ते हैं ‌। उसी के आलोक में सारी बहसें और विश्लेषण जारी हैं । दूसरे मायनों में कहा और माना जा सकता है कि प्रबुद्ध समाज ने अपना विवेक खो दिया है। सारी बहसें और विश्लेषण सुन कर हर किसी का यह अहसास करना कोई चौंकाता नहीं कि मोदी ‘महज़ एक और’ प्रधानमंत्री हैं । जब भी बहसें सुनता हूं तो यही पाता हूं कि आज के समय की तुलना नेहरू के समय से, 1975 या 77 से , इंदिरा या जेपी या चंद्रशेखर या नरसिंह राव या राजीव गांधी के विशाल बहुमत आदि से की जाने लगती है । तब विश्लेषकों की बुद्धि पर तरस आता है । यानी मोदी की राजनीति को कितने हल्के से हम ले रहे हैं । हम यह भी मान रहे हैं कि यह राजनीति के रूप में युद्ध नहीं, फक्त साधारण और परंपरागत राजनीति है । जितने इस जाल के हम शिकार हो रहे हैं उतना ही मोदी अपनी सत्ता की मजबूत बिसात में हर वर्ग को घेरे चल रहे हैं ।
इतना बड़ा और विविधताओं वाला देश मोदी के लिए वरदान बन गया है। इसे स्वयं के लिए वरदान बनाने की जो मेहनत मोदी जिस समय कर रहे थे , उस समय हमारा विद्वान समाज क्या कर रहा था , यह शोध का विषय हो सकता है । आज भी बहसें और चर्चाएं सुनिए तो किस निष्कर्ष पर आप पहुंचेंगे । रोज बहसें होती हैं , रोज घिसे पिटे विद्वानों को आप सुनते हैं और सो जाते हैं । राजनीतिक दल दिग्भ्रमित हैं , सबसे बड़ा विपक्षी दल कांग्रेस भी अंतिम सांसों में बुरी तरह दिग्भ्रमित ही है । मोदी ने बड़ी चतुराई से सिलीकॉन वैली को पोसा जिसका नतीजा हम देख रहे हैं । डिजिटल होता भारत क्या सच नहीं कि राजनीतिक योद्धाओं की गरमी और तेवर लील रहा है । संतोष भारतीय ने कल कहा कि राजनीतिक दल सड़कों पर नहीं नजर आते पर नतीजा कुछ और आता है । वे बीते समय की बात कर रहे थे । आज के संदर्भ में भी इसी बात को देंखे तो कहना होगा राजनीतिक दल सड़कों पर नहीं नजर आते और इसीलिए नतीजा भी कुछ नहीं दे पाते । सिवाय सोशल मीडिया पर उछल-कूद के । इन्हीं सब को सामने रख कर तमाम बहसों का निचोड़ निकलता है कि 2024 में मोदी का कोई विकल्प नहीं इसलिए आएंगे तो मोदी ही ।
क्या यहां से पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की कोई नयी भूमिका नहीं होनी चाहिए । राजनीतिक दलों से कोई संवाद, 2024 तक सतत चलने वाले किसी आंदोलन की भूमिका , किसी नये ,साफ सुथरे और सर्व स्वीकार नेतृत्व की खोज । बहसें आज भी कुछ नहीं दे रहीं 2024 तक भी कुछ नहीं देंगी । सुनने वाले जहां तहां से अपने लिए सब कुछ निकाल ही लेते हैं । वे आपकी बहसों के मोहताज नहीं हैं अब । इसलिए मोदी के सामने प्रबुद्ध समाज स्वयं को ‘सरेंडर’ न करें । और लड़ाई की नयी भूमिका में सामने आये । वक्त का यही तकाजा और मांग है । यूट्यूब पर चलने वाली वेबसाइट्स , रवीश कुमार का प्राइम टाइम और इस तरह के अन्य चैनल बहुत कुछ दे रहे हैं बेशक । लेकिन वे वर्ग नहीं खड़ा कर पा रहे जो मोदी को हैरान परेशान कर सकें । मोदी की खिल्ली उड़ाना, उनकी नीतियों की आलोचना कर देना, फैसलों पर हंसना हंसाना इस सत्ता को कहीं से डावांडोल नहीं कर सकता । इतना समझ लें मोदी का किला कहीं से अभेद्य नहीं है । ऐसे में दुष्यंत कुमार की पंक्ति याद आती है – ‘एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों ….।’ समय किसी के रोके नहीं रुका है । देखना है देश की चिंता करने वाले मौजूदा समय को अपनी गिरफ्त में करके दिखाते हैं या नहीं !!

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