सभी राजनीतिक दलों को वैचारिक रूप से सहमति रखने वाली अपनी छोटी-छोटी इकाइयों से परेशानी रहती है. उक्त लोग पार्टी के लिए बहुत परिश्रम करते हैं, ताकि वे अपना मुख्य एजेंडा लागू करा सकें. प्रत्येक पार्टी को पता रहता है कि बहुमत हासिल करने के लिए इन इकाइयों को खामोश रखना पड़ता है, क्योंकि इन्हें आम स्वीकार्यता नहीं होती.

BITS-Pilani-Goa-student-wriद्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद के वर्षों में ट्रेड यूनियन ब्रिटेन में बहुत शक्तिशाली थीं. वे सरकारी नीतियों (खास तौर पर लेबर सरकार की नीतियों) को प्रभावित कर सकते थीं. साठ के दशक में जब हेरोल्ड विल्सन प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने एक ट्रेड यूनियन नेता के बारे में अपना मशहूर वक्तव्य दिया था, गेट योर टैंक्स ऑफ माई फ्रंट लॉन (अनुचित दबाव का उपयोग करने की कोशिश मत करो). उनकी बेचैनी की वजह यह थी कि महंगाई कम करने की उनकी विवेकपूर्ण नीति पर ट्रेड यूनियन ने विरोध करना शुरू कर दिया था. विल्सन का यह आग्रह एक ऐसे नेता की कशमकश को प्रतिबिंबित करता था, जो अपने उग्र समर्थकों को नियंत्रित न कर सकता हो. लेकिन, लेबर पार्टी की हिमायती समझी जाने वाली ट्रेड यूनियन की इसी हेकड़ी की वजह से जब मार्गरेट थैचर ने उनका मुकाबला करना शुरू किया, तो लेबर पार्टी और यूनियन को लगातार कई बार पराजय का सामना करना पड़ा.

विल्सन की बेचैनी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी महसूस करनी चाहिए, क्योंकि वह समावेशी विकास और सामाजिक सद्भाव के वादे के साथ सत्ता तक पहुंचे थे, लेकिन उनके सहयोगी एवं साथी कुछ और ही सोच रहे हैं. उन्हें सबक की बात कौन कहे, सबके विकास से भी कोई मतलब नहीं है. स्वच्छ भारत उनके लिए अप्रासंगिक है. मेक इन इंडिया का पर्याय उनके लिए यह है कि भारत के सभी अल्पसंख्यकों को हिंदू बना दिया जाए. उन्हें अपना एजेंडा पूरा करने की जल्दी है. इसलिए वे मोदी को यह संदेश देना चाहते हैं कि जब तक कमल का राज है, हंगामा करते रहो. यदि मोदी के पास ऐसे साथी होंगे, तो उन्हें दुश्मनों की आवश्यकता नहीं होगी. यही वजह है कि विपक्ष को संसद की कार्रवाई बार-बार बाधित करने का मौक़ा मिल गया. यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट पर अपने पद का खौफ पैदा करने में कामयाब हुए हैं, लेकिन पिछली बेंच पर बैठने वाले सदस्य ज़्यादा समस्या पैदा कर रहे हैं. यह अमित शाह की चुनावी रणनीति का करिश्मा था, जिसकी वजह से उनमें से बहुतों को लोकसभा में बैठने के लिए एक सीट मिल गई. इससे पहले उन्हें इस तरह का कोई मंच नहीं मिला था. वे अपने एजेंडे पर काम कर रहे थे, लेकिन उन पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था. पर अब ऐसा करने से संसद की कार्रवाई बाधित होगी.
सभी राजनीतिक दलों को वैचारिक रूप से सहमति रखने वाली अपनी छोटी-छोटी इकाइयों से परेशानी रहती है. उक्त लोग पार्टी के लिए बहुत परिश्रम करते हैं, ताकि वे अपना मुख्य एजेंडा लागू करा सकें. प्रत्येक पार्टी को पता रहता है कि बहुमत हासिल करने के लिए इन इकाइयों को खामोश रखना पड़ता है, क्योंकि इन्हें आम स्वीकार्यता नहीं होती. किसी भी राजनीतिक दल के लिए सत्ता हासिल करने और सत्ता पर बने रहने का मकसद यह होना चाहिए कि वह मतदाताओं एवं उनके परिवार की स्थिति में सुधार के लिए कारगर क़दम उठाए. उसे लोगों की ज़िंदगी में फ़़र्क पैदा करने वाले ठोस काम करके उनका विश्‍वास हासिल करने की ज़रूरत होती है. यह सौ मीटर की दौड़ के बजाय एक मैराथन दौड़ की तरह है. लेकिन, किसी समूह के विचारक व्यवहारिक मामलों की परवाह नहीं करते. वे भविष्य को लेकर काफी आशांवित रहते हैं और उन्हें बहुत जल्दी भी रहती है. बिजली, सड़क, शिक्षा एवं मकान जैसे मुद्दे इंतज़ार कर सकते हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों का हिंदू धर्म में धर्मांतरण उनके लिए अधिक आवश्यक होता है. बुनियादी ढांचे का विकास या बुलेट ट्रेन रोक कर राम मंदिर उनकी तरजीह होती है. सबका साथ का अब कोई मतलब नहीं है. मुसलमानों से मुक्ति उनका वर्षों से सपना रहा है.
भाजपा की एक जटिल समस्या है. उसने हाल में पूर्ण बहुमत हासिल किया है. विधानसभा चुनावों में भी उसने अपनी स्थिति मजबूत की है. अगर वह अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासित कर ले, तो कांग्रेस की तरह सत्ता पर एकाधिकार हासिल कर लेगी. लेकिन, भाजपा भी अपनी मर्ज़ी की मालिक नहीं है. किसी संयुक्त हिंदू परिवार की तरह वह कमाऊ सदस्य तो ज़रूर बन सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होगा कि परिवार चलाने के लिए वह क़ानून भी बना सके. घर के बड़े- बुजुर्ग और दूर के रिश्तेदार अपनी मर्ज़ी चलाना चाहते हैं. परिवार एक समस्या है. उनके पास एक सांस्कृतिक एजेंडा है, जिसके लिए वे सड़कों पर उतरने को तैयार हैं. हैरानी इस बात की नहीं कि उनका कोई एजेंडा है, बल्कि यह कि वे अपना एजेंडा लागू करने के लिए आतुर हैं. यहां यह भी कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे क़ानून का सम्मान करना नहीं चाहते हैं. नरेंद्र मोदी अपने सपनों का भारत बनाने के लिए दस साल का समय चाहते हैं. फिलहाल कोई ऐसा विपक्ष नहीं है, जो संसद के वेल में पहुंचने के अलावा कुछ कर सकता है. जिस तरह से वह एक राज्य के बाद दूसरे राज्य को जीतते जा रहे हैं, राज्यसभा पर भी उनका नियंत्रण हो जाएगा. इसके बावजूद भाजपा जम्मू-कश्मीर में तीन सीटों की कमी की वजह से सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन पाई. क्या ऐसा नहीं है कि साध्वी के बयान की वजह से पार्टी की उक्त सीटें कम हो गईं? यदि इस तरह के कुछ और मामले सामने आए, तो पार्टी के राज्यसभा में बहुमत पाने के सपने स़िर्फ सपने ही रह जाएंगे.

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