मैजिक में सिर्फ एक आश्चर्यजनक खुशी होती है और एक प्रश्न – ‘अरे … यह कैसे संभव है’ । लोकसभा के पिछले दो बार के परिणामों ने हमें समान रूप से अचंभित किया है कि कैसे संभव है कि एक तिहाई वोट लेकर कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री बन सकता है। कारण साफ है पर गणित नहीं। गणित दो और दो चार है कि दो और दो बाईस।
दो चार दिन पहले वरिष्ठ पत्रकार सुहास पलसीकर ने इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिख कर नौ बातों पर चिंता जताते हुए पूछा कि इसके बावजूद मोदी की जीत कैसे होती रही। उनकी पहली चिंता बाकी चिंताओं से ज्यादा वाजिब है वे लिखते हैं कि लोगों ने नहीं सोचा कि जो व्यक्ति 2002 में अपने राज्य के लोगों को सुरक्षा और सुशासन नहीं दे सका वह व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बनने लायक कैसे है। बड़ा वाजिब प्रश्न है। बाकी चिंताएं नोटबंदी, राफेल, कोरोना के समय की त्रासदी, किसान बिल, चीन, अडानी, मोदी की भाषा आदि से जुड़े हैं। ये सभी प्रश्न इस बात से जुड़े हैं कि इन सबके बावजूद मोदी कैसे जीतते जा रहे हैं। इन सबके मूल में पहली चिंता को केंद्र में रखें।
हम जानते हैं कि मोदी ने अपना एक ‘वोट बैंक’ तैयार किया है जो प्रतिबद्ध और कटिबद्ध है। यह वह वोट बैंक है जिस पर हर चुनाव में हर किसी की नजर तो गई पर किसी पहुंचे हुए राजनेता ने उन्हें दूसरों के मुकाबले अपने लिए तैयार नहीं किया। पहले जो भारतीय समाज तीन वर्गों में विभाजित था आज उसकी पांच परतें हो चुकी हैं। मोदी ने उस समाज को उसके तौरतरीकों, जुमलों और स्वयं को रॉबिन हुड जैसा प्रदर्शित करके सुनिश्चित किया कि असली पालनहार का जन्म मोदी के रूप में हो चुका है। जो अकेला है, परिवार मुक्त है, भ्रष्टाचार में बेदाग है। इस रूप में यह नायक आया नहीं, हमारे बीच अवतरित हुआ है। भ्रष्टाचार, गरीबी मिटाना, सुशासन देना, रोजगार देना इस तरह के वायदे तो सब करते हैं लेकिन यही हमारा नायक है जो इन सबके साथ मुसलमानों को मिटा कर भारत को हिंदू राष्ट्र स्थापित करेगा। ऐसा नायक पहले न कभी आया है और न आगे कभी आएगा। यह स्वप्न 2002 के गुजरात के बाद देश के सौ प्रतिशत मठ बुद्धि हिंदुओं ने देखा था और फिर इसी को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के जरिए बहुत तेजी से जन जन में फैलाया और प्रसारित किया गया। मोदी के जुमले, लच्छेदार भाषा और मदारी वाले मैजिक ने जहां देश के असंगठित क्षेत्र को अपनी ओर खींचा तो वहीं मिडिल क्लास हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ और हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में लामबंद करने का प्रयास किया। मोदी ने उच्च वर्ग से निरंतर दूरी बनाए रखी और उस वर्ग पर हमेशा कटाक्ष करते रहे ताकि जनमानस में इस वर्ग को वामपंथी या नक्सलवादी घोषित कर मोदी विरोधी सिद्ध किया जा सके। मोदी को पता था कि सब कुछ चल सकता है पर झूठ और झूठे वायदों के भरोसे सत्ता देर तक नहीं टिकाई रखी जा सकती। उनकी सौ से अधिक योजनाएं इसी असर को कम करने के लिए बनाई गई थीं । जो कभी पूरी नहीं हुईं क्योंकि वे योजनाएं पूरी करने के लिए निर्मित ही नहीं की गई थीं। वे योजनाएं इसलिए थीं कि हमेशा उनसे एक फील गुड का वातावरण बना रहे । दो एक योजनाएं होतीं तो उन्हें गिना कर पूछा जा सकता था लेकिन सौ योजनाओं पर कैसे और कहां तक कोई सवाल करे । शुरुआत हर योजना की इसी मकसद से की गई।
दूसरा, हमारे देश में मुगल काल की शुरुआत से ही हिंदू मुस्लिम टसल का खेल चल रहा है। समाज हमेशा से इन दो धर्मों के बीच झूलता रहा है । आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी का आधा समय इस विवाद को टालने और दोनों की एकता बनाने में व्यतीत हो गया । लेकिन दोनों तरफ के कट्टरवादियों की नसों में फ़ैल चुका मवाद कभी साफ नहीं हुआ। ध्यान रखिए पुलिस और सेना में जवान गरीब और निम्न मध्यवर्ग से आते हैं। कोई जमाना था कि हम सेना को धर्म निरपेक्ष और तटस्थ मान कर पूजते थे इसी तरह पुलिस पर भी ऐसा ही विश्वास हम बना कर चलते थे। लेकिन व्हाट्सएप मैसेजैस के जरिए मुगल राज और मुगल बादशाहों के बारे में जिस तरह से नफ़रत घर घर में पहुंचाई गई उसने क्या सेना और क्या पुलिस हर किसी को मुसलमानों के खिलाफ और हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में गम्भीरता से सोचने को मजबूर कर दिया। मोदी को इन सब चीजों से निदान दिला कर सफल हिंदू राष्ट्र स्थापित करने वाला महानायक घोषित किया गया। गुजरात का लेवल और मजबूत किया गया। इस तरह गरीब जनता की सोच को इकतरफा बनाया गया। दरअसल, मोदी ने जो खेल खेला है वह बड़ा खतरनाक है। वह कितना खतरनाक है यह हम मोदी को अनुपस्थित करके देख सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो इस खतरनाक अवस्था को सम्भालने के लिए हम कितने तैयार होंगे। लेकिन जब एक तरफ कुआं है और दूसरी तरफ खाई तो हमें वह कदम तो उठाना ही होगा जिसे हम सम्भाल सकें । यह कदम 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी को शिकस्त के रूप में हो सकता है। सुहास पलसीकर की चिंता को इस तरह समझा जा सकता है। मोदी क्यों जीतते रहे हैं क्योंकि उनका वोटर ‘इंटेक्ट’ है इसलिए कि वह जिंदगी को लेकर बेपरवाह है, जितना आलसी है उतना लालची है। नागरिकता, लोकतंत्र और संविधान के प्रश्नों पर वह शून्य है। वह अपनी उसी पहली छवि के साथ जीने में संतुष्ट रहना चाहता है जो उसने मोदी को देश के उद्धारक और महानायक के रूप में अंकित होती देखी थी और जिसे बाद में वह भगवान मानने लगा था। वह आज भी कहीं से छितराया नहीं है। दूसरा खाता पीता वर्ग तमाम परेशानियों के बावजूद मुसलमानों से निजात का स्वप्न देखता है मोदी को बुरा भला कहते हुए भी कटिबद्ध है कि वोट मोदी को ही देगा। शेष बुद्धिजीवियों का भारत गंभीर चर्चाओं और विचार विमर्श में दिन रात खुद को खपाए रहता है। वह वोट देता भी है और नहीं भी। कभी कभी वह वोट इसलिए भी नहीं देता कि वह बीजेपी की ट्रोल आर्मी के द्वारा फैलाए गये जुमले पर विश्वास कर लेता है कि,’आएगा तो मोदी ही’। यही राज है कम वोट से मोदी के जीतने का । इस तकनीक से मोदी सफल भले हो रहे हैं पर संतुष्ट नहीं। बीच बीच में कर्नाटक की हार जैसे झटके। फिर भी मोदी ने देश की जनता को विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव के मुद्दों में भेद करना सिखा दिया है। इसीलिए पाखंड की मेहनत उनकी हमेशा रंग लाती है।
तो सवाल है रास्ता क्या है। हमारे मित्र विजय त्रिवेदी ने भी पिछला लेख पढ़ कर यही सवाल किया था कि लेख बहुत अच्छा है पर रास्ता क्या है, वह भी बताएं। मैं देश को गरीब गांव वर्धा की नजर से देखता हूं। मैं जो कुछ दो चार बातें देख और समझ पाता हूं उसे यहां रख सकता हूं। पहली, सबसे पहले असंगठित क्षेत्र की सोच की दिशा में बदलाव लाया जाए । हमारे प्रबुद्ध लोग और राजनीतिक दलों के लोग उन्हें उनके भ्रम से निकाल कर यानी उनके दिमागों पर चढ़ा मोदी नाम का चश्मा हटा कर सच्चाई से वाकिफ करें। किसी प्रकार यह वर्ग गोदी मीडिया से बेरुख होकर अखबारों के मोटे मोटे शीर्षक पढ़ने की भी आदत डाल सके । पर कौन से अखबार यह भी सुनिश्चित करना होगा। दूसरे अर्थों में यह वर्ग मोदी से अलग होकर और खामख्याली से अलग होकर संगठित हो ।
दूसरा, मोदी की पार्टी के भीतर और बाहर की तानाशाही के खिलाफ यदि पार्टी के भीतर से ही जोरदार आवाज (विद्रोह के रूप में) निकले तो अलग माहौल की संभावना बनती है। यों, पार्टी के भीतर कसमसाहट शुरु हुई है। खासतौर पर महिला पहलवानों के मुद्दे पर।
तीसरा, चुनाव से पहले और बहुत पहले होने वाले आंदोलनों को देख कर हम सब बहुत खुश हो जाते हैं। और मान कर चलते हैं कि इसका निश्चित असर चुनावों पर होगा लेकिन चुनाव आते ही मोदी चतुराई से अपने लिए रास्ते साफ़ कर लिया करते हैं। किसान आंदोलन का हश्र हमने देखा। लखीमपुर खीरी में जो हुआ वह हमने देखा। इस बार ऐसा न हो । महिला पहलवानों के आंदोलन के दिन गिने चुने लगते हैं क्योंकि खबरें हैं कि जल्दी ही बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। लेकिन कोई ऐसा आंदोलन सामाजिक स्तर पर फिर खड़ा किया जाए जिसका पूरे देश में व्यापक असर हो और वह चुनाव तक भी तमाम आश्वासनों के बाद भी न वापस लिया जाए। इस अंतिम पंक्ति को एक बार फिर पढ़िए और शेष के लिए इंतजार कीजिए।
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