आप 2015 की शुरुआत में ये शब्द पढ़ रहे हैं. हमारा यह कर्तव्य है कि हम आपको उन बातों से आगाह करें और आगाह करने के कारण भी बताएं कि क्या हो सकता है, अगर सावधानियां न रखी जाएं तो. दरअसल, हमारा भी वही कर्तव्य है, जो एक डॉक्टर का होता है. डॉक्टर अपने मरीज को उसकी खूबसूरती नहीं बताता, बल्कि असावधान रहने पर क्या-क्या रोग हो सकते हैं, इसकी जानकारी देता है. उसी तरह पत्रकारिता का बुनियादी धर्म है कि वह किसी भी स्थिति में तारीफ़ों की कसीदे पढ़ने की जगह समाज और देश के सामने क्या-क्या परेशानियां आ सकती हैं, उन्हें बताए. और, न बताने की स्थिति में वह वैसा ही अपराध भी कर बैठती है, जैसे कोई डॉक्टर किसी मरीज को बजाय ठीक करने के, उसे ठीक करने के लिए ज़्यादा पैसे की मांग कर बैठे.
गाड़ी पटरी से कब उतर गई, इसका विश्लेषण अलग-अलग हो सकता है, लेकिन विकास के दायरे से जनता धीरे-धीरे अलग होती चली गई और विकास मुट्ठी भर लोगों के लिए होने लगा, यह तो दिखाई दे रहा है. 1991 के बाद बाज़ार ने विकास को अपने नियंत्रण में ले लिया और आज हालत यह है कि देश की 70 या 75 प्रतिशत जनता को स़िर्फ जीने लायक सुविधाएं कैसे मिलें, इसकी योजना बनती है. उसे रोज़गार के सपने कैसे दिखाए जाएं, इसकी योजना बनती है. वह विद्रोह न करे, इसके लिए उसे कितनी सुविधाएं चाहिए, इसकी योजना बनती है और शोषण का एक लंबा मानचित्र तैयार किया जाता है. इसी मानचित्र के ऊपर पिछली सरकारें चलीं और इसी मानचित्र के ऊपर यह सरकार भी चल रही है. कहा जा रहा है कि इस सरकार के पास वक्त नहीं था कि यह आर्थिक नीतियां बदले, इसलिए 2015 के बजट सत्र का इंतज़ार करना चाहिए. 2015 के बजट सत्र में स़िर्फ चंद महीने बाकी हैं, उसे भी हम देख लेंगे. लेकिन, जिस तरह के वक्तव्य सामने आ रहे हैं, उससे यही लगता है कि बाज़ार आधारित आर्थिक नीतियां और विकास का मॉडल ही और ज़्यादा सशक्त बनाया जाएगा, बजाय इसके कि जनता आधारित विकास का मॉडल बनाया जाए. अगर ऐसा होता है, तो क्या-क्या हो सकता है, इसकी कल्पना बजट सत्र के बाद करेंगे. लेकिन, अभी एक चेतावनी हम आपको और एक संकेत सरकार को अवश्य देना चाहते हैं.
हम जब पानी को गरम होने के लिए आग पर रखते हैं, तो वह काफी समय लेता है, तब वह धीरे-धीरे गुनगुना होता है, लेकिन जब वह एक बार गुनगुना हो जाता है, तो उसे उबलने में बहुत देर नहीं लगती. मनमोहन सिंह ने बाज़ार आधारित आर्थिक नीतियों की रोशनी में जिन विकास के चिन्हों को अपनाया था, उसके तहत उन्होंने पानी गुनगुना कर दिया और सरकार सामाजिक दायित्वों से मुक्त हो गई. सड़क, अस्पताल, स्कूल, रोज़गार, पानी और शिक्षा यानी सब कुछ सरकार की ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गया. इसका नतीजा यह हुआ कि अब कहीं से ये ख़बरें नहीं आतीं कि लोग भूख से मर रहे हैं, ये ख़बरें भी नहीं आतीं कि कहीं ज़मीन को लेकर संघर्ष हो रहे हैं, लोग जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसका सीधा मतलब है कि मीडिया को भी बाज़ार ने अपने हाथ में ले लिया है और जनता इन संघर्षों के बारे में अपने दायरे से अलग जान ही नहीं पाती. क्या ये संघर्ष ख़त्म हो गए हैं, क्या हम सुख और चैन से जी रहे हैं? ये सारे सवाल भी आज नहीं उठाए जा रहे हैं. पर जिस एक चीज के बारे में न यह सरकार समझ रही है और न आपके पास उसकी सूचना जाने दे रही है, वह यह है कि देश के सात प्रमुख राज्यों, जहां पर असंतोष है, जहां विकास नहीं पहुंचा है और जहां लोग बिना रोटी के, बिना दवाओं के घिसटते हुए मौत की कगार पर पहुंच चुके हैं, वहीं से हमारी सेना में सबसे ज़्यादा सिपाही आते हैं. इन राज्यों में ग़रीब, शोषण, बेकारी और संघर्ष की बात करना नक्सलवाद का समर्थन करना माना जा रहा है. मौजूदा सरकार इन तमाम समस्याओं को क़ानून व्यवस्था की समस्या मानती है, विकास की ग़लत नीतियों को इसका कारण नहीं मनाती. इसलिए अब गृह मंत्रालय यह फैसला ले चुका है कि अगर आप शहरों में नक्सलवादियों का समर्थन करेंगे, तो आप जेल भेजे जा सकते हैं. मतलब यह कि अगर कोई ग़रीबी के कारणों का विश्लेषण करे, अगर कोई वंचितों के हितों की बात करे, अगर कोई भूमि संघर्ष की बात करे और अगर कोई सरकारी दमन के ख़िलाफ़ बात करे, तो वह नक्सलवादियों का समर्थक माना जा सकता है. क्योंकि, नक्सलवादी भी कमोबेश इन्हीं बातों को अपने क्षेत्र में कर रहे हैं, जिसकी वजह से देश के 272 से ज़्यादा ज़िले उनके प्रभाव क्षेत्र में आ गए हैं.
मौजूदा सरकार से हम विनम्रतापूर्वक 2015 की शुरुआत में यह अपील करते हैं कि वह अपने सोचने का तरीका थोड़ा-सा बदले. विकास की धारा में उस जनसंख्या को लाना ज़रूरी है, जिसे आज़ादी के पैंसठ सालों ने धीरे-धीरे विकास के दायरे से बाहर कर दिया. पानी गुनगुना हो चुका है, पानी को उबलने में बहुत देर नहीं लगेगी. आप राज्यों में, शहरों में, गांवों में उन संवेदनशील लोगों को पकड़ कर जेल में अवश्य डाल सकते हैं, जो बदलाव की बातें करते हैं. शायद सरकारों का यह धर्म हो जाता है कि वे सत्ता में आने से पहले सबके लिए सब कुछ करने का वादा करती हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे बड़ी आसानी के साथ उन चीजों को परे छिटक देती हैं और स़िर्फ बाज़ार की बात करती हैं.
श्री नरेंद्र मोदी की सरकार भी इस रास्ते पर है. पर हमारा धर्म उन्हें यह बताना है कि अगर वह कृषि आधरित उद्योग-धंधों को, कृषि आधारित अर्थनीति को अपना मार्गदर्शक नहीं बनाएंगे, तो वह पांच साल बीतते-बीतते मनमोहन सिंह से ज़्यादा खराब प्रधानमंत्री माने जाएंगे. वह प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं, वह तानाशाह भी बन सकते हैं, लेकिन लोेगों के दिलों के महानायक नहीं रह पाएंगे. नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से स्वयं को देश के सामने प्रस्तुत किया है, वह सिनेमा के पर्दे पर 5 फीट के आदमी को 16 फीट का आदमी दिखाने जैसा है. महान नायक अथवा महान खलनायक बनना, यह विलक्षण चुनाव 2015 ने हमारे सामने रख दिया है. देश में लोकतंत्र को सर्वाधिक उपयुक्त प्रणाली मानने वाले लोगों के लिए 2015 खुशियां भी ला सकता है और अपार दु:ख भी ला सकता है. पर आशा करनी चाहिए कि इस विलक्षण चुनाव में महानायक की जीत होगी, महा-खलनायक की नहीं.