mayawatiउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हमेशा देश का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव रहा है. यहां अलग-अलग चुनावी समीकरण बन रहे हैं. मायावती क्या फिर से वापस आ पाएंगी? समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन को क्या बहुमत मिलेगा? भारतीय जनता पार्टी लोकसभा की तरह उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन करेगी? मुस्लिम वोटबैंक का क्या होगा? असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का चुनाव पर क्या असर होगा? ऐसे कई सवाल हैं, जो उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे पर असर डालेंगे. उत्तर प्रदेश का चुनाव जटिलतम होने के साथ-साथ भविष्य की राजनीति का रास्ता निर्धारित करने वाला साबित होगा. विजेता कौन होगा, यह तो नतीजा आने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन हर कोई यह जानने के लिए उत्सुक है कि चुनाव का नतीजा आख़िर होगा क्या? उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले कुछ महीनों में काफी उठापटक हुई है. समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह, बसपा के कई नेताओं का पार्टी छोड़ना, कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने के लिए राहुल की पहल, साथ ही भारतीय जनता पार्टी के अंदर नेताओं के बीच घमासान आदि जैसी घटनाओं ने उत्तर प्रदेश के चुनाव को और भी रोचक बना दिया है.

चुनाव से पहले मीडिया द्वारा प्रसारित एवं प्रचारित चुनावी सर्वे ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है. हर नया सर्वे एक नए पैंतरे के साथ लोगों को भ्रमित करने में सफल रहा है. हैरानी तो यह है कि हर सर्वे के नतीजे अलग-अलग हैं. कोई सर्वे मायावती की सरकार बना रहा है, तो कोई यह दावा कर रहा है कि अखिलेश यादव फिर से मुख्यमंत्री बन जाएंगे. कुछ सर्वे ऐसे भी हैं, जो भारतीय जनता पार्टी को बहुमत का दावा कर रहे हैं. अब अगर अलग-अलग सर्वे अलग-अलग नतीजे दे रहे हैं, तो इसका पहला मतलब तो यही है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने अभी तक यह फैसला नहीं लिया है कि वो किसकी सरकार बनाएंगे. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश की जनता का मूड क्या है? मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे कौन है? उत्तर प्रदेश में इस बार चुनाव का मुख्य मुद्दा क्या होगा? वर्तमान सरकार के कामकाज से जनता कितनी संतुष्ट है? ऐसे कई सवाल हैं, जिन पर जनता की राय जानने के लिए चौथी दुनिया ने उत्तर प्रदेश में एक सर्वे किया. इस सर्वे का मकसद ये जानना नहीं है कि किस पार्टी को कितना वोट मिलेगा और कितने सीटें आएंगी, बल्कि हमने अलग-अलग राजनीतिक मुद्दों पर जनता के मूड को समझने की कोशिश की है.

चौथी दुनिया का यह सर्वे 14 से 18 जनवरी, 2017 के बीच किया गया. इस दौरान हमारी टीम राज्य के अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं से मिली और उनसे विभिन्न मुद्दों से जुड़े सवाल-जवाब किए. मतदाताओं के जवाबों को ही हमने अपने सर्वे के आधारभूत आंकड़ों के रूप में इस्तेमाल किया. इसके अलावा पिछले चुनावों में मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न और चुनाव आयोग के आंकड़ों की भी मदद ली गई. सर्वे में सैंपल के लिए हमने मल्टीस्टेज स्ट्रेटीफाइड रैंडम सैंपलिंग तकनीक की मदद ली. सर्वे के दौरान हमने इस बात का खास ध्यान रखा कि राज्य के सभी हिस्सों के मतदाताओं के मिजाज को अहमियत मिले. इनमें महिलाएं, युवा, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग और सवर्ण आदि सभी शामिल थे. इस सर्वे में हमने हर लोकसभा क्षेत्र के दो विधानसभा में किया. मतलब यह कि इस सर्वे के लिए 160 विधानसभा क्षेत्रों में 16,000 लोगों से सवाल पूछे गए. सैंपल का साइज और तकनीक देखते हुए कहा जा सकता है कि यह सर्वे आम चुनावी सर्वे से ज़्यादा विश्वसनीय और तार्किक है.

हमने गहन विचार-विमर्श के बाद तय किया कि इस सर्वे में यह बताना उचित नहीं होगा कि किस पार्टी या गठबंधन को कितनी सीटें मिलेंगी. इसकी वजह यह है कि चुनाव में अभी काफी वक्त है. इस सर्वे के पीछे हमारा मकसद था, उत्तर प्रदेश की जनता का मिजाज यानी मूड का आकलन करने की कोशिश. इस सर्वे के ज़रिए हमने यह पता करने की कोशिश की है कि मूल राजनीतिक सवालों पर उत्तर प्रदेश की जनता क्या सोच रही है. इस सर्वे में यह समझने की कोशिश की गई है कि चुनाव से पहले हुई राजनीतिक उठापटक का जनता पर क्या असर पड़ा है. यह सर्वे उत्तर प्रदेश की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थति और वर्तमान घटनाओं पर जनता की समग्र राय प्रस्तुत करता है.

चौथी दुनिया के इस सर्वे के मुताबिक, आज के माहौल में मायावती उत्तर प्रदेश की पहली पसंद हैं. उनकी सीधी लड़ाई समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से है. उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई भी नेता नहीं है, जो इन दोनों के मुकाबले के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज करा सके. मायावती मुख्यमंत्री की रेस में सबसे आगे हैं. उनके सबसे आगे होने की वजह उनकी एक सख्त प्रशासक की छवि है. उत्तर प्रदेश की जनता को लगता है कि यहां की सबसे बड़ी समस्या चरमराती कानून-व्यवस्था है. लोग चाहते हैं कि अगली सरकार ऐसी हो, जो कानून-व्यवस्था को दुरुस्त कर सके और इसके लिए उन्हें लगता है कि मायावती सबसे उपयुक्त हैं. मायावती के लिए अच्छी खबर यह है कि इस सर्वे के दौरान अल्पसंख्यकों का झुकाव बसपा की तरफ नजर आया. पश्चिम उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के दिमाग में आज भी मुजफ्फरनगर के दंगों की यादें ताजा हैं. उन्हें लगता है कि राज्य सरकार ने दंगों के दौरान सही तरीके से अपना दायित्व नहीं निभाया. यही वजह है कि इस सर्वे के दौरान ज्यादातर अल्पसंख्यकों ने मायावती के शासन में खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करने की बात मानी. मुख्यमंत्री का चेहरा, अल्पसंख्यकों का भरोसा, समाजवादी पार्टी की पारिवारिक कलह और नोटबंदी से फैली नाराजगी की वजह से उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और मायावती के लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल है.

यहां ये बताना जरूरी है कि सर्वे के दौरान लोग व्यक्तिगत रूप से अखिलेश यादव के कामकाज और व्यवहार से नाराज नहीं दिखे, लेकिन उनके सरकार के कामकाज को लेकर असंतुष्ट नजर आए. इस सर्वे से ये नतीजा निकला है कि समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ा नुकसान पारिवारिक कलह की वजह से हुई है. इस सर्वे के मुताबिक ज्यादातर लोगों को लगता है कि शिवपाल-अखिलेश की लड़ाई की वजह से समाजवादी पार्टी को काफी नुकसान होगा. हैरानी की बात ये है कि इस सर्वे में ज्यादातर लोग ये मानते हैं कि अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल यादव से लड़ाई कर के गलती की है. अखिलेश यादव के शासनकाल की सबसे बड़ी कमी यह रही है कि वो राज्य में कानून-व्यवस्था को ठीक ढंग से चला नहीं सके. इस सर्वे के दौरान लोगों ने ये भी माना कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से समाजवादी पार्टी को फायदा होगा. अब ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या ये फायदा इतना बड़ा होगा कि चुनाव में मायावती को पीछे छोड़ सकें.

बिना किसी मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव में जाना भारतीय जनता पार्टी के लिए महंगा पड़ सकता है. भारतीय जनता पार्टी को नोटबंदी की वजह से फैली नाराजगी का भी शिकार होना पड़ सकता है. सर्वे के दौरान पता चला कि ग्रामीण इलाकों में नोट की कमी की वजह से लोगों को काफी परेशानी हुई और अब तक स्थिति नहीं सुधरी है, इसलिए यह नाराजगी चुनाव पर असर छोड़ सकती है. इस सर्वे में हमने मतदाताओं से कुल 10 सवाल पूछे. ऐसे सवाल, जिनका सीधा असर मतदान पर होता है. चौथी दुनिया के सर्वे का नतीजा आपके सामने है. कुछ दिनों के बाद इन नतीजों में क्या बदलाव होता है, उसके बारे में भी हम आपको अपनी वेबसाइट ुुु.लहर्रीींहळर्वीपळूर.लेा पर अपडेट करते रहेंगे.

मुख्यमंत्री की पहली पसंद कौन हैं?

जब हमने ये सवाल उत्तर प्रदेश की जनता से पूछा, तब ज्यादातर ने मुख्यमंत्री पद के लिए मायावती का नाम लिया. ऐसे लोगों का मानना था कि मायावती के शासन में अपराध पर नियंत्रण रहता है. इसके ठीक बाद, अखिलेश यादव का नाम लोगों ने लिया. चूंकि, भाजपा की तरफ से सीएम पद के लिए किसी को प्रोजेक्ट नहीं किया गया है, इसलिए भाजपा के नेताओं के नाम पर लोगों की राय बंटी हुई नजर आई. 11 फीसदी लोगों ने राजनाथ सिंह का नाम लिया, 7 फीसदी लोगों ने योगी आदित्यनाथ के नाम पर मुहर लगाई. अन्य में 15 फीसदी हैं, जिसमें भाजपा के ही केपी मौर्या, वरुण गांधी को नाम शामिल है. इसमें मुलायम सिंह, शिवपाल यादव, शीला दीक्षित के नाम भी शामिल हैं.

1. मायावती 38 प्रतिशत
2. अखिलेश 29 प्रतिशत
3. राजनाथ सिंह 11 प्रतिशत
4. योगी आदित्यनाथ 7 प्रतिशत
5. अन्य 15 प्रतिशत

क्या आप अखिलेश सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं?

इसके जवाब में लोगों ने माना कि वे अखिलेश यादव की सरकार से संतुष्ट नहीं हैं. जाहिर है, आमतौर पर लोग 5 साल होते-होते सरकार के कामकाज से असंतुष्ट हो ही जाते हैं. चुनाव से पूर्व समाजवादी पार्टी के भीतर जो तमाशा हुआ, उसे लेकर भी जनता का एक वर्ग नाखुश दिखा. इसका भी असर जवाब पर पड़ा. लोगों में असंतोष की भावना सर्वाधिक कानून और व्यवस्था के मोर्चे पर दिखी. लोगों ने कहा कि सरकार इस मोर्चे पर ठीक से काम नहीं कर सकी. वैसे भी उत्तर प्रदेश में एक आम धारणा है कि समाजवादी पार्टी की सरकार में गुंडागर्दी बढ़ जाती है. जिन 22 फीसदी लोगों ने अखिलेश सरकार के कामकाज के प्रति संतोष दिखाया, वे इस बात से खुश नजर आए कि अखिलेश सरकार ने सड़क आदि को बेहतर बनाने का काम किया और उनकी छवि एक स्वच्छ नेता की है. इनलोगों का मानना था कि अखिलेश यादव और भी बेहतर कर सकते थे, यदि वे अपनी सरकार के शुरुआती कार्यकाल में पार्टी के बड़े नेताओं के दबाव में नहीं आते.

हां 22%

नहीं 53%

पता नहीं 25%

इस चुनाव का मुख्य मुद्दा क्या है?

इस सवाल के जवाब में एक बार फिर यही तथ्य उभर कर सामने आया कि कानून-व्यवस्था यूपी का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. 32 फीसदी लोगों ने माना कि इस चुनाव में कानून व्यवस्था का मुद्दा ही हावी रहेगा. इसके बाद लोगों ने भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा माना. महंगाई 15 फीसदी के साथ तीसरे नंबर पर रही. दिलचस्प रूप से सिर्फ 11 फीसदी लोगों ने माना कि रोजगार चुनाव का मुख्य मुद्दा बनेगा. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई रोजगार कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जो चुनाव को प्रभावित कर सके. दरअसल, पिछले 15-20 साल में ऐसा हुआ है कि सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती गई है. केंद्र से लेकर राज्य सरकारों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं. सरकारी नौकरी पाना आज किसी महान उपलब्धि से कम नहीं है. ऐसे में समाज का एक बड़ा तबका यह मान कर चल रहा है कि रोजगार के लिए उसे खुद पर ही निर्भर रहना है, या तो प्राइवेट नौकरी करनी है या कोई स्वरोजगार करना है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह प्रवृति बढ़ी है. शायद इसी का नतीजा है कि अब आम आदमी सरकार से बहुत अधिक रोजगार की उम्मीद नहीं करते. इसके बाद सड़क और बिजली को क्रमश: 8 और 7 फीसदी लोगों का समर्थन मिला और दोनों को मिला दें तो यह रोजगार से अधिक होता है. यानी, यहां भी समझा जा सकता है कि लोग अब सड़क और बिजली मिल जाने को ही असल विकास मान रहे हैं.

क़ानून व्यवस्था  32%

भ्रष्टाचार 16%

महंगाई 15%

रोजगार 11%

सड़क 8%

बिजली 7%

अन्य 11%

किस पार्टी की सरकार में क़ानून व्यवस्था बेहतर होती है?

जब हमने लोगों से यह सवाल पूछा तो तकरीबन एक सुर में लोगों ने बहुजन समाज पार्टी का नाम लिया. 41 फीसदी के साथ बीएसपी पहले नंबर पर रही. बहुत हद तक यह सही भी है. उत्तर प्रदेश के लोगों के मन में यह आम धारणा है कि मायावती सत्ता में होती हैं, तो गुंडागर्दी खत्म हो जाती है. मायावती ने अपने फैसलों से इस बात को साबित भी किया है. अपने शासन के दौरान मायावती ने कई बाहुबली

नेताओं को जेल भेजा और उनकी हरकतों पर लगाम लगाया है. इसी का नतीजा रहा कि लोगों ने इस सवाल के जवाब में सबसे अधिक बसपा को पसंद किया.

बीएसपी 41%

भाजपा 29%

समाजवादी पार्टी 16%

कांग्रेस 3%

पता नहीं 11%

किसके शासन में अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस करते हैं?

यह सवाल सिर्फ अल्पसंख्यकों से पूछा गया था. इस सवाल के जवाब में 43 फीसदी लोगों ने माना कि बसपा के शासन में अल्पसंख्यक समुदाय सबसे अधिक सुरक्षित महसूस करता है. इसके पीछे उनका तर्क ये था कि जब राम जन्मभूमि विवाद पर हाई कोर्ट का फैसला आया था, तो यह अंदेशा था कि यूपी में माहौल खराब हो सकता है लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पूरे यूपी में एक पत्ता तक नहीं हिलने दिया था. यह भी उनके भरोसे की एक बड़ी वजह है. इन लोगों का ये भी मानना था कि बसपा के शासन में दंगे नहीं होते और अगर कोई ऐसी घटना हुई, तो उसे मायावती काफी कड़ाई से रोकती हैं. इसके बाद लोगों ने सपा को पसंद किया.

बीएसपी 43%

सपा 34%

भाजपा 3%

कांग्रेस 9%

अन्य 11%

क्या चुनाव में नोटबंदी का ़फायदा भाजपा को होगा?

इस सवाल के जवाब में 46 फीसदी लोगों ने माना कि फायदा नहीं होगा. खास बात ये रही कि ऐसा मानने वाले लोग ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे, जबकि जिन 23 फीसदी लोगों ने माना कि फायदा होगा, वे शहरी क्षेत्र से आते थे. यह सवाल भी कुछ इस तरह से था, जिसमें बड़ी संख्या यानी 31 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि फायदा होगा या नहीं. इन जवाबों से यह बात स्पष्ट हुई कि नोटबंदी का फायदा भाजपा को जिस स्तर पर होने की उम्मीद थी, वो शायद पूरी न हो पाए.

हां 23%

नहीं 46%

पता नहीं 31%

क्या शिवपाल यादव से लड़कर अखिलेश ने ग़लती की?

इसका जवाब काफी दिलचस्प रहा. 61 फीसदी लोगों ने माना कि हां अखिलेश ने गलती की और उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है. हालांकि, ऐसा मानने वाले लोगों के आयु समूह पर गौर किया जाए, तो 40 साल की उम्र से अधिक आयु के लोगों ने इस बात को माना कि अखिलेश ने गलती की. वहीं, युवा वर्ग में अधिकतर ऐसे लोग थे, जिन्होंने माना कि गलती नहीं की.

हां 61%

नहीं 17%

पता नहीं 22%

क्या पारिवारिक झगड़े से समाजवादी पार्टी को नुक़सान हुआ है?

यदि किसी राजनीतिक दल में आपसी झगड़े सार्वजनिक हो जाते हैं, तो यह हमेशा देखा गया है कि उस पार्टी को उसका नुकसान उठाना पड़ता है. हालिया दिनों में भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के आंतरिक झगड़े उभर कर लोगों के सामने आए थे. हालांकि पार्टी की हार के और भी दूसरे कारण थे, लेकिन इस झगड़े कीभी उसमें अहम्‌ भूमिका थी. लिहाज़ा इस सवाल के नतीजे में वही आंकड़े सामने आए, जो हमेशा से प्रासंगिक रहे हैं.

हां 68%

नहीं 11%

पता नहीं 21%

आप वोट देते समय इनमें से किसे प्राथमिकता देंगे?

41 फीसदी लोगों ने कहा कि वे मुख्यमंत्री का चेहरा देखकर मतदान करेंगे. यहां यह जवाब इसलिए महत्वपूर्ण है कि राज्य की सत्ता के तीन प्रमुख दावेदार पार्टियों में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार, तीसरे दावेदार भाजपा के राजनाथ और योगी आदित्यनाथ से बहुत आगे हैं. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि भाजपा ने उत्तरप्रदेश में किसी को भी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाया है. 27 फीसदी लोगों ने कहा कि वे पार्टी को देखकर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं. यह आंकड़ा इशारा करता है कि इस चुनाव में पार्टी का अपना वोट आधार भी चुनाव के नतीजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है. इस मामले में बसपा सबसे आगे दिख रही है. आम तौर पर यह देखा गया है कि चुनाव का क्रम जैसे-जैसे नीचे होता जाता है, उम्मीदवार का चेहरा उतना ही महत्वपूर्ण होता जाता है.

मुख्यमंत्री का चेहरा 41%

पार्टी 27%

उम्मीदवार 21%

अन्य 11%

क्या गठबंधन का फायदा समाजवादी पार्टी को होगा?

41 फीसदी भागीदारों ने यह माना कि कांग्रेस-सपा गठबंधन की वजह से सपा को फायदा हो सकता है. वहीं 32 फीसदी का यह मानना था कि इस गठबंधन का सपा को कोई लाभ नहीं मिलेगा. जबकि 27 फीसदी की कोई राय नहीं थी. यदि प्राप्त आंकड़ों से पिछले चुनाव के आंकड़ों की तुलना की जाए तो यह साफ हो जाता है कि निश्चित रूप से सपा को इस गठबंधन का फायदा होने वाला है. पिछले लोकसभा चुनाव में हालांकि कांग्रेस का वोट प्रतिशत कम हुआ था फिर भी उसे 8 प्रतिशत वोट मिले थे. यदि कांग्रेस के 8 प्रतिशत वोट सपा को मिल जाते हैं, तो निश्चित रूप से सपा को फायदा होगा. वहीं उत्तर प्रदेश में अपनी खोई हुई ज़मीन तलाश कर रही कांग्रेस को भी इसका फायदा मिल सकता है.

हां 41%

नहीं 32%

पता नहीं 27%

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