मनुस्मृति यह धर्मशास्त्र है ऐसा कहा गया है ! ‘श्रुतिस्तु वेदों विज्ञयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः’ श्रुती याने ‘वेद’ और स्मृति याने ‘धर्मशास्त्र’ यद्यपि वेदों में मनू का नाम मिलता है ! फिरभी वेदों के बाद बहुत समय बितनेपर स्मृति ग्रंथों का निर्माण हुआ मनुस्मृति इ. स. पूर्व 200 से इ. स. 200 के बीच लिखीं गयी ऐसा माना जाता है ! स्मृतिग्रंथ और स्मृतिकार अनेक हो गये ! किंतु मनुस्मृति सबसे अधिक महत्व रखती है ! विष्णु, पराशर, दक्ष, संवर्त, व्यास, हारित, शातापत, वशिष्ठ, आपस्तंभ, गौतम, देवल, शंख, लिखित, भारद्वाज, उशन, शौनक, याज्ञवल्क्य आदि, प्रख्यात स्मृतिकारोके नाम तथा वचन ‘मन्वर्थ’ ‘मुक्तावलि ‘नामक टीकामें पाये जाते हैं ! किन्तु परंपरा मनुकि स्मृतिको प्राचीनताकी दृष्टिसे सबसे प्राचीन मानति है ! जिस प्रकार गीता अनेक हुई, किन्तु ‘भगवद गीता’ अमर हुई ! और महाभारत के बाद पुराण अनेक हुये ! किन्तु ‘महाभारत ‘ अमर हुआ ! उसी तरह अन्य अनेक स्मृतियोंके होते हुए भी !

‘मनुस्मृति’ का अग्रस्थान कोई भी स्मृति छीन नही सकी ! आजतक मनुस्मृति हमारे देशपर, यहाँकी प्रजापर, तथा यहाँ के जमानस पर, पुरी ताकतसे राज कर रही है ! मनुस्मृति का रचयिता मनुही होना चाहिए ! किन्तु उसका रचयिता मनुका शिष्य भृगु है ! अर्थात भृगुऋषी जो भी कहेगा वह मनुद्वारा उसे बताया गया ही होगा ! ऐसा मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहा गया है ! प्रथम अध्याय सृष्टिके उत्पत्तिके बारे में बताता है ! जिसमें हिरण्यगर्भके द्वारा विराट, विराटके द्वारा आदिमनू ! (जिसे स्वयंभू कहा गया है !), आदिमनु के द्वारा, दस प्रजापति जिसमें भृगुऋषी भी एक था, निर्माण किये गये ! इसी भृगुऋषीपर धर्मशास्त्र सुनानेका या तैयार करनेका काम सौंपा गया ! मनु उसके पास गये हुए ! सब महर्षी लोगोसे स्वयं यह कहता हुआ दिखाया है !
एतव्दोऽयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः !

एतध्दि मत्तोधिऽजगे सर्वमेषोऽ खिलं मुनिः ||1,59 मनुस्मृति
( यह भृगु महर्षी अभी तुम सबको यह शास्त्र पुरी तरह से सुनाएगा ! उसने यह शास्त्र मुझसे ही प्राप्त किया है ! ) मनुकि सभी कल्पनाओंको, प्रत्यक्ष स्मृतिग्रंथके ढांचेमें डालनेवाला, भृगु होनेके कारण ! मनुस्मृति के हरेक अध्यायके अंतमे ! भृगुप्रोक्त संहिता ऐसे शब्द मिलते हैं !
इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्ताया संहिता यां—-
अर्थात मनु कौन था ? ‘वह स्वयंभु था ‘इसका क्या मतलब निकलता है ? वेदोंमें मनुका नाम आता है ! क्या वह मनु यही मनुस्मृतिका स्वयंभंव मनु है ? जैसे ऋग्वेदके द्वितीय मंडलके रुद्र सुक्तमे ऋषि कहता है –
‘ यानी मनुः अवृणीत पिता नः!’ (अर्थात हमारा पिता मनुभी रुद्रकी इन दवाइयोंको चाहता था !) मनु एक नहीं था, स्वयंभुव मनुसे और छह वंशज उत्पन्न हुए ! उन छह मनुओके नाम है स्वरोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चासुष, और महातेजस्वी वैवस्वत ऐसे दिये हैं! (1-62) मनुस्मृति कहती है –
स्वायंभंवाद्दा सप्तैते मनवो भूरितेजसः ! स्वे स्वे न्तरे सर्वमिदमुत्पाद्दापुश्चराचरम!! 1.62
इन महा तेजस्वी सात मनुओने अपने अपने मन्वंतरमें संपूर्ण चराचरकी उत्पत्ति कर उसकी सुरक्षा भी की ! सृष्टिकी उत्पत्ति करनेकी शक्ति रखनेवाले ! किसी महाशक्तिशाली काल्पनिक नामही ‘मनु ‘ है ! जो हम सब मनुष्योंका पुर्वज है ! जैसा हमें बताया जाता है ! कुल्लूकभट्टने मनुस्मृतिपर ‘मन्वर्थ मुक्तवलि ‘नामक टीका या भाष्य का, निर्माण किया ! जो अत्यंत प्रसिद्ध है ! इस पुस्तिका का लेखन इसी भाष्यसहित, मनुस्मृतिके आधारपर किया है ! यह कहना इसी लिये आवश्यक है ! कि निर्णयसागर जैसी अत्यंत विख्यात प्रेस द्वारा ! कुल्लूकभट्टके भाष्य सहित ! प्रकाशित मनुस्मृतिका यह संस्करण ! सारे देशके विद्वानोंमे प्रमाण माना जाता है !


मनु के बारे में और एक जानकारी प्रोफेसर आ. ह. साळुंखे जैसे विद्वान मनुस्मृति के समर्थकों की संस्कृति नाम की एक छोटी सी पुस्तिका में कह रहे हैं कि “मनू नाम बहुत प्राचीन है ! सिर्फ भारतीय ही नहीं तो समस्त इंडो – युरोपियन लोगों की नजर से ऐसा कोई पूर्व पुरुष था ! जिसका नाम मनु या उससे मिलता – जुलता नाम था ! भारतीय भाषाओं में भी ! मानव, मनुष्य इत्यादि शब्दों का इस्तेमाल करने की परंपरा जारी है ! और यह मनुस्मृति के बहुत ही पहले का नाम है ! मनुस्मृति की उम्र सव्वा दो हजार वर्ष पुरानी है ! और मनु उससे भी पहले कम-से-कम तीन से चार हजार साल पुराना है ! और तत्कालीन समाज के उपर जबरदस्त प्रभाव रखने वाले, सन्मानित मनु के साथ मनुस्मृति का कुछ भी संबध नही है !”यह साळुंखेजी की टिप्पणी है !


मनु के नाम से, भृगू वंश के किसी ब्राह्मण लेखक ने लिखि हुई स्मृति है ! यह ग्रंथ, भारतीय इतिहास के सामाजिकदृष्टि से सबसे विकृत ग्रंथ है ! इसी ग्रंथ ने, बहुजन समाज और स्त्रियों की कम-से-कम ! सौ पिढीयो को अज्ञानता, अपमानित, तिरस्करणीय, लाचार और गुलाम बनाकर रखने के साथ ही ! उनका हर तरह से अधःपतन करने के अलावा और कुछ भी नहीं किया ! इस तरह का अधःपतन का जीवन मेरे पूर्वजन्म के कर्म का फल है ! ( कर्मविपाक के सिद्धांत के अनुसार ! ) और यही मेरा धर्म है ! और यही नीति है ! यह विचार लोगों के दिमाग में डाल कर ! शोषितों के दिमाग में शोषकोंका प्रभाव काम करने लगा ! शोषकोंके हितों की रक्षा करने में ही शोषितों को अपने हित है ! ऐसा लगने लगा ! भृगू ने, बहुजन समाज के कष्ट करने की ताकत को ! बरकरार रखने के कारण ! उसके अपने सौ पिढीयो की सेवा करने के लिए ! समाजव्यवस्था बनाने की चतुराई कर के रखि हुई ! स्मृति मतलब मनुस्मृति ! मनुस्मृति में ब्राम्हणों के आपत्ति जनक हितों की रक्षा करने के लिए बनाई गई ऐसे – ऐसे श्लोकों के कारण !

उसके उपर काफी आलोचना भी होते आई है ! और उस टीका को टालने के लिए उसके समर्थन करने वाले लोगों ने कहना शुरू किया कि मनु क्षत्रिय था ! लेकिन इस तरह का अमानुष ग्रंथ क्षत्रियों ने लिखा या ब्राह्मणों ने इससे वह न्याय पर आधारित है ? या विवेक तथा नैतिकता के आधार पर लिखा है ? यह सबसे महत्वपूर्ण बात है ! और वर्तमान मनुस्मृति अगर मनुने लिखि ही नहीं है ! तो मनु क्षत्रिय था ! या ब्राह्मण यह सवाल असंबद्ध हो जाता है ! भृगू निसंदेह ब्राम्हण था ! इसलिए भृगू ने मनु का क्या लिया ? और खुद का क्या डाला ? यह हमें भी मालूम नहीं है ! लेकिन भृगू ने मनुस्मृति में अपने तरफसे कुछ लिखा है ! यह बात मनुस्मृति के समर्थक भी मानते हैं ! इसलिये वर्तमान मनुस्मृति की जिम्मेदारी ! भृगू के उपर, मतलब ब्राम्हणों के उपर ही आती है ! और इसी कारण ! ब्राम्हण हर तरह से पूजनीय होता है ! क्योंकि वह सर्वश्रेष्ठ दैवत होते हैं ! अब इस जगह पर मनुस्मृति ने विद्वत्ता या चरित्र तथा गुणवत्ता की परवाह नहीं की है ! उल्टा इन सभी बातों को ठुकरा कर सिर्फ वह जन्मना ब्राम्हण है इतनी बात पर्याप्त मानी गई है !


ब्राम्हणो की तारीफ करने वाले वचनों को देखते हुए लगता है कि यह सिर्फ उपरी तारिफ के लिए नही है ! इससे संबंधित कानून के प्रावधानों का पक्क बंदोबस्त किया है ! उदाहरण के लिए अगर वह कर रहे यज्ञ धन के अभाव में अधुरा रहने की संभावना दिखाई दीं ! तो दूसरे की संपत्ति हथियाने की इजाजत ब्राम्हण को दी गई है ! और ब्राह्मण को दान देने से दान देने वाले को दुगुना फल मिलता है ! सिर्फ ब्राम्हण जाती में पैदा हुआ ब्राम्हण अपने पेट भरने के लिए राजा को उपदेश देने का अधिकार रखता है ! लेकिन शुद्र किसी भी परिस्थिति में राजा का धर्मप्रवक्ता नही हो सकता ! जिस राजा को शुद्र मनुष्य धर्मोपदेश करता है ! वह राष्ट्र किचड में फंसी हुई गाय के जैसा नष्ट हो जाते हैं ! “निर्बुद्ध ब्राह्मण ने राजा को धर्मोपदेश किया तो, राष्ट्र की प्रगति होती है ! और विद्वान शुद्र ने राजा को उपदेश किया तो, राष्ट्र की अधोगती होती है ! इसका मतलब मनुस्मृति को धर्म, सद्गुण, विद्वत्ता और गुणवत्ता की कोई परवाह नहीं है ! यही इस तरह के श्लोकों से सिद्ध होता है !


शुध्द प्रजा याने संतान निर्माण हो इसलिए स्री की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ! जाहिर है कि स्री को स्वयं निर्णय का अधिकार दिया जाये तो वह अपना जीवन साथी खुद ढुंढेगी और उसमे वर्ण व्यवस्था के बंधन तोड़ डालेंगी इस भय के कारण, स्री की रक्षा करना अनिवार्य माना गया है ! प्रजाविशूध्धर्थ याने शुद्ध वंश के खातीर अर्थात ब्राम्हण जाती का उच्च स्थान अबाधित रहे इसलिए स्रीको बंधनो में रखना यहीउपाय मनुस्मृतिने खोज निकाला है ! घर के कामकाज, स्वच्छता, भोजन पकाना, गृहकार्य की व्यवस्था, धार्मिक आचरण और धन बचाने अथवा खर्च करने जैसे कामोमें स्री की नियुक्ति हो ऐसा नियम बनाया गया है ! स्री को केवल परवश ही नहीं बल्कि अप्रतिष्ठित बनाने के लिए धर्म के अंदर मंत्रपूर्वक संस्कारोंका अधिकार उसे नही दिया गया !
नास्ति स्रिणां क्रिया मन्त्रैः इति धर्मे व्यवस्थितीः! (9.18)
उनके लिए तो विवाहविधी हि उनका वैदिक अर्थात उपनयन संस्कार है ऐसा स्मृति कारोका कहना है ! उन्हे गुरु के पास अध्ययन करनेकी आवश्यकता नहीं, पतिसेवाही उनका गुरुकुल निवास है ! और रसोई में गृहकृत्य करना यही उनके लिए होमहवन है !
इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण कानूनी मामला आता है जो उपर दिखाई गई मनुप्रणित स्री शुद्रोके दमनकारी व्यवस्था को और अधिक दृढ करने हेतु उपयोग में लाया गया है !


अपराध तथा दंड बतलानेवाले 8 वे न्यायनिर्णय नामक अध्याय में प्रथमतः यह आदेश दिया है कि न्यायालयों में न्यायाधीश हमेशा ब्राम्हण हि रखना चाहिए ! शुद्रजातिका न्यायाधीश कभी नहीं नियुक्त करना चाहिए ! भले ही वह ब्राम्हण न्यायाधीश नामकाहि ब्राम्हण क्यूँ न हो!
जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद ब्राम्हणब्रुवः!
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न तु शुद्रः कथंचेन!! 8.20!!
यस्य शूद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम !
तस्य सीदती तद्राष्टं पंके गौरीव पश्यतः!! 8.21!!
जिस राजा की सभा में शुद्र न्यायाधीश न्यायदान करता है, उसका राष्ट्र कीचडमे फसी गाय की तरह नष्ट हो जाता है ! इसतरह पुरी न्यायनिर्णय प्रक्रिया ब्राम्हणो ने अपने हाथोंमे रखी थी ! इसलिए शुद्रोपर तरह-तरह के अन्याय करनेमे इस व्यवस्था को कतई शर्म या संकोच नहीं हुआ ! उदाहरण के तौर पर सभी प्रकार के पाप करनेपर भी राजाने ब्राम्हणको वध दंड कभीभी नही देना चाहिए ! केवल राष्ट्रसे बाहर कर देनाही उसके लिए काफी है ! वहां भी उसका सारा धन सुरक्षित रहे इसकी खबरदारी राजाने लेनी चाहिए !
न जातु ब्राम्हणं हन्यात सर्व पापेष्वपि स्थितम!
राष्ट्रादेन बहिः कुर्यात समग्रधमनक्षतम!! 8.380!!
कहाँ यह दंड विधान और कहा शुद्रोके प्रती किया जानेवाला दंडविधान ! उसके मुखमे लोहेका दस उंगली लंबा किला आगमे गरम करके ठुसने की सजा 8.271 में, उसके कानोमे उबलता तेल डालने की सजा ८.२७२ में, उसकी जीभ काट लेने की सजा ८.२७० में बताई गई है ! उसके अपराध कौनसे है ? जिनके कारण इतनी बड़ी सजा देनेका फैसला मनुस्मृति करती है ? शुद्रोने ब्राम्हण का नाम और जातीका उच्चारण करना, उन्हें धर्मोपदेश करना, तथा उनके प्रति दारुण – कठोर शब्दोंका प्रयोग करना यही वे तिन अपराध है ! इतनाही नही विद्दा स्नातक ब्राम्हणो के लिए शुद्रके राज्य रहनेपर प्रतिबंध लगाया है ! उसी प्रकार अंत्यज या अस्पृष्योंके गावमेभी रहनेसे मना किया है !


न शुद्र राज्ये निवसेत त्राधार्मिक जनाहुते !
न पाशंडी गणा कांते नोपसृष्टेहेन्त्य जैनृभिः!! ४.६१!!
अब इस तरह के २६८६ श्लोकों की मनुस्मृति में जन्मसे लेकर मृत्युकी, इतना ही नहीं मृत्यु के बादभी मनु के नियम इन्सानका पिछा नहीं छोडते ! इन नियमों का प्रवर्तन तथा संग्रह करने का काम काफी लंबे समय तक चला होगा ! और वह आज भी लागू करने की बात संघ के लोग किए जा रहे हैं ! मतलब ब्राम्हणो का वर्चस्व और स्री शुद्रो का शोषण बदस्तूर जारी रहना चाहिए वाले लोगों की मानसिकता को क्या कहेंगे ?


आर. एस. एस. के द्वितीय संघप्रमुख श्री. माधव सदाशिव गोलवलकर हमारे देश के संविधान के ऐलान होने के बाद ! मनुस्मृति जैसा हजारों वर्ष पुराना संविधान रहते हुए ! इस देश – विदेश की नकल कर के बनाये गुधडी जैसे ! संविधान की क्या जरूरत थी ? जिसमें भारतीयता का कुछ भी समावेश नही है ! जैसा तर्क दिया है ! और आज भी संघ के लोग वर्तमान भारतीय संविधान के बदलने की कवायद कर रहे हैं ! और आरक्षण से लेकर ! विवाह जैसे व्यक्तिगत मामले में भी सरकारी दखलंदाजी उसके प्रमाण है ! और न्यायपालिका को धमकी भरे स्वर में कानून मंत्री कहते है कि “सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत मामले की सुनवाई के जगह सिर्फ संविधानिक मामलो को देखना चाहिए ! और देश के गृहमंत्री ने कहा कि न्यायालयों ने बहुसंख्यक समुदाय के लोगों के मानसिकता देखते हुए फैसले देना चाहिए ! शबरीमला के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर यह कहा है ! और राममंदिर बनाने के निर्णय में संविधान की जगह बहुसंख्यक समुदाय के भावनाओं को देखते हुए ही हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय ने निर्णय किया है ! मतलब हमारे देश में सवाल आस्था का है कानून का नही यह आलम है ! उसी तरह आम लोगों के जीवन में शादी ब्याह से लेकर खानपान तक हस्तक्षेप करने की कोशिश मनुस्मृति में बताये गये विभिन्न बातो को अमल में लाने की कोशिश जारी है ! भले उसे लवजेहाद के आड में आंतरजातीय और आंतरधर्मीय विवाहो को लेकर विभिन्न राज्यों की सरकारों ने अलग- अलग कानूनी प्रावधानों को करने की बात वंशश्रेष्ठत्व के लिए मिश्र विवाह के पाबंदी के ढाई-तीन हजार वर्ष पहले के मनुस्मृति के नियमों का पालन करने का प्रयास किया जा रहा है !


हालांकि डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी ने, जातीव्यवस्था खत्म करने का सबसे कारगर कदम ! सिर्फ – और सिर्फ ! आंतरजातीय और आंतरधर्मीय शादियाँ करने का उपाय बताया है ! लेकिन वर्तमान समय में भारत की सरकार जिस तरह से लवजेहाद के आड में ! मनुस्मृति के अनुसार मिश्र विवाह करने से कैसे बुरे परिणाम आने वाले पीढ़ी पर होता है ! जैसे अवैज्ञानिक बातें बता कर ऐसी शादीयोको रोकने के, कानून बना रहे है !
आजसे 95 साल पहले, 25 दिसंबर 1927 के दिन ! डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी ने, महाड के तालाब के पानी के लिए आयोजित सत्याग्रह के आंदोलन के दौरान, मनुस्मृति दहन का कार्यक्रम जो 25 दिसंबर को ! शामको 4-30 बजे से शुरू हुआ ! जिसमें सभी स्त्रियों और पुरुष जन्मसेही समान दर्जे के है ! और मरते समय तक समान ही रहेंगे ! और विषमतामुलक तथा गैरबराबरी के समर्थन करने वाले सभी प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथों का तिव्र शब्दों में धिक्कार किया गया ! जिसमें श्रुति स्मृति, पुराणों को नकारा गया ! और मनुस्मृति का दहन का प्रस्ताव सहस्रबुद्धेजी ने रखा ! और या. ना. राजभोज ने उस प्रस्ताव को समर्थन करने का जबरदस्त भाषण दिया ! और रात के 9 बजे ! महाड के संमेलन की जगह पर एक गढ्ढा खोदकर, एक अस्पृश्य बैरागी के हाथ से मनुस्मृति का दहन किया गया ! हालांकि मनुस्मृति दहन का यह कार्यक्रम पहला ही था ऐसा नहीं है ! इसके एक साल पहले 1926 में तत्कालीन मद्रास राज्य में ब्राम्हणेतर दल के द्वारा रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में, दहन किया गया था ! लेकिन जातीव्यवस्था से पिडीत और सबसे निचले स्तर के लोगों द्वारा, डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी के आगुआई में ! महाड में इतनी बड़ी संख्या में स्त्रियों और पुरुषों की उपस्थिति में ! स्रिदास्यविरोधी और ब्राम्हणीधर्मग्रंथ का ! सामुदायिक रुप से दहन करने की घटना का एक अलग एतिहासिक महत्व है !


ब्राम्हणीधर्मग्रंथ शब्द शायद कुछ लोगों को अटपटा लगने की संभावना है ! इसलिए मैं थोड़ा विस्तार से रोशनी डालने की कोशिश करता हूँ ! डॉ बाबा साहब अंबेडकरजी के ही भाषा में ब्राम्हणी समाजव्यवस्था का स्वरूप यांनी मनुस्मृति ! वह एक कानूनी संहिता के रूप में अस्तित्व में थी ! प्राचीन काल में अनेक प्रकार की ब्राम्हणी साहित्यकृतीया मौजूद थी ! उसमें से समाजव्यवस्था और उसके कानूनी संहिताओंको एक करने वाली कृति (स्मृति) मतलब मनुस्मृति ! मनुस्मृति ने ब्राम्हणी समाजव्यवस्था निर्माण करने के लिए अलग – अलग प्रकार के कानून ! बनाने के क्रम में चातुर्वर्ण्य, जाति-व्यवस्था और स्रिदास्य का खुलकर समर्थन किया है !
डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी कहा है ! “कि समाज के सबसे निचले स्तर पर अगर कोई है तो वह स्रि ही है !” भले ही वह ब्राम्हण क्यों न हो ! एक मेहतर की पत्नी मेहतरानी मेहतर के घर में और भी उपेक्षित होने के कारण ! डॉ. राम मनोहर लोहिया की “सबसे निचले स्तर पर औरतें ही होती है !” यह बात मनुस्मृति के पन्नों पर जगह – जगह पर लिखी हुई है !
उदाहरण के लिए स्रि को जीवन भर संभालने का जिम्मा पुरुषों को ही सौपा गया है ! बचपन में बाप, तरुण अवस्था में पती और बुढापे में लडकेने उसे सम्हालने के नियम मनुस्मृति में ही लिखा हुआ है ! मतलब स्त्रिया स्वतंत्र नही है ! उनका अपना व्यक्तित्व नही होता है ! ऐसा मनू कहता है ! और इसीलिये आज भी स्रि की पहचान फलाने की बहु, बेटी, पत्नी या मां के अलावा उसकी खुद की पहचान कहा है ? मतलब पिता, पती या बेटे के नाम से जानें जाना कौन सी पहचान हुई ? ऐसे ग्रंथ का स्त्रियों के गुलामी के अलावा और क्या योगदान है ?


पती निधन के बाद सती जाने की बात ! शायद विश्व के किसी और ग्रंथ या कानून में है कि नही मालूम नहीं ! लेकिन मनुस्मृति में शादी ब्याह से लेकर, कितना भी घटिया पती हो उसके साथ निभाने की जिम्मेदारी ! स्त्रियों के ही कंधे पर डाली है ! उसे अलग होने की इजाजत नहीं है ! आज भी धार्मिक विधीयो में स्रि को स्वतंत्र रूप से विधि करने की इजाजत नहीं है ! इसलिए उसे अर्धांगिनी कहा जाता है ! उसने सिर्फ पुरुषों के साथ हाथ लगाना है ! उसे वेदपठन तो दूर की बात है वेदों को सुनने का भी अधिकार नहीं है ! और आगे चलकर मनुस्मृति कहतीं है ! “कि स्त्रियों के उपर संस्कार करते वक्त वेदमंत्रो का उच्चारण नहीं करना चाहिए !” और वह आज भी जारी है ! तो ऐसे मनुस्मृति को कालबाह्य करार देकर उसे मृत घोषित कर दिया तो क्या हर्ज है ? और आज के दिन 95 साल पहले डॉ बाबा साहब अंबेडकरजी ने उसे जलाने की कृती की है ! तो वह सही मायने में स्रिमुक्ति का दिवस है ! मेरी तो राय है कि आंतराष्ट्रीय स्तर पर भले ही 8 मार्च को स्रिमुक्ति के रूप में मान्यता है ! लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो ! भारतीय स्त्रियों की मुक्ति की सच्ची शुरूआत ! 25 दिसंबर 1927 के दिन, डॉ बाबा साहब अंबेडकरजी ने महाड में मनुस्मृति दहन किया तबसे हुई है ! तो फिर आगे से भारत में स्रिमुक्ति के दिवस के रूप में 25 दिसंबर को मनाने की शुरुआत होनी चाहिए !
डॉ सुरेश खैरनार, 25 दिसंबर 2022, नागपुर

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