झारखंड में मोदी लहर ने जमकर काम किया. नतीजतन, भाजपा को सबसे अधिक सीटें मिलीं. लोकसभा चुनाव के दौरान जितनी विधानसभा सीटों पर भाजपा को बढ़त मिली थी, उसे वह इस विधानसभा चुनाव के दौरान जीत में तब्दील नहीं कर सकी. लोकसभा चुनाव में भाजपा को 56 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी, जो विधानसभा चुनाव में 37 सीटों पर आकर ठहर गई. झामुमो ने लोकसभा चुनाव में नौ विधानसभा सीटों पर बढ़त बनाई थी, जो विधानसभा चुनाव में बढ़कर 19 हो गई. इसी तरह कांग्रेस ने तीन की जगह दोगुनी सीटें हासिल कीं. इसके साथ ही संपूर्ण विकास और पूर्ण बहुमत के नारे ने भी काम किया. जनता गठबंधन से त्रस्त थी, इसलिए अधिकतर सीटें भाजपा को मिलीं. जनता विकास के लिए तरस रही है, इसलिए इस बार चुनाव से पहले ही भाजपा की सरकार तय मानी जा रही थी. केंद्र में भाजपा की सरकार ने असर दिखाया. मोदी और अमित शाह के आक्रामक प्रचार ने भाजपा को अधिक सीटें दिलाने में मदद की. अधिकतर युवाओं ने भाजपा को वोट दिया. युवाओं ने तय किया कि छोटे मुद्दों से परे हटकर संपूर्ण विकास की बात होनी चाहिए. भाजपा ने यहां विकास का ही नारा दिया था, क्योंकि बिहार से अलग होने के बाद से झारखंड पिछड़ा हुआ है. राज्य की विकास दर 7 से 8 फ़ीसद है, लेकिन योजना आयोग के मुताबिक, देश के जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी स़िर्फ 1.72 फ़ीसद है. क़रीब 35 लाख परिवार ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं. जबकि छत्तीसगढ़ की तरह झारखंड भी प्राकृतिक संसाधनों के मामले में खासा समृद्ध है.
14 वर्षों के इतिहास में झारखंड में कभी स्पष्ट बहुमत वाली सरकार नहीं रही. इस दौरान राज्य को नौ मुख्यमंत्री मिले और तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा. निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा तक मुख्यमंत्री बने. क़रीब साढ़ेे नौ वर्षों तक भाजपा के ही मुख्यमंत्री रहे, लेकिन दूसरे दलों के समर्थन से. भाजपा ने इस बार स्थिर सरकार का नारा दिया था. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 18 सीटें मिली थीं, लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से 12 सीटें जीत लीं. 56 विधानसभा क्षेत्रों में उसे बढ़त मिली. विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के साथ गठबंधन किया था. आजसू ने पिछली बार पांच सीटें जीती थीं. भाजपा ने इस बार उसे आठ सीटें लड़ने के लिए दीं. बदले में आजसू ने भाजपा उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार नहीं उतारे. इससे पिछड़े वर्गों के वोट नहीं कटे. सभी दलों के लिए सबक यही है कि वे विकास के नारे पर ही चुनाव जीत सकते हैं. नई सरकार को अब राज्य के प्राकृतिक संसाधनों में व्याप्त बदइंतजामी ख़त्म करनी होगी, रोज़गार के अवसर पैदा करने होंगे, क्योंकि राज्य की क़रीब आधी आबादी ग़रीब है. झारखंड मुक्ति मोर्चा स़िर्फ राज्य के गठन का श्रेय लेता रहा. उसने भ्रष्टाचार कम करने और राज्य को संवारने के बारे में नहीं सोचा. झामुमो ने पिछले पांच साल भाजपा और कांग्रेस दोनों के समर्थन से सरकार चलाई. इस वजह से अपना रुख साफ़ नहीं कर पाई कि वह आख़िर किस विचारधारा के साथ है. जेवीएम से गठबंधन की चर्चा हुई, लेकिन पार्टी प्रमुख बाबूलाल मरांडी ने सीधे मना कर दिया था. इसलिए भाजपा के पास केवल एक विकल्प आजसू था.
हेमंत सोरेन ने 14 माह बनाम 14 साल का नारा दिया था, लेकिन उसकी हवा निकल गई. हेमंत सोरेन के लिए सबसे बड़ा झटका दुमका में उनकी पराजय रही. दुमका झामुमो का परंपरागत गढ़ रहा है, जहां भाजपा की डॉ. लुईस मरांडी के हाथों हेमंत सोरेन को हार का सामना करना पड़ा. भाजपा से समर्थन वापस लेकर अपनी सरकार बनाने में सफल हुए हेमंत सोरेन चुनाव में कोई फ़ायदा नहीं उठा पाए. विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा को सीटों के लिहाज से भी कोई लाभ नहीं हुआ. ग़ौरतलब है कि हेमंत ने चुनाव प्रचार के दौरान सबसे ज़्यादा वक्त दुमका और उसके आसपास के क्षेत्रों में दिया था. हेमंत को उम्मीद थी कि उन्हें विधानसभा चुनाव में कांग्रेस समेत अन्य दलों का साथ मिलेगा, जो सरकार बनाने में मददगार थे. कांग्रेस के इंकार से यह भ्रम टूट गया और झामुमो का परंपरागत किला संथाल परगना भी हेमंत सोरेन बचा नहीं सके. यहां पार्टी के कई दिग्गज नेता चुनाव हार गए, जबकि भाजपा ने आश्चर्यजनक रूप से जीत हासिल की.