2016 में हुए चुनाव के नतीजों को अभी पूरी तरह से समझा भी नहीं गया था कि अगले साल के चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है. यह चुनाव किसी छोटे राज्य में नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में हो रहे हैं, जहां 403 विधानसभा और 80 लोकसभा सीटें हैं. बिहार के साथ यह राज्य देश की राजनीति पर हावी होने की क्षमता रखता है. दरअसल कांग्रेस ने इन दो राज्यों पर क़ब्ज़ा कर पूरे देश पर लंबे समय तक शासन किया है.
लेकिन कांग्रेस ने सियासी चाल के तहत देश के दो सबसे बड़े राज्यों को पिछड़ा बनाए रखा. यदि जातिवाद बिहार व उत्तर प्रदेश में राजनीति का अहम हिस्सा है तो इसकी वजह यह है कि ये राज्य पंजाब, तमिलनाडू और महाराष्ट्र की गतिशीलता को नहीं पा सके हैं. जब कांग्रेस ने दूसरी पार्टियों को सत्ता सौंपी तो अन्य पार्टियों ने भी उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन को और मजबूती देने का ही काम किया. बिहार इन मायनों में सौभाग्यशाली है कि उसे दस साल का एनडीए का कार्यकाल मिला. अब बिहार भी पुराने जातिवादी राजनीति शैली में चला गया है. जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो बारी-बारी से सत्ता संभालने वाली भाजपा, सपा और बसपा यहां के किसी समस्या का समाधान करने में विफल रही है. अब चार बीमारू राज्यों पर गौर करें तो केवल उत्तर प्रदेश में ही विकास कार्य नहीं हुए हैं.
चाहे मुजफ्फरनगर हो, दादरी या फिर आजमगढ़, उत्तर प्रदेश आज भी ऐसा राज्य है, जहां किसी भी मुद्दे पर साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठती है. बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में हजारों लोगों ने यहां से पलायन किया है. अपराध के मामले में भी यहां भयावह स्थिति है. दरअसल उत्तर प्रदेश और बिहार यदि प्रति व्यक्ति आय के मामले में राष्ट्रीय औसत को पा लें तो भारत दुनिया में आय के मामले में कई पायदान ऊपर चला जाएगा.
आगामी चुनाव भाजपा के लिए बहुत उम्मीदों भरे नहीं हैं. भाजपा उत्तर प्रदेश में अपने को विजेता के रूप में प्रोजेक्ट कर पा रही है क्योंकि उसने 2014 के आम चुनाव में राज्य के 80 लोक सभा सीटों में से 71 पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया था. लेकिन आम मतदाता राज्य के चुनाव में अलग तरीकों से सोचता और वोट देता है और लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों पर. हाल में बिहार और दिल्ली के चुनावों ने भी इसे साबित किया है. अन्य पार्टियों की तरह भाजपा भी यहां जाति और बिरादरी का गठजोड़ बिठाकर जीतने का फॉर्मूला तलाश रही है. कोई भी पार्टी उत्तर प्रदेश में आमूल-चूल बदलाव की बात नहीं कर रही है. कोई भी दल यहां सामाजिक संरचना को आधुनिकता की तरफ ले जाने और यहां की आय को राष्ट्रीय औसत तक ले जाने की बात नहीं कर रहा है. सभी दल अपने निजी स्वार्थ की इच्छापूर्ति के लिए सत्ता में हिस्सेदारी चाहते हैं.
चूंकि इस चुनाव में किसी नए विचार या किसी नई नीति की घोषणा नहीं होगी (और यदि होती भी है तो उसे लागू नहीं किया जाएगा), कोई भी अनमने ढंग से ही जीतने वाले की निशानदेही करेगा. इस राज्य में सपा, बसपा और भाजपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला होगा. कांग्रेस सत्ता पाने की कोशिश में जुटी है, पर नाकाम रहेगी. उसी तरह जदयू भी उत्तरप्रदेश में अपना दायरा नहीं बढ़ा पाएगी.
चूंकि इन दलों की बुनियादी सोच में कोई खास वैचारिक अंतर नहीं है, इसलिए यहां व्यक्तिवाद और जातिवाद का बोलबाला रहना तय है. अगर इस चुनाव के संदर्भ में कोई भविष्यवाणी करनी हो तो यह कहा जा सकता है कि यहां किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा. लेकिन सरकार बनाने के लिए तीन मुख्य दावेदारों में से किसी दो को मिलकर गठबंधन बनाना ही एकमात्र विकल्प होगा. पिछले कुछ चुनावों से सपा और बसपा बारी-बारी से सत्ता में रही है. भाजपा इन चुनावों में अहम दावेदारी पेश करने की उम्मीद कर रही है. यह तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है. अब दांव इस पर लगना तय है कि सपा और बसपा में से कौन भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाएगा.
यह बहुत दुखद स्थिति है. इस चुनावी प्रकिया से अधिक उम्मीद नहीं रखी जा सकती है. दरअसल भारतीय राजनीति ने उत्तर प्रदेश को हमेशा पीछे धकेला है. यह राज्य लंबे समय तक अलग-अलग पार्टियों के कुशासन का शिकार रहा है. दूसरी बात यह कि यह एक बहुत बड़ा राज्य है. इसे दो हिस्सों में बांट देना चाहिए, जैसा कि राज्य पुनर्गठन आयोग ने अपनी 1955 की रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी. यहां उत्तराखंड को छोड़कर किसी भी क्षेत्र को अलग पहचान देने की कोशिश नहीं की गई. हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि बुंदेलखंड और पूर्वांचल, छत्तीसगढ़ की तरह बेहतर विकास कर सकते हैं.
लेकिन उन 80 लोकसभा सीटों के आकर्षण की वजह से यूपी को नुकसान उठाना पड़ रहा है. इतने बड़े इनाम को कोई भी राजनीतिक दल महज सुशासन के लिए कैसे छोड़ सकता है?