जम्मू और कश्मीर इस वक्तगंभीर राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है. मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के साथ ही पीडीपी (पीपुुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी) ने उनकी पुत्री और पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नामांकित किया और उनके सहयोगी दल भाजपा ने भी उन्हें बतौर मुख्यमंत्री स्वीकार करने का फैसला किया है. लेकिन महबूबा के तत्काल मुख्यमंत्री पद नहीं संभालने के कारण राज्य में राज्यपाल शासन लागू करना पड़ा. फिलहाल महबूबा मुफ्ती राज्य की एकमात्र नेता हैं जो मौजूदा राजनीतिक संकट को खत्म कर सकती हैं लेकिन वह इस मामले में जल्दबाजी में कदम नहीं उठा रही हैं.
लेकिन यहां सवाल उठता है कि आखिर महबूबा मुफ्ती उस भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने से क्यों कतरा रही हैं. जिसे नौ महीने पहले उनके पिता ने खुशी-खुशी गले लगाया था. हक़ीकत यह है कि एक 1 मार्च, 2015 को पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार के बनते ही दोनों पार्टियों के बीच के वैचारिक मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे.
पीडीपी ने चुनाव प्रचार के दौरान और उसके बाद आम जनता से जो वादे किए थे उनमें राजनीतिक कैदियों की रिहाई, राज्य में लागू आर्म फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट (आफस्पा) की समाप्ति, नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी) के दायरे से जम्मू-कश्मीर की जल ऊर्जा परियोजनाओं की वापसी, कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अलगाववादियों के साथ बातचीत, सितंबर 2014 की बाढ़ से प्रभावित कश्मीरियों के पुनर्वास जैसे मुद्दे शामिल थे. लेकिन सरकार के गठन के बाद भाजपा ने पीडीपी को इन तमाम वादों को पूरा करने से रोक दिया.
सरकार बनने के केवल एक सप्ताह बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने राजनीतिक कैदियों की रिहाई का सिलसिला शुरू करते हुए एक बड़े अलगाववादी नेता मसरत आलम को जेल से रिहा कर दिया था. लेकिन भाजपा ने श्रीनगर से दिल्ली तक इस तरह का बवाल मचाया कि मुफ्ती को दोबारा मसरत आलम को गिरफ्तार करवाना पड़ा. उसी तरह भाजपा ने हुर्रियत को बातचीत में शामिल करने से इंकार कर दिया और आफस्पा को हटाने के मुद्दे पर भी यही रुख कायम रखा.
दरअसल, भाजपा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद को जनता से किए उनके वादों को पूरा करने से रोक दिया. साथ ही भाजपा ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली संविधान की धारा-370 को खत्म करने का मुद्दा बार-बार उठाने और बीफ पर पाबंदी लगाने जैसी मांगों को लेकर मुफ्ती और उनकी पार्टी की स्थिति को कश्मीरी जनता की नज़रों में हास्यास्पद बना दिया. यहां तक कि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर के अपने झंडे का सम्मान करने से इंकार करके पीडीपी के लिए असमंजस की स्थिति पैदा कर दी.
मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने एक सर्कुलर जारी करके सभी मंत्रियों-अधिकारियों को यह हिदायत दी थी कि संविधान के प्रावधानों को पूरा करते हुए राष्ट्रीय झंडे की तरह जम्मू-कश्मीर के झंडे का भी सम्मान करें. लेकिन भाजपा ने मुफ्ती पर इतना दबाव डाला कि उन्हें चौबीस घंटे के अंदर अपने इस निर्देश को वापस लेना पड़ा. नतीजतन, कश्मीर की जनता के बीच पीडीपी की छवि पर बुरा असर पड़ा.
पीडीपी पर खुलेआम आरएसएस और भाजपा को राज्य की सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने और राज्य में कट्टरपंथी पार्टियों के मंसूबों को पूरा करने में सहायक बनने के आरोप भी लगे. पीडीपी के एक वरिष्ठ नेता ने चौथी दुनिया को बताया कि मुफ्ती के निधन के बाद पार्टी नेतृत्व ने पिछले नौ महीने की गठबंधन सरकार के कार्यों की समीक्षा की और यह महसूस किया कि भाजपा की ज़िद और हठधर्मिता की वजह से पीडीपी अपने किसी भी चुनावी वादों को पूरा करने में नाकाम हो गई है. यही वजह है कि इस सरकार को बनाए रखने में हम हिचकिचा रहे हैं.
उस नेता कहा कि चुनाव के दौरान जनता ने हमें सिर-आंखों पर बैठाया था. हमें घाटी में 28 सीटें हासिल हुई थीं लेकिन अब हमारी लोकप्रियता का ग्राफ इतना नीचे चला गया है कि मुफ्ती साहब के जनाजे में महज़ दो हज़ार लोग शामिल हुए. इतना ही नहीं मुफ्ती साहब के निधन पर उनके पुश्तैनी गांव बिजबिहाड़ा के स्थानीय दुकानदारों ने उनके शोक में अपनी दुकानें भी बंद करने की जरूरत महसूस नहीं की. इसके उलट कुछ दिनों पहले घाटी में जब भी कोई आतंकवादी मारा गया तब लोग हजारों की संख्या में उनके जनाजों में शामिल हुए. इससे साफ पता चलता है कि भाजपा के साथ गठबंधन करने से हमारी लोकप्रियता में गिरावट हुई है.
पीडीपी के एक अन्य वरिष्ठ नेता और सांसद तारिक हमीद कर्रा ने चौथी दुनिया से बातचीत में कहा कि पीडीपी को भाजपा के साथ तत्काल अपने रिश्ते खत्म कर देना चाहिए. उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी की गठबंधन सरकार बनने के साथ ही भाजपा ने अपने सांप्रदायिक एजेंडे को पूरा करने की शुरूआत की. यहां तक कि भाजपा हमें यह बताने की कोशिश कर रही है कि हमें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं. आज वह लोग इस मुस्लिम बाहुल्य राज्य में बीफ पर पाबंदी लगवाना चाहते हैं.
अगर कल भाजपा हमें यह निर्देश देना शुरू कर दे कि हमें किस तरह का लिबाज पहनना चाहिए तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होगा. इसलिए मैं चाहता हूं कि इससे पहले कि लोग हमसे नफरत करने लगें, पीडीपी को अपनी साख बचाने के लिए भाजपा से रिश्ता तोड़ देना चाहिए और राज्य की सेकुलर पार्टियों के साथ मिलकर राज्य की सरकार बनाने की कोशिश करनी चाहिए.
राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि महबूबा मुफ्ती के लिए भाजपा का साथ छोड़ना इस लिहाज से भी आसान नहीं होगा क्योंकि तब उन्हें यह कहना पड़ेगा कि उनके दिवंगत पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भाजपा के साथ गठबंधन करके गलती की थी. दूसरी बात यह कि सरकार गिर जाने के बाद यदि दोबारा चुनाव होते हैं तो पीडीपी के लिए इतनी सीटें हासिल करना संभव नहीं होगा क्योंकि आज उसकी लोकप्रियता पहले जैसी नहीं है. यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यदि नए चुनाव हुए, तो अगली सरकार पीडीपी की नहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस की बनेगी.
वरिष्ठ पत्रकार सिब्त मोहम्मद हसन कहते हैं कि पीडीपी के पास भाजपा के साथ सरकार बनाने के अलावा और कोई चारा शेष नहीं है. यदि कांग्रेस पीडीपी का समर्थन करने के लिए राजी भी हो जाए तब भी सरकार बनाने के लिए आवश्यक 44 सीटें उसे हासिल नहीं होंगी. भाजपा का साथ छोड़ने का सीधा मतलब यह होगा कि राज्य में नए चुनाव होंेगे, जिसमें पीडीपी की हार निश्चित है, लेकिन सिब्त मोहम्मद हसन का मानना है कि महबूबा मुफ्ती इस वक्त भाजपा को दबाव में लाकर उससे यह वादा लेने की स्थिति में है कि वह आगे से ऐसी कोई हरकत नहीं करेगी जिसकी वजह से उनकी राजनीतिक साख और खराब हो.
शायद यही वजह है कि महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने में जल्दबाजी नहीं दिखा रही हैं. यदि वह भाजपा से अपनी कुछ मांगे मनवाने में कामयाब हो जाती हैं तो उनकी लोकप्रियता कुछ हद तक बहाल हो सकती है, लेकिन अब देखना यह है कि महबूबा मुफ्ती ऐसा क्या करती हैं जिसके परिणाम स्वरूप पीडीपी-भाजपा गठबंधन की सरकार भी बन जाए और पीडीपी की साख भी लोगों के बीच बहाल हो जाए. यही महबूबा मुफ्ती के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.