हमने यूजीसी को ब्रिटिश ढांचे से उठाया है, लेकिन स़िर्फ शब्दों में, आत्मा से नहीं. यूनिवर्सिटी को इस बात की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वे शिक्षकों को रख सकें और अपने हिसाब से शोध करा सकें. यह गुणवत्ता को बढ़ाता है. इंग्लैंड में शिक्षा को लेकर समय-समय पर सुधार होते रहे हैं. भारत में अच्छे लड़के अगर शोध करना चाहते हैं, तो विदेश का रास्ता अख्तियार करते हैं, जहां वे अच्छा और ईमानदार प्रयास कर सकें, जहां उन्हें अपने विभाग प्रमुख की चापलूसी नहीं करनी पड़ती.
MOMमंगल मिशन की जबरदस्त सफलता के लिए आज़ादी के बाद के भारत के युवा नेतृत्व को धन्यवाद दिया जाना चाहिए. गांधी मशीनों व आधुनिकता से जुड़ी किसी भी चीज के विरोधी थे, लेकिन जवाहर लाल नेहरू एवं सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता आधुनिकवाद, विज्ञान और तकनीक के पक्षधर थे. वे पश्‍चिमी तकनीक को लेकर हेयदृष्टि नहीं रखते थे और न परंपरावादियों की उन बातों से इत्तेफाक रखते थे, जिसमें कहा जाता था कि प्राचीन भारत के पास ये सभी आधुनिक तकनीक और विज्ञान आदि पहले से मौजूद थे. असल मुद्दा यह नहीं है कि हमारे पास पुष्पक विमान मौजूद था, बल्कि यह है कि ऐसे सौ विमान बनाने की फैक्ट्रियां कहां मौजूद थीं.
बोस और नेहरू चाहते थे कि आज़ादी के बाद भारत का जितना जल्दी हो सके, औद्योगीकरण हो जाए. भारत के भविष्य के लिए वर्ष 1938 में नेशनल प्लानिंग कमेटी की स्थापना भी की गई थी. उस समय हमें किसी भी फिल्म को देखने के पहले न्यूज रील देखनी ही पड़ती थी. नेहरू भारत को वैज्ञानिक एवं तार्किक रूप से विकसित करना चाहते थे. पंडित जी अपनी ही शैली में मॉडर्न इंडिया की स्पिरिट के बारे में बताते थे. वह रिसर्च संस्थाओं की स्थापना की बात करते थे, जबकि बहुत-से लोग उस समय कहा करते थे कि हमारे जैसे देश के लिए यह एक विलासिता की चीज होगी. नेहरू ने ही होमी भाभा, विक्रम साराभाई एवं अन्य दूसरे वैज्ञानिकों को दुनिया के साथ प्रतियोगिता करने के लिए उत्साहित किया. भारत ने उस समय अपने सैटेलाइट सेट करने शुरू कर दिए, जब देश में रेलगाड़ियां कभी-कभार ही समय पर आया करती थीं. उनकी भावनाएं सही थीं. प्रोग्रेस नॉन लिनियर होती है. अगर आपको दूसरे को पीछे छोड़ना है, तो तेजी से आगे बढ़ना होगा. अच्छे शोध संस्थान खड़े करने के लिए लंबा समय लगता है और ऐसे लोग चाहिए होते हैं, जो अपने काम को प्यार करते हों. वे अपनी पूरी मेरिट और क्षमता के साथ काम करें. ऐसे लोग वास्तविक कर्मयोगी होते हैं. कोई भी उनकी खुशी देख सकता था, जब मंगल मिशन कामयाब हुआ. यह काम होने तक और उसके बाद भी उन्होंने डींगे नहीं मारीं. उनकी सोने की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं भी नहीं लगेंगी. इस तरह का कठिन और बेहतरीन काम पूरा करने का आनंद शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता है. जो इस तरह के कार्य करते हैं, स़िर्फ वे ही जानते हैं कि आख़िर इन्हें पूरा करने के बाद कैसा आनंद आता है.

विश्‍वस्तरीय अंतरिक्ष प्रयोगशाला और निम्नस्तरीय विश्‍वविद्यालय होने के बीच ज़रूर कुछ गड़बड़ी हो रही है. क्या इसका कारण यह है कि इन शोध संस्थानों को अपने मन का काम करने की खुली छूट है, क्या स्वायत्त होना काबिलियत की मुख्य वजह है और क्या यूजीसी ने विश्‍वविद्यालयों एवं कॉलेजों को ब्यूरोक्रेटिक बना दिया है, जहां काबिलियत के आधार पर कोई पदोन्नति नहीं दी जाती है.

लेकिन दु:खद रूप से भारत की एक भी यूनिवर्सिटी शीर्ष 200 में नहीं है. यह ऐसी संस्कृति है, जो मेरिट की बजाय उम्र को तरजीह देती है, सामान्य समझ वालों को अच्छे पदों पर बने रहने देती है, यूजीसी के ब्यूरोक्रेटिक रेगुलेशन आते रहते हैं. और भी ऐसी कई संस्थाएं हैं, जिन्हें काबिलियत से कोई मतलब नहीं है. वे केवल नियमों की खानापूर्ति भर कर रही हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में स्नातक डिग्री को चार वर्षीय बनाने का मामला सारी कहानी कह देता है. दरअसल, शिक्षा में किसी भी तरह के प्रयोग की आज्ञा नहीं है. अगर आपका तर्क मीडिया के अनुरूप नहीं होगा, तो मामले में तुरंत राजनीतिक हस्तक्षेप होता है और किसी भी नए प्रयोग को दबा दिया जाता है.
हमने यूजीसी को ब्रिटिश ढांचे से उठाया है, लेकिन स़िर्फ शब्दों में, आत्मा से नहीं. यूनिवर्सिटी को इस बात की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वे शिक्षकों को रख सकें और अपने हिसाब से शोध करा सकें. यह गुणवत्ता को बढ़ाता है. इंग्लैंड में शिक्षा को लेकर समय-समय पर सुधार होते रहे हैं. भारत में अच्छे लड़के अगर शोध करना चाहते हैं, तो विदेश का रास्ता अख्तियार करते हैं, जहां वे अच्छा और ईमानदार प्रयास कर सकें, जहां उन्हें अपने विभाग प्रमुख की चापलूसी नहीं करनी पड़ती. वे अपने अच्छे काम के प्रति समर्पित होते हैं, न कि अपने वरिष्ठों को अच्छे उपहार देने में दिमाग़ लगाते हैं.
विश्‍वस्तरीय अंतरिक्ष प्रयोगशाला और निम्नस्तरीय विश्‍वविद्यालय होने के बीच ज़रूर कुछ गड़बड़ी हो रही है. क्या इसका कारण यह है कि इन शोध संस्थानों को अपने मन का काम करने की खुली छूट है, क्या स्वायत्त होना काबिलियत की मुख्य वजह है और क्या यूजीसी ने विश्‍वविद्यालयों एवं कॉलेजों को ब्यूरोक्रेटिक बना दिया है, जहां काबिलियत के आधार पर कोई पदोन्नति नहीं दी जाती है. जब आपके पास एमबीए के अच्छे छात्र हैं, युवा उद्यमी मौजूद हैं, तो उच्च शिक्षा व्यवस्था को ठीक क्यों नहीं किया जा सकता?

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