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देश भर की नज़रें इन दिनों छात्र राजनीति की ओर हैं. हर जगह विश्‍वविद्यालयों में छात्रसंघों को बहाल करने की मांग अचानक तेज हो गई है. लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद देश के अधिकांश विश्‍वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों पर रोक लग गई थी. छात्र लगातार छात्रसंघ चुनाव कराने की मांग करते रहे, लेकिन सरकारों पर उसका कोई असर नहीं हुआ. लेकिन, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत का सीधा असर छात्र राजनीति में दिखाई देने लगा. क्षेत्रीय राजनीतिक दल एक बार फिर से अपनी जड़ें छात्र राजनीति में तलाशने लगे हैं.

आज़ादी के बाद देश में जो भी राजनीतिक बदलाव हुए, उनमें छात्र राजनीति का अहम योगदान था. साठ और सत्तर के दशक में
बीजू पटनायक, ज्योति बसु, चौधरी चरण सिंह, महामाया प्रसाद सिन्हा जैसे कई लोगों ने छात्र राजनीति के बल पर ही देश के राजनीतिक पटल पर अपनी पहचान बनाई. महामाया प्रसाद सिन्हा छात्रों को अपने जिगर का टुकड़ा बताकर बिहार के लौह पुरुष कहलाने केबी सहाय को हराकर बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. इसके बाद आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन से लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, शरद यादव जैसे नेताओं का उदय हुआ. लेकिन, आज परिस्थितियां बदल गई हैं. देश के युवाओं को मोदी के पाले में खड़ा देखकर इन पूर्व छात्रनेताओं को छटपटाहट हो रही है. सभी अपना राजनीतिक भविष्य एक बार फिर से छात्र राजनीति में तलाश रहे हैं.
लोकसभा चुनाव के बाद देश में खासकर, उत्तर प्रदेश में छात्रों की पूछ-परख बढ़ गई है. मायावती ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में प्रदेश में छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगा दी थी. यह रोक अखिलेश के दौर में भी जारी है, जो युवाओं के समर्थन की बदौलत साल 2012 में विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करके प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे. अखिलेश ने चुनाव के दौरान युवाओं से जो वादे किए थे, उन्हें वह पूरा नहीं कर सके और युवाओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. वादों के अनुरूप उत्तर प्रदेश में न तो नए उद्योग लगे, न युवाओं को रोज़गार मिल सका. बेरोज़गारी भत्ता देने में भी कई तरह की नुक्ताचीनी की गई. इसलिए उन्हीं युवाओं को 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी रास आ गए. युवाओं ने धर्म, जाति एवं संप्रदाय को परे रखकर विकास और रोज़गार के नाम पर मोदी के पक्ष में वोट दिया और प्रदेश में भाजपा को 73 सीटों पर विजय दिलाई. समाजवादी पार्टी 5 सीटों पर सिमट कर रह गई और बहुजन समाज पार्टी के खाते में एक भी सीट नहीं आई.
ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के सभी विश्‍वविद्यालयों एवं डिग्री कॉलेजों में छात्रसंघ चुनावों को लेकर तमाम तरह के आंदोलनों के चलते पिछले काफी समय से अराजकता फैली हुई है. हाल में बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय में छात्रों और विश्‍वविद्यालय प्रशासन के बीच हुआ संघर्ष भी इसी की एक कड़ी है. बनारस में छात्र छात्रसंघ चुनाव की मांग को लेकर छात्र परिषद चुनाव का बहिष्कार कर रहे थे. वे छात्र परिषद की बजाय छात्रसंघ का चुनाव चाहते थे. बनारस प्रकरण के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी विश्‍वविद्यालयों एवं डिग्री कॉलेजों में छात्रसंघ का चुनाव कराने के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं. बीते 24 नवंबर को सरकार ने प्रदेश के विभिन्न विश्‍वविद्यालयों के कुलपतियों को बुलाकर लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुसार चुनाव की तैयारियों का ब्यौरा तलब किया. कुलपतियों से कहा गया है कि वे लिंगदोह समिति के अनुसार वर्गीकरण कर लें और उसके हिसाब से दूसरे राज्यों में अपनाए गए वर्गीकरण और सिद्धांतों का अध्ययन करके उन्हें उत्तर प्रदेश में लागू करें.
छात्र राजनीति को राष्ट्रीय राजनीति की नर्सरी कहा जाता है. इन नर्सरियों से गुजर कर छात्र राज्य और देश की राजनीति की मुख्य धारा में आ जाते हैं. चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को सक्रिय कार्यकर्ता छात्र राजनीति से ही मिलते हैं. देश के कई बड़े नेता छात्र राजनीति के रास्ते ही राष्ट्रीय राजनीति में आए हैं. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के प्रचलन में आने के बाद युवाओं की राजनीतिक विषयों में दिलचस्पी बढ़ी है. खासकर, विश्‍वद्यालयों में पढ़ने वाले युवा अब खुलकर राजनीतिक विषयों पर राय रख रहे हैं. इस वजह से हर जगह छात्रसंघों को बहाल करने के लिए मांगें उठ रही हैं. हाल में संपन्न हुए इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों ने जोर लगाया. अध्यक्ष पद पर समाजवादी छात्र युवजन सभा के भूपेंद्र यादव ने जीत दर्ज की. यहां भी व्हाट्स ऐप और फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म का चुनाव प्रचार में जोर-शोर से इस्तेमाल हुआ.
लखनऊ विश्‍वविद्यालय के छात्र एवं नेशनल एसोसिएशन ऑफ यूथ के अध्यक्ष भावेश पांडेय का कहना है कि उत्तर प्रदेश में छात्र राजनीति पर अचानक ध्यान केंद्रित होने की वजह 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं. इसलिए प्रदेश में जिन जगहों पर छात्रसंघ चुनाव हो रहे हैं, वहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बड़े पदाधिकारी सीधे तौर पर नज़र रख रहे हैं और समर्थन भी कर रहे हैं. उन्हें मालूम है कि आज इनका समर्थन करने पर उन्हें 2017 के चुनाव के लिए मेन-पॉवर मिल जाएगी, जो अपना भविष्य राजनीति में देखते हुए जी-जान से पार्टी के प्रचार में लग जाएगी. पार्टियों का रुख विश्‍वविद्यालयों में रचनात्मकता लाना कतई नहीं है. लोकसभा चुनाव के बाद सपा पदाधिकारियों के क़रीबी लोग एवं कार्यकर्ता अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भाजपा की ओर रुख करने लगे थे. इसलिए सपा और अन्य पार्टियों के कार्यकर्ताओं की ओर से छात्रसंघ चुनाव कराने की मांग तेजी से उठने लगी.
समाजवादी छात्र युवजन सभा इलाहाबाद के अध्यक्ष अखिलेश गुप्ता ने कहा, साल 2012 में सपा को विधानसभा चुनाव में जीत दिलाने वाला युवा भटक गया था, लेकिन अब उसे अपनी भूल समझ में आ रही है. प्रदेश में अब विश्‍वविद्यालयों और डिग्री कॉलजों में चुनाव होने जा रहे हैं. इससे छात्रों में एक नई ऊर्जा आ गई है. उन्होंने बताया कि प्रदेश में अब तक जहां-जहां चुनाव हुए हैं, उनमें से अधिकांश जगहों पर समाजवादी छात्र युवजन सभा के उम्मीदवार जीते हैं. इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष और महासचिव पद पर जीत हासिल करने वाले छात्रनेताओं ने जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मुलाक़ात की, तो उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने चुनाव में जीत हासिल की है, वे छात्रों का भविष्य बन गए हैं. उनका भविष्य भी
समाजवादी पार्टी के लिए समर्पण से काम करने पर उज्जवल होगा. यदि आप छात्रों के हित में काम करेंगे, तो उनका और युवाओं का रुझान समाजवादी पार्टी की ओर बढ़ेगा.
झारखंड विधानसभा चुनाव में मार्क्सवादी समन्वय समिति के लिए काम कर रहे झरिया स्थित आरएसपी कॉलेज के पूर्व छात्रनेता रूदल पासवान ने बताया कि दूसरी पार्टियों की युवाओं के बीच पकड़ कमजोर हुई है. इसका सीधा कारण छात्रसंघों का चुनाव न होना है. कॉलेजों में पढ़ने वाले 85 प्रतिशत युवा 24 घंटे सूचनाओं से जुड़े रहते हैं. अब आप उन्हें बेवकूफ नहीं बना सकते. स्वाभाविक है कि उनका रुझान उनके हितों की बात करने वाले की ओर होगा. फिलहाल युवा वर्ग मोदी को चाह रहा है, इसलिए दूूसरे राजनीतिक दल छात्रसंघों को बहाल करके युवाओं के बीच फिर से पकड़ बनाना चाहते हैं.
फिलहाल, जो राजनीतिक पार्टियां छात्रसंघों की पुनर्स्थापना के लिए प्रयासरत दिख रही हैं, उनकी साख पहले ही ख़त्म हो चुकी है. वे अब भी सत्तर के दशक की राजनीतिक विचारधारा को लेकर आगे बढ़ना चाहती हैं, लेकिन देश का युवा उससे कहीं आगे निकल गया है. उसके तौर-तरीकों में खासा बदलाव आ गया है. अब उसे बरगला कर अपने पाले में लाना संभव नहीं है. इसके लिए राजनीतिक पार्टियों को युवाओं के स्तर पर आना पड़ेगा. इस मामले में भाजपा दूसरी पार्टियों की तुलना में कहीं आगे निकल चुकी है. फिलहाल उसे पकड़ पाना दूर की कौड़ी नज़र आ रहा है.

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