भाजपा को यह गुमान नहीं रहा होगा कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी वही खेल खेल सकती हैं, जो भाजपा दूसरे राज्यों में सत्ता पाने या अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए खेलती आई है और उसे नैतिक रूप से भी सही बताती आई है। या यूं कहें कि कुर्सी पाने या उसे मजबूत करने की जो वैधानिक पतली गलियां भाजपा ने खोज निकाली थीं, ममता दी अब उन्हीं गलियों में अपनी नई राजनीतिक बिसात बिछा रही हैं। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव नतीजों के महज डेढ़ माह बाद मुकुल राॅय जैसे नेता वापस ममता के खेमे में लौट गए हैं, जबकि चार साल पहले ममता का दामन झटकर भाजपा के शामियाने में आने वाले वो पहले बड़े नेता थे। चर्चा है कि दो दर्जन और भाजपा विधायक पाला बदलने के लिए सही मौसम और हरी झंडी का इंतजार कर रहे हैं।
भाजपा में इस संभावित दल बदल का डर कितना गहरा है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि चुनाव में ममता को हराने वाले और अब विधानसभा में नेता-प्रतिपक्ष शुभेंदु राय ने राज्यपाल से मुलाकात कर अपील की कि वो प्रदेश में दलबदल कानून को ठीक से लागू करने पर ध्यान दें। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि राज्य के बिरभूम व हुगली जैसे जिलों में कई भाजपा कार्यकर्ता अब जनता से अपने किए पर सार्वजनिक माफी मांग रहे हैं और टीएमसी दफ्तरों धरना देकर गुहार लगा रहे हैं कि दीदी सारे पाप भुलाकर हमे वापस अपनी शरण में ले लो। हालांकि भाजपा आरोप लगा रही है कि भाजपा कार्यकर्ताअों की यह कथित ‘घर वापसी’ राज्य में तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी की वजह से है न कि पश्चाताप के कारण। क्योंकि चुनाव नतीजे आने के बाद से ही भाजपा ने टीएमसी कार्यकर्ताअों द्वारा उसके दफ्तरों पर हमले और हिंसा के आरोप लगाए थे। लेकिन बंगाल की जनता पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उल्टे टीएमसी छोड़कर आए बहुत से कार्यकर्ता अब पुरानी पार्टी में वापस जाना चाहते हैं।
इस हिसाब से पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात परिदृश्य में जमीन-आसमान का अंतर है। यह अंतर उस हवाई माहौल और जमीनी हकीकत के कारण है, जिसमें यह संदेश देने की पूरी कोशिश थी कि राइटर्स बिल्डिंग पर भगवा फहराया ही समझो। हालांकि यह भी सही है कि बीजेपी ने इस बार अपना जनाधार पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में काफी बढ़ाया, बावजूद इसके वो टीएमसी से बहुत पीछे रही। जहां 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनो पार्टियों के वोट शेयर में 3 फीसदी का अंतर रह गया था, वही विधानसभा चुनाव में फिर बढ़कर 10 फीसदी हो गया। पूरी ताकत झोंकने के बाद भाजपा ने पहली बार राज्य में 77 सीटे जीतकर मुख्यल विरोधी दल होने का दर्जा हासिल किया, लेकिन प्रतिपक्ष का यह किला भी डेढ़ महीने बाद ही दरकने लगा है।
ज्यादातर भाजपा कार्यकर्ताओ को यह लगने लगा है कि इससे तो दीदी के साथ ही अच्छे थे। यूं कहने को मुकुल राॅय भाजपा में शुभेंदु को ज्यादा महत्व मिलने से नाराज होकर टीएमसी में लौटे हैं, लेकिन उन्हें मालूम है कि मोदी सरकार उनके खिलाफ नारदा घोटाले की ठंडे बस्ते में पड़ी फाइल फिर खोल सकती है। लेकिन अगर यह जोखिम भी मुकुल ने उठाया है तो समझ लें कि भाजपा का हिंडोला किस कच्ची रस्सी पर झूल रहा है। यह वाकई चौंकाने वाली खबर थी कि भाजपा कार्यकर्ताओ ने बंगाल में दीदी के आगे कान पकड़ कर माफी मांगना शुरू कर दिया है। राज्य के बीरभूम और हुगली जिले में कुछ भाजपा कार्यकर्ता बैटरीचलित रिक्शा पर लाउड स्पीकर लगाकर ऐलानिया माफी मांग रहे हैं।
कह रहे हैं कि चुनाव के पहले उनसे गलती हुई। हमे प्रलोभन देकर टीएमसी में ले जाया गया था। हम माफी मांग कर वापस टीएमसी में आना चाहते हैं। इस ‘ह्रदय परिवर्तन’ के पीछे कारण दीदी की राज्य के विकास के प्रति प्रतिकबद्धता को बताया जा रहा है। ये वही कार्यकर्ता हैं जो भाजपा के विकास के वादों पर रीझे थे। भाजपा इसे दबाव में हुआ बदलाव और लोकतंत्र की हत्या बता रही है। वैसे कुछ लोगों का मानना है कि बंगाल की राजनीति अमूमन ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के फार्मूले पर ही चलती है। इसलिए इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है।
जबकि अमूमन राजनीति में ऐसा नहीं होता। चुनावी तूफान गुजर जाने के बाद काफी समय तक विजेता और विजित खेमो में शांति रहती है। चुनाव की थकान दूर करने में दोनो व्यस्त रहते हैं। जनादेश को शिरोधार्य किया जाता है। कामयाबी और नाकामयाबी की जुगाली की जाती है। नई रणनीति के बारे में सोचा जाता है। लेकिन बंगाल की कथा कुछ अलग ही है। वहां तो लंका कांड के बाद उत्तर कांड भी उतना ही तल्खी भरा है। ऐसे में अगर भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद भी कई विधायक अपने पुराने घर के दरवाजों की ओर आस भरी नजरों से देख रहे हैं तो भाजपा के लिए यह गहन चिंता और आत्मविकश्लेषण का कारण होना चाहिए कि दलबदलुओ का नए घर में मन क्यों नहीं लग रहा है ?
आलम यह है कि विधायक दल की बैठकों में भी पूरे विधायक नहीं आ रहे हैं। यहां तक कि राज्यपाल से मिलने जो विधायक गए, उनमें भी 23 विधायक कन्नी काट गए। खुटका यही है कि इनके भी अंदरखाने दीदी से तार जुड़ रहे हैं। हालांकि ममता बैनर्जी के पास 213 विधायकों का भारी बहुमत है, उन्हें और विधायकों की गरज नहीं है। फिर भी अगर भाजपा को दल बदल का डर सता रहा है तो इसके पीछे दीदी की नहले पर दहले की संभावित चाल हो सकती है। लेकिन वो भाजपा को उसी की भाषा में जवाब देने से शायद ही चूकेंगी।
याद करें कि भाजपा ने पिछले दरवाजे से सत्ता में आने के लिए पिछले दिनो गोवा और कर्नाटक में निर्वाचित विधायकों से उनकी पार्टी और विधायकी से इस्तीफे दिलवाकर अपनी पार्टी में शामिल किया और भाजपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वा के जितवा भी लिया। यानी राजनीतिक शुद्धिकरण का यह नया भाजपाई संस्कार था। यह ऐसी पतली वैधानिक गली थी, जिसमें से विधायक दलबदल कानून में फंसे बगैर सुरक्षित बाहर निकल आता है और भाजपा का पीपीई किट पहन कर वापस विधानसभा पहुंच जाता है। इसी व्यूहरचना ने भाजपा ने मप्र में भी खोई सत्ता फिर से पाई। लेकिन बंगाल में यही खेल ममता दी अब भाजपा के साथ खेलना चाहती हैं।
आश्चर्य नहीं कि कल को भाजपा से सोशल डिस्टेंसिंग रख रहे उसी पार्टी के विधायक भाजपा और विधानसभा से इस्तीफा देकर टीएमसी के टिकट पर चुनाव लड़ें और जीतकर फिर विधानसभा पहुंच जाएं। ऐसा इसलिए भी संभव है, क्योंकि दलबदल कानून उसी स्थिति में लागू नहीं होता कि जब किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक एक साथ अन्य किसी पार्टी में खुद का विलय कर लें। इसका मतलब यह नहीं कि बंगाल में ‘खेला’ एकतरफा है। हो सकता है कि भाजपा विधायकों का यह अनमनापन सचमुच दबाव की राजनीति की वजह से भी हो। ध्यान रहे कि ममता बनर्जी चुनाव में अपनी सीट गंवाने के बाद भी पार्टी के दबाव और सारी सत्ता अपने हाथ में रखने के आग्रह के चलते तीसरी बार मुख्यमंत्री बन तो गई हैं, लेकिन वो अभी सदन की सदस्य नहीं हैं।
उन्हें अपनी पारंपरिक सीट भवानीपुर से उपचुनाव लड़ना है। लेकिन उपचुनाव कब होगा, यह चुनाव आयोग और परोक्ष रूप से मोदी सरकार को तय करना है। नियमानुसार अगर वो 4 नवंबर तक विधानसभा की सदस्य नहीं बनीं तो उन्हें मुख्यधमंत्री पद छोड़ना होगा। हो सकता है कि दलबदल की हवा बनाकर ममता बैनर्जी भाजपा और केन्द्र सरकार पर जल्द उपचुनाव करवाने के लिए दबाव ला रही हों। उन्हें पता है कि यही स्थिति महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सामने भी बनी थी। लेकिन ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सीधे गुहार कर की और विधान परिषद के चुनाव
ताबड़तोड़ करवा कर अपनी कुर्सी बचा ली थी। परंतु ममता के मामले में ऐसा होने की संभावना बहुत कम है। पश्चिम बंगाल में विधान परिषद भी नहीं कि ठाकरे की तरह ममता वैकल्पिक रास्ते से किसी सदन में पहुंच जाएं। अगर चुनाव आयोग ने कोविड या ऐसा ही कोई कारण बताकर उपचुनाव समय पर नहीं कराए तो बंगाल में राजनीतिक टकराव का नया और शायद हिंसक मोर्चा खुल सकता है। लेकिन वो भविष्य की बात है। फिलहाल राजनीति की जो बिसात बिछी है, उसमें शह तो ममता दीदी ही दे रही हैं, इसे समझने किसी दूसरे चश्मे की जरूरत नहीं है।