बीड सहित पूरा मराठवाड़ा लगातार तीन वर्षों से भयंकर सूखे की चपेट में है. सिंचाई के अभाव में फसलें चौपट हो रही हैं. नतीजतन, लागत भी नहीं निकल पा रही है. पानी और चारे की कमी के कारण पशुओं का असमय मरना जारी है. बीड ज़िले से लाखों लोग हर साल गन्ना तोड़ने (काटने) पश्चिम महाराष्ट्र जाते हैं. ़फर्क़ स़िर्फ इतना है कि यहां पहले भूमिहीन मज़दूर काम करते थे, लेकिन अब वैसे किसानों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है, जो ख़ुद दस-बारह बीघा ज़मीन के मालिक हैं. यह किस्सा महाराष्ट्र के उस इलाक़े का है, जिसने सूबे को चार मुख्यमंत्री दिए हैं. अव्वल यह कि दूसरे शहरों में काम करने वाले यहां के मज़दूरों की संख्या कितनी है, इसकी मुकम्मल जानकारी स्थानीय ज़िला प्रशासन को भी नहीं है. गन्ना मज़दूरों की दयनीय हालत और किसान आत्महत्या की वजह तलाशने के लिए चौथी दुनिया संवाददाता ने उन गांवों का दौरा किया, जहां इस तरह की घटनाएं हुई हैं. प्रस्तुत है, इसी विषय पर यह ख़ास रिपोर्ट…

3-majdoor-palayanबीड की पहचान मज़दूरों के ज़िले के रूप में होती है. आज़ादी से पहले और आज़ादी के छियासठ वर्षों बाद भी यहां के भूमिहीन मज़दूर सतारा, सांगली, कोल्हापुर और पुणे स्थित गन्ना के खेतों एवं चीनी मिलों में काम करते हैं. मज़दूरों का पलायन बीड की एक बड़ी समस्या है, लेकिन सरकार, प्रशासन और मीडिया इसे मज़दूरों का पुश्तैनी धंधा मानकर ख़ास तव्वजो नहीं देते. हर साल समूचे मराठवाड़ा से कितनी संख्या में मज़दूर पश्चिमी महाराष्ट्र स्थित गन्ना के खेतों में काम करने के लिए जाते हैं, इसका कोई सरकारी लेखा-जोखा मौजूद नहीं है. अपने गांव से मीलों दूर काम करने वाले ये मज़दूर कितने सुरक्षित हैं, इसकी कोई जवाबदेही मराठवाड़ा के संबंधित ज़िला प्रशासन और नेताओं पर नहीं है. मराठवाड़ा के गन्ना मज़दूरों की दशा ठीक वैसी ही है, जो कभी मॉरीसश, सूरीनाम एवं फिजी गए मज़दूरों की थी. 180 वर्ष पहले इन देशों के गन्ना खेतों में काम कराने के लिए अंग्रेज बड़ी संख्या में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मज़दूरों को ले गए थे. आम बोलचाल की भाषा में इन मज़दूरों को गिरमिटिया मज़दूर कहा जाता था. गिरमिटिया मज़दूर एक ऐसा शब्द है, जिससे वर्षों की दासता परिलक्षित होती है. कई दशक पहले मॉरीसश गए इन मज़दूरों की मौजूदा पीढ़ी अब वहां की स्थायी नागरिक है. मॉरीसश के नागरिक हज़ारों मील की भौगोलिक दूरी एवं कई पुश्तों बाद भी भारतीय संस्कृति से जुड़े हैं. वर्ष 1968 में मॉरीसश एक आज़ाद देश बना और वहां की राजनीति में बिहार मूल के उन्हीं लोगों का वर्चस्व क़ायम हुआ, जिनके पूर्वज कभी गिरमिटिया मज़दूर बनकर मॉरीसश आए थे. सड़सठ साल पहले मराठवाड़ा हैदराबाद के निज़ाम की हुकूमत के अधीन था. देश को आज़ादी भले ही 15 अगस्त, 1947 को मिली, लेकिन मराठवाड़ा 17 सितंबर, 1948 को भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना. इन बीते वर्षों में मराठवाड़ा का उतना विकास नहीं हो पाया, जितना महाराष्ट्र के बाक़ी हिस्सों का हुआ. ज़िला कलेक्टर कार्यालय बीड से 30 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है निपानी जवलका. गेवराई तहसील के इस गांव की कुल आबादी 4,000 है. यहां गन्ना मज़दूरों की संख्या का़फी ज़्यादा है. चौथी दुनिया का यह संवाददाता पिछले दिनों निपानी जवलका गांव में था. एक पेड़ के नीचे क़रीब दस-पंद्रह लोग बैठे हुए थे. सामने एक घर से महिलाओं के रोने की आवाज़ आ रही थी. यह घर शिवाजी बलिराम काकड़े का था, जिसने 23 अप्रैल, 2015 को अपने खेत में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. पचपन वर्षीय शिवाजी की दो पत्नियां और चार बच्चे हैं. पहली पत्नी का नाम कल्पना और दूसरी पत्नी का नाम शांता बाई है. कैलाश, विलास, मनोहर और लता की उम्र पच्चीस वर्ष से अधिक है. लता की शादी नज़दीक के पिंपलगांव में हुई है. जिस घर में दो दिन पहले मौत हुई हो, वहां इस विषय में कोई सवाल पूछना एक पत्रकार के लिए सहज नहीं था.
ग्रामीणों ने बताया कि शिवाजी के पास कुल 12 एकड़ ज़मीन थी. पहले वह गांव में रहकर ही खेती-बाड़ी का काम करते थे, लेकिन लगातार सूखे की वजह से खेती में नुक़सान होने लगा. नतीजतन, शिवाजी सतारा ज़िले की एक चीनी मिल में पलटन (मेठ) का काम करने लगे. दिसंबर, 2014 में शिवाजी अपने गांव के 18 गन्ना मज़दूरों को सदाशिव नगर, सतारा ले गए. वहां चीनी मिलों के लिए गन्ना की ढुलाई करने वाले ट्रांसपोर्टर दादा हरिभाऊ धाईगुरे ने मज़दूर मुहैया कराने के एवज़ में शिवाजी को सात लाख रुपये एडवांस दिए थे. गन्ना पेराई का सीजन ख़त्म होने से पहले शिवाजी पांच लाख रुपये का व्यवसाय कर चुके थे. उनके ऊपर ट्रांसपोर्टर के महज दो लाख रुपये ही बकाया थे. ट्रांसपोर्टर हरिभाऊ को शायद शिवाजी पर विश्वास नहीं रहा, इसलिए उसने शिवाजी और उनकी पत्नियों के साथ मारपीट की. इतना ही नहीं, शिवाजी जिन 18 मज़दूरों को सदाशिव नगर ले गए थे, उन सबको, उनकी बैलगाड़ियों और 29 जोड़ी बैलों को भी ट्रांसपोर्टर ने बंधक बना लिया. किसी तरह एक लाख पंद्रह हज़ार रुपये का इंतज़ाम कर शिवाजी ने ट्रांसपोर्टर को दिया और बंधक बने मज़दूरों को छुड़ाया. शेष पैंसठ हज़ार रुपये का इंतज़ाम करने के लिए शिवाजी अपने गांव आ गए. गांव वालों का कहना है कि आत्महत्या करने से एक दिन पहले (22 अप्रैल, 2015) शिवाजी ने अपनी पत्नी कल्पना से टेलीफोन पर बात की थी. शिवाजी गांव तो आ गए, लेकिन रुपये का इंतज़ाम न होने की वजह से वह तनावग्रस्त रहने लगे. देर रात ख़बर मिली कि शिवाजी ने अपने खेत में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.
बंधक बनाए गए मज़दूर गिरिराम भगवान काकड़े ने बताया कि शिवाजी के ऊपर ट्रांसपोर्टर का बहुत बड़ा क़र्ज़ नहीं था, जिस वजह से वह आत्महत्या करते. उनके मुताबिक़, ट्रांसपोर्टर हरिभाऊ एक दबंग किस्म का व्यक्ति है, जिसने स्टांप पेपर पर शिवाजी से एक लिखित एग्रीमेंट बनवा लिया था. संभवत: यही दबाव शिवाजी की ज़िंदगी पर भारी पड़ गया. निपानी जवलका की सरपंच द्वारिका बाई बांगड़ के मुताबिक़, गेवराई पुलिस ने शिवाजी की मौत के बाद ट्रांसपोर्टर हरिभाऊ के ख़िला़फ एफआईआर दर्ज़ कर ली है, लेकिन इस मामले में अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है. ग़ौरतलब है कि आत्महत्या करने वाले मज़दूर शिवाजी के परिवारीजनों को बीड ज़िला प्रशासन की ओर से कोई मुआवज़ा नहीं मिला है, क्योंकि सरकारी नियमों के तहत वह मुआवज़ा पाने के हक़दार नहीं हैं. पिछले पांच वर्षों से गन्ना काटने का काम कर रहे संजय गिरधारी लोनकर ने बताया कि वह हर साल दिसंबर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सतारा जाते हैं. एक टन गन्ना काटने और उसे लोड करने के एवज़ में 212 रुपये मिलते हैं. एक मज़दूर औसतन डेढ़ टन गन्ना प्रतिदिन काटता और लोड करता है. सतारा ज़िले के गन्ना खेतों में काम करने वाले राम किशन काकड़े बताते हैं कि पश्चिम महाराष्ट्र में मराठवाड़ा क्षेत्र से सबसे ज़्यादा मज़दूर जाते हैं. अकेले बीड ज़िले में यह संख्या क़रीब पांच लाख से अधिक है. कृष्णा भापकर की मानें, तो गन्ना मज़दूरों की इस बढ़ती संख्या की मूल वजह है, इलाक़े में लगातार तीन वर्षों से सूखा पड़ना. यही कारण है कि शिवाजी बलिराम काकड़े जैसे किसान भी दूसरों के खेतों में मज़दूरी करने को विवश हो रहे हैं. निपानी जवलका में इससे पहले भी किसान आत्महत्या की घटनाएं हो चुकी है. 8 अगस्त, 2014 को साठ वर्षीय बुजर्ग किसान सर्जे राव बापू ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. उनके पास 11 एकड़ ज़मीन थी. महाराष्ट्र बैंक से तीन साल पहले सर्जे राव ने चालीस हज़ार रुपये का क़र्ज़ लिया था. सूखे और ओलावृष्टि की वजह से उनकी फसल नाक़ाम हो गई. बैंक के बढ़ते क़र्ज़ और तगादे से आजिज होकर उन्होंने अपनी जान दे दी.
मराठवाड़ा जाने से पहले दिल्ली के एक पत्रकार साथी ने बताया कि अक्षय तृतीया के समय बीड ज़िले के गांवों में चहल-पहल बढ़ जाती है, क्योंकि बाहर काम करने वाले मज़दूर इस दौरान अपने गांव लौट आते हैं. अक्षय तृतीया के बाद शादी के शुभ मुहूर्त शुरू हो जाते हैं. वैसे चौथी दुनिया संवाददाता को निपानी जवलका में उत्सवी माहौल नहीं दिखा. इस बारे में किरण लोनकर बताते हैं कि पहले अक्षय तृतीया के मौक़े पर का़फी संख्या में बाहर गए मज़दूर वापस लौटते थे, लेकिन पिछले तीन वर्षों से मज़दूरों की हालत का़फी ख़राब है. चूंकि पहले के मुक़ाबले शादियां अब महंगी हो गई हैं, इसलिए मज़दूर और किसान अपने बच्चों की शादी देर से करने लगे हैं. मराठवाड़ा में निपानी जवलका जैसे हज़ारों गांव हैं, जहां शिवाजी जैसे कई लाचार मज़दूर और किसान क़र्ज़ से परेशान हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार एवं प्रशासन को इन मज़दूरों की दयनीय स्थिति के बारे में जानकारी न हो. दरअसल, प्रशासन जीते जी इन मज़दूरों की ख़ोज-ख़बर नहीं लेती. और, जब आर्थिक तंगी एवं शोषण के चलते कोई मज़दूर आत्महत्या करता है, तब जाकर प्रशासनिक अमला इलाके का दौरा करता है तथा अगले दिन अख़बारों में उसकी ़खबर-तस्वीर छपती है. यह मालूम होने पर कि मरने वाला शख्स किसी दूसरे ज़िले में मज़दूरी करता था और उसके पास कोई ज़मीन नहीं थी, उसे सरकारी मुआवज़े से वंचित कर दिया जाता है.
स्कूलों में होती है अघोषित छुट्टी
निपानी जवलका की ग़रीबी और पिछड़ापन मराठवाड़ा के बाकी गांवों की तरह ही है. गांव में ज़िला परिषद के प्राइमरी स्कूल पर नज़र पड़ी. विभागीय रजिस्टर में स्कूल खुला ज़रूर था, लेकिन वहां न तो शिक्षक थे और न छात्र. स्कूल के बाहर खड़े एक युवक ने कहा कि सभी बच्चे पानी लाने गए हैं, क्योंकि अभी-अभी एक टैंकर आया है. टैंकर आने पर यहां के स्कूलों में अघोषित छुट्टी कर दी जाती है. स्कूल के बगल में ही एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी है. वहां न तो कोई डॉक्टर दिखा और न कोई मरीज. गांव वालों ने बताया कि अगर किसी दिन कोई डॉक्टर पहुंच भी जाए, तो उसके पास मरीज को देने के लिए दवा नहीं होती.
ज़मीन नहीं, तो मुआवज़ा नहीं
भूमिहीन मज़दूरों के लिए महाराष्ट्र सरकार की कोई मुआवज़ा नीति नहीं है. भूमिहीन मज़दूरों एवं किसानों के साथ यह भेदभाव पूरे देश में हो रहा है, लेकिन सरकार इस समस्या के प्रति तनिक भी गंभीर नहीं दिखती. चौथी दुनिया के इस संवाददाता ने भूमिहीन मज़दूरों एवं किसानों के आत्महत्या करने और उसके बाबत मुआवज़े के बारे में मराठवाड़ा क्षेत्र के छह ज़िला कलेक्टरों से सवाल पूछे, लेकिन सभी कलेक्टर इस मुद्दे पर ख़ामोश रहे. भूमिहीन किसानों और मज़दूरों के साथ हो रहे इस अन्याय के प्रति स़िर्फ महाराष्ट्र सरकार ही जवाबदेह नहीं है, बल्कि इसके लिए सभी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार जवाबदेह हैं. देश के मूल किसानों की उपेक्षा सभी सरकारें करती आई हैं. किसानों की मौत और मुआवज़े को लेकर भेदभाव एक बड़ा प्रश्न बन चुका है. केंद्र सरकार को चाहिए कि वह सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक करके उनसे पूछे कि उनके यहां ऐसे किसानों की संख्या कितनी है, जो भूमिहीन हैं.
स्वतंत्रता सेनानी के किसान बेटे ने की आत्महत्या
गेवराई तहसील में ही एक गांव है भेंडटाकली. निपानी जवलका की तुलना में यहां की आबादी ज़्यादा है. बीते 17 फरवरी को महा-शिवरात्रि के दिन चौवन वर्षीय किसान धर्मराज पांडुरंग शिंदे ने खेत में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. चौथी दुनिया का यह संवाददाता जब धर्मराज के घर पहुंचा, तो उसकी मां हौसा बाई अपने पोते और पोतियों के साथ आंगन में बैठी थी. बातचीत में उन्होंने बताया कि धर्मराज के पास 30 एकड़ ज़मीन थी. इन खेतों में धर्मराज ने सोयाबीन, कपास और अरहर की खेती की थी, लेकिन सूखे की वजह से ़फसल बर्बाद हो गई. धर्मराज ने खेती के लिए बैंक से डेढ़ लाख रुपये बतौर क़र्ज़ लिए थे. लगातार तगादे की वजह से उसने अपनी गाय और बैल को भी बेच दिया, लेकिन क़र्ज़ से मुक्ति नहीं मिली. धर्मराज की मां ने बताया कि उनके पति स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें सम्मान-पत्र भी दिया था. उनकी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए वह भावुक हो गईं. उन्होंने कहा कि हमारे परिवार ने देश की आज़ादी के लिए इतने कष्ट सहे, लेकिन सरकार ने हमारे लिए कुछ भी नहीं किया. धर्मराज की दो पत्नियां हैं शारदा और जयश्री. ये दोनों बीड में रहती हैं, क्योंकि सूखे की वजह से खेती का काम बंद है. नतीजतन, धर्मराज के चारों बेटे वहां रहकर छोटा-मोटा काम करते हैं.
मज़दूर महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं

गन्ना खेतों में काम करने वाले मज़दूरों के शोषण की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. खेतों में काम करने वाली महिलाओं एवं बच्चियों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की कई घटनाएं सामने आई हैं. ज़्यादातर मज़दूर डर की वजह से इसकी शिकायत नहीं करते. गन्ना खेतों में काम करने वाली उन महिला मज़दूरों को सबसे ज़्यादा दिक्कत होती है, जिनके छोटे-छोटे बच्चे हैं. मज़दूर अमूल शिंदे बताते हैं कि गन्ना खेतों में कई प्रकार के ज़हरीले सांप रहते हैं, लेकिन मज़दूरों को न तो जूता मुहैया कराया जाता है और न दस्ताने. सांप के काटने की वजह से कई मज़दूरों की मौत हो चुकी है, इस ओर न तो सरकार ध्यान देती है और न नियोजक.

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