Untitled-133लोकतंत्र में चूंकि आंकड़े ही सबसे ज़्यादा मायने रखते हैं, इस लिहाज से कहा जाए, तो बिहार में महा-गठबंधन का जो प्रयोग हुआ, वह मोटे तौर पर उपचुनाव में सफल रहा. स्कोर छह और चार का रहा, पर दो की बढ़त ने ही महा-गठबंधन को आगे बढ़ने का रास्ता दे दिया. अगर आंकड़े पक्ष में न आते, तो महा-गठबंधन की छीछालेदर तय थी, पर उपचुनाव के नतीजे ने उसे मुश्किल हालात में जाने से बचा लिया. अब एक अलग तरह की चुनौती महा-गठबंधन के सामने है, जो बिल्कुल अलग विषय है. हमारी चर्चा का विषय यहां महा-गठबंधन को नया रास्ता मिलना है. ऐसा क्यों हुआ, इसकी अलग-अलग व्याख्या हो रही है और अलग-अलग तस्वीर भी सामने आ रही है. लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार के मतदाता एक साथ आए, आक्रामक तरीके से प्रचार अभियान चला और एक संदेश यह दिया गया कि नरेंद्र मोदी के लिए आपने जो किया, उसे अब भूलिए और बिहार के विकास के लिए महा-गठबंधन का साथ दीजिए.
इन सब चीजों से अलग एक और बात, जो विश्‍लेषण के दायरे में है, वह यह कि भाजपा की प्रदेश इकाई की खराब चुनावी रणनीति, कई सीटों पर उम्मीदवारों का खराब चयन और सबसे बढ़कर छोटे मोदी यानी सुशील मोदी की पार्टी के भीतर हम और केवल हम की नीति ने महा-गठबंधन का बंधन मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई. पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता सी पी ठाकुर कहते हैं, अरे, हम तो चपरासी की भूमिका में हैं. जैसे चपरासी को आदेश होता कि फलां जगह चले जाओ, फलां काम कर दो, तो बस मेरी भूमिका यही तक सीमित हो गई है. उपचुनाव में हार का गंभीर मंथन ज़रूरी है, क्योंकि हम लोग एक जीती हुई बाजी हार गए. ठाकुर जैसे बड़े नेता अगर इतनी हताशा भरी भाषा सार्वजनिक तौर पर बोल रहे हैं, तो उनकी पीड़ा आसानी से समझी जा सकती है. ठाकुर खुद सवाल करते हैं कि लोकसभा चुनाव में वोट हम पर बरस रहे थे, लेकिन चंद महीनों में ऐसा क्या हो गया कि वोटरों ने मुंह मोड़ लिया. परवत्ता में भूमिहार और छपरा में राजपूत वोटरों ने हमारा साथ नहीं दिया.
सी पी ठाकुर जो सवाल कर रहे हैं, लगभग उसी तर्ज पर उपेंद्र कुशवाहा भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भूमिहारों को मंत्रिमंडल में जगह न देने का खामियाजा एनडीए को उठाना पड़ा. कुशवाहा कहते हैं, मेरी पार्टी को एक भी टिकट न देने का ़फैसला ठीक नहीं था, इससे गलत संदेश गया. भागलपुर में हार से परेशान अश्‍विनी चौबे कहते हैं कि नेतृत्व की कमजोरी हमें ले डूबी. पूर्व मंत्री चंद्रमोहन राय कहते हैं कि उपचुनाव में बिहार भाजपा की लीडरशिप नाकाम साबित हुई. प्रत्याशी चयन और चुनाव प्रबंधन के मामले में भी भाजपा ने इस बार बड़ी चूक की. इन विरोधी बयानों पर ग़ौर करें, तो आसानी से समझा जा सकता है कि सबके निशाने पर स़िर्फ और स़िर्फ सुशील मोदी हैं.
यह माना हुआ सच है कि बिहार भाजपा में अभी तक सुशील मोदी जो चाहते हैं, वही होता है. नीतीश कुमार के साथ सत्ता की भागीदारी का दौर हो या फिर अलग होने के बाद के विपक्षी तेवर, सभी के केंद्र बिंदु में सुशील मोदी ही हैं. सुशील मोदी द्वारा इस तरह काम करने की भाजपा के कई नेता कभी सार्वजनिक तौर पर, तो कभी पर्दे के पीछे आलोचना करते रहे, पर चूंकि सब कुछ भाजपा के पक्ष में जा रहा था, इसलिए ऐसी आवाज़ें दब जाती थीं. लेकिन, इस बार दांव उल्टा पड़ गया है. उपचुनाव में टिकट किसे मिलेगा, सहयोगी दलों की क्या भागीदारी होगी, चुनाव प्रचार में कौन आएगा और कौन जाएगा आदि सारे ़फैसले मोटे तौर पर सुशील मोदी के कहने पर हुए. सहयोगी दलों को सीट न देकर सुशील मोदी यह साबित करना चाहते थे कि भाजपा अपने बलबूते बिहार की सत्ता हासिल कर सकती है. भाजपा ने दस में से नौ सीटों पर चुनाव लड़ा था. अगर इनमें से वह आठ सीटें जीत जाती, तो सुशील मोदी यह प्रचारित कराते कि भाजपा में अब इतनी ताकत आ गई है कि वह अपने बलबूते सरकार बना सकती है, जैसा कि केंद्र में हुआ.
सुशील मोदी इसका एक लाभ यह देख रहे थे कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में सहयोगी दल बड़ा मुंह नहीं खोलेंगेे और भाजपा जितनी चाहेगी, उतनी सीटें उन्हें दे देगी, लेकिन उनका यह दांव उल्टा पड़ गया. परवत्ता में भाजपा ने अपना प्रत्याशी लोजपा के टिकट पर लड़ा दिया और उपेंद्र कुशवाहा को एक भी सीट न देकर
मतदाताओं को भ्रमित कर दिया. दूसरी तरफ़ महा-गठबंधन के दलों ने बड़ा दिल दिखाया और कांग्रेस जैसी कम जनाधार वाली पार्टी को भी दो सीटें दे दीं. लालू प्रसाद ने हाजीपुर की अपनी सीट जदयू को दे दी. इस लिहाज से देखा जाए, तो सुशील मोदी ने केवल अपनी भावी राजनीति चमकाने के लिए अपने सहयोगी दलों को दरकिनार कर दिया. प्रत्याशियों के चयन में तो सुशील मोदी ने हद ही कर दी. कहने के लिए तो संसदीय बोर्ड टिकटों के मामले में अंतिम निर्णय लेता है, पर उस बोर्ड को फीडबैक तो प्रदेश इकाई ही देती है. प्रत्याशियों के चयन में भाजपा ने अपने आधार वोट की ही उपेक्षा कर दी. केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से बिहार का भूमिहार समाज पहले से ही नाराज़ था और जब उपचुनाव में एक भी सीट से टिकट नहीं मिला, तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा.
भूमिहार समाज के एक बड़े नेता कहते हैं कि भाजपा ने हमें बंधुआ मज़दूर समझ लिया है. लालू प्रसाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में हमारे समाज ने भाजपा का साथ दिया, नरेंद्र मोदी के लिए जान लगा दी और जब सत्ता में भागीदारी की बात आई, तो दूसरे लोग नज़र आने लगे. महा-गठबंधन ने तो भूमिहार को टिकट दिया, तो समाज ने उसका साथ दिया. परवत्ता के नतीजे इसे साबित भी करते हैं. इसी तरह छपरा की सीट पर कन्हैया सिंह जैसे कमजोर प्रत्याशी को उतारा गया. छपरा के लिए कई मजबूत नाम आए थे, लेकिन सुशील मोदी को कन्हैया सिंह ही सबसे बड़े पहलवान नज़र आए. बागी प्रत्याशी सी एन गुप्ता को मनाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया, क्योंकि सुशील मोदी को भरोसा था कि वैश्य मतदाता किसी भी हालत में भाजपा का साथ नहीं छोड़ेंगे. लेकिन 31,681 मत हासिल करके गुप्ता ने भाजपा प्रत्याशी को तीसरे नंबर पर धकेल दिया. यहां राजपूतों ने भाजपा का साथ नहीं दिया. ग़ौरतलब है कि गुप्ता आरएसएस के पुराने कार्यकर्ता हैं. इसी तरह मोहिउद्दीनगर में भाजपा ने बाहरी प्रत्याशी उतार कर आत्मघाती क़दम उठा लिया. पार्टी से जुड़े कई स्थानीय राजपूत नेेताओं ने टिकट के लिए सुशील मोदी को अर्जी दी, पर उन्होंने सबको दरकिनार कर राजेश सिंह को टिकट दे दिया.
यही हाल जाले का रहा. यहां भाजपा की हार की मुख्य वजह कार्यकर्ताओं की नाराज़गी रही. राजद से भाजपा में शामिल हुए राम निवास प्रसाद को कोई पसंद नहीं कर रहा था. कार्यकर्ताओं ने अपनी भावना से सुशील मोदी को अवगत भी करा दिया था, पर सुनवाई नहीं हुई. राजनगर में राजद उम्मीदवार को स्थानीय होने का फ़ायदा मिला. यहां ब्राह्मणों की शिकायत रही कि भाजपा प्रत्याशी हमेशा उनके ख़िलाफ़ बयान देते रहे हैं. दरअसल, सुशील मोदी इतने फीलगुड में थे कि उन्होंने न स्थानीय समीकरणों का ध्यान रखा और न सामाजिक ताने-बाने का. वह स़िर्फ यही सोचकर चुनाव मैदान में उतर गए कि नरेंद्र मोदी की लहर के सहारे भाजपा को जिताकर ले आएंगे, फिर तो आगे उन्हें चुनौती देने वाला कोई बचेगा ही नहीं, क्योंकि उसके बाद तो बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. छपरा में वह कह रहे थे कि आपका वोट सीधे सुशील मोदी को जाएगा. आप यह मानकर वोट कीजिए कि यहां से सुशील मोदी चुनाव लड़ रहा है. नतीजा यह हुआ कि भाजपा यहां तीसरे स्थान पर चली गई.
अब चूंकि सुशील मोदी का दांव उल्टा पड़ गया है, इसलिए उनके विरोधी एक बार फिर मुखर हो गए हैं और प्रदेश भाजपा में किचकिच का एक नया अध्याय शुरू हो गया है. सुशील मोदी पर आरोप है कि उन्हीं के कारण महा-गठबंधन को ताकत मिल गई, वरना उसकी हवा तो इसी चुनाव में निकल जाती. हालांकि नीतीश कुमार कहते हैं कि उन्हें सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ वोट मिला है और यह लड़ाई अब देश स्तर तक जाएगी. देखा जाए तो नीतीश कुमार इसी तरह के परिणाम के इंतजार में थे, ताकि महा-गठबंधन का विस्तार किया जा सके. यही वजह थी कि उन्होंने खुद पहल करते हुए महा-गठबंधन का प्रस्ताव लालू प्रसाद के सामने रखा था और फिर यह सिलसिला आगे बढ़ा. अब 2015 के विधानसभा चुनाव तक इस महा-गठबंधन को बनाए रखना लालू और नीतीश के लिए एक बड़ी चुनौती है. विकास तो एजेंडे में रखना ही होगा, लेकिन उससे भी अहम है अपराध मुक्त प्रदेश. अगर क़ानून-व्यवस्था के मुद्दे पर सरकार ने सख्त रवैया न अपनाया, तो फिर महा-गठबंधन की राह मुश्किल हो सकती है. ऐसा इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि अब लालू महा-गठबंधन का हिस्सा हैं और उनके कार्यकाल के संबंध में कैसी धारणा है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. अगर प्रदेश में अमन-चैन का माहौल बना रहता है, तो नीतीश कुमार को यह कहने में आसानी होगी कि अगली सरकार भी ऐसी होगी. इससे जनता के मन का भय दूर करने में मदद मिलेगी. सुशील मोदी ने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद को करने के लिए बहुत कुछ दे दिया है. देखना यह है कि ये दोनों नेता जनता से मिले संकेत से कैसे बड़ी तस्वीर बनाते हैं.

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