mayawatiचुनाव आयोग द्वारा मध्य प्रदेश सहित चार अन्य राज्यों के लिए चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा कर दी गई है. मध्य प्रदेश की सभी 230 सीटों के लिए एक ही चरण में चुनाव होंगे. इसके लिए नामांकन दाखिल करने का आखिरी दिन 9 नवंबर है, 28 नवंबर को मतदान होगा और 11 दिसंबर को चुनाव के परिणाम घोषित किए जाएंगे.

चुनाव आयोग की घोषणा के बाद प्रदेश में आचार संहिता लग गई है और इसके साथ ही चुनावी सरगर्मियां भी तेज हो गई हैं, लेकिन इन सबके बीच प्रदेश की सियासत में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे राजनीतिक दल नए सिरे से अपनी रणनीति बनाने को मजबूर हुए हैं. एक तरफ जहां सवर्ण आंदोलन के दौरान उभरे संगठन सपाक्स ने राजनीति में उतरने का फैसला करते हुए सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है, तो वहीं बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन की संभावनाओं पर पूरी तरह से विराम लगाते हुए अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.

बसपा की इस घोषणा के साथ ही मध्य प्रदेश में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं. अभी तक जो परिदृश्य बन रहा है, उसके हिसाब से कांग्रेस और भाजपा के अलावा बसपा, आप, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और सपाक्स प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही हैं. आदिवासी संगठन जयस ने भी 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है.

अब यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि क्या सपाक्स और बसपा के ये फैसले मध्य प्रदेश में नए समीकरणों को जन्म देते हैं या फिर प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय ही बनी रहेगी. सपाक्स के चुनाव में उतरने से किसको ज्यादा नुकसान होगा और क्या बसपा के साथ गठबंधन न होने से कांग्रेस को सिर्फ नुकसान ही होगा?

बसपा की दग़ाबाज़ी या कांग्रेस ही पीछे हटी है?

मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद से कमलनाथ लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए सभी विपक्षी दलों को एक साथ मिलकर चुनाव लड़ना होगा, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद ऐसा संभव नहीं हो पाया है. बीएसपी सुप्रीमो मायावती ऐलान कर चुकी हैं कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में बसपा का कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा और यहां वो अकेले ही चुनाव लड़ेगी. मायावती ने प्रदेश में कांग्रेस से समझौता न होने के लिए उसके वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार ठहराया है.

उनका आरोप था कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी तो गठबंधन चाहते हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह जैसे नेता नहीं चाहते कि बीएसपी-कांग्रेस का गठबंधन होने पाए, क्योंकि वे भाजपा-आरएसएस के एजेंट हैं और वे केंद्र सरकार की सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों से डरते हैं. लेकिन दिग्विजय सिंह तो इस पूरे सीन में ही नहीं थे. बसपा के साथ गठबंधन की बात तो खुद कमलनाथ कर रहे थे और मायावती इससे पहले ही छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के साथ समझौते के ऐलान के दौरान मध्य प्रदेश की 22 सीटों के लिए बसपा उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर चुकी थीं.

दरअसल, मायावती द्वारा कांग्रेस के साथ गठबंधन न होने की घोषणा दिग्विजय सिंह द्वारा दिए गए उस इंटरव्यू के बाद की गई थी, जिसमें उन्होंने संभावना जताते हुए कहा था कि मायावती केंद्र सरकार, सीबीआई और ईडी के दबाव में हैं, इसी वजह से गठबंधन नहीं हो पा रहा है. तो क्या कांग्रेस दिग्विजय सिंह के बयान के जरिए मायावती को वो मौका देना चाहती थी, जिससे उन्हें गठबंधन की सभी संभावनाओं पर एकतरफा विराम लगाने का मौका मिल सके?

जाहिर है दिग्विजय सिंह ने अपने इंटरव्यू के दौरान मायावती पर दबाव की बात कही थी, उसमें उनकी पार्टी की भी सहमति रही ही होगी. अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस पार्टी दिग्विजय सिंह के इस बयान से अपने आप को अलग भी कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, उल्टे दिग्विजय सिंह की तरफ से कहा गया कि राहुल गांधी हमारे नेता हैं और हम उनके निर्देश के अनुसार ही काम करते हैं.

दरअसल, मायावती और दिग्विजय सिंह की अदावत पुरानी है, ये दिग्विजय सिंह ही हैं, जिन्होंने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में बसपा के कई विधायकों को तोड़ लिया था. बाद में जब वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रभारी बनाए गए तो वहां मायावती की सरकार थी. ऐसे में उनके निशाने पर मायावती और उनकी सरकार ही रहती थी, वे मायावती के खिलाफ खुलकर हमलावार रहते थे. ताज कॉरिडोर मामले को दिग्विजय सिंह ने बहुत जोर-शोर से उठाया था.

2009 के लोकसभा चुनाव में जब वे उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे, उस समय कांग्रेस वहां 21 सीटें हासिल कर दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी थी, जबकि 20 सीटों के साथ बसपा तीसरे नंबर पर आ गई थी. ऐसे में कांग्रेस की तरफ से दिग्विजय सिंह ही वो चेहरा थे, जिसे कांग्रेस सामने लाकर मायावती की तरफ से गठबंधन की संभावनाओं पर विराम लगा सकती थी और हुआ भी यही. मध्य प्रदेश में कांग्रेस का बसपा के साथ गठबंधन नहीं हो रहा है और इसके लिए मायावती जिम्मेदार ठहराई जा रही हैं. दिग्विजय ने मायावती द्वारा अपने ऊपर लगे आरोपों को खारिज करते हुए इसका ठीकरा उनके ही सर पर डाल दिया है.

मायावती द्वारा लगाए गए सभी आरोपों को खारिज करते हुए दिग्विजय ने कहा है कि मैं नरेंद्र मोदी, अमित शाह, बीजेपी और संघ का सबसे बड़ा आलोचक रहा हूं. मैं कांग्रेस और बीएसपी के बीच गठबंधन का समर्थक हूं. मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत चल रही थी, लेकिन उन्होंने पहले ही 22 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित करते हुए ऐलान कर  दिया था कि उनकी पार्टी मध्य प्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. ऐसे में कांग्रेस बीएसपी का गठबंधन न होने के लिए मैं जिम्मेदार कैसे हूं?

मायावती का गणित

मायावती ने कांग्रेस के साथ गठबंधन न हो पाने का ठीकरा भले ही दिग्विजय सिंह पर फोड़ा हो या फिर इसके पीछे केंद्रीय एजेंसियों के दबाव की बात कही जा रही हो, लेकिन ऐसा लगता है कि मायावती खुद चाहती थीं कि विधानसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन न हो सके. दरअसल, उनकी नजर लोकसभा चुनाव पर है और इसी हिसाब से वे अपनी चाल चल रही हैं. अगर तीनों राज्यों में कांग्रेस मजबूत होकर उभरती है तो उनके लिए लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ अपनी शर्तों पर मोलभाव करना आसान नहीं होगा, इसलिए वे चाहती हैं कि विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस मजबूत होकर उभर न सके. इसके बदले भले ही उनकी पार्टी को नुकसान उठाना पड़े.

ऐसे में उनके लिए राज्यों में कांग्रेस के बिना चुनाव लड़ना ज्यादा फायदे का सौदा लग रहा है. दरअसल, लोकसभा चुनाव से पहले वे कांग्रेस को जताना चाहती हैं कि अगर कांग्रेस ने उनसे तालमेल नहीं किया तो वो भाजपा को नहीं हरा पाएगी और यह तालमेल उनकी शर्तों पर ही होगा. यह सही भी है, अगर राज्यों के चुनाव में कांग्रेस पिछड़ी तो फिर उसे बसपा और अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ झुक कर उनकी शर्तों पर समझौता करना पड़ेगा.

दूसरा कारण, प्रदेश में दलित और सवर्ण आंदोलन के प्रभाव और इस दौरान उभरे सपाक्स के बाद परिस्थितियां बदली हैं, जिसमें मायावती को लग रहा है कि मध्य प्रदेश में बसपा के लिए स्थायी रूप से तीसरी ताकत के रूप में उभरने का सही मौका है. इसीलिए पिछले चुनाव में 2 सीटें जीतने के बाद भी वे कांग्रेस से 50 सीटों की मांग कर रही थीं. दरअसल, सूबे में जातीय राजनीति के उभार के बाद बसपा को लग रहा है कि उसकी एक दर्जन से अधिक सीटों पर संभावना मजबूत हुई है.

मध्य प्रदेश में बसपा का सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है, अलग-अलग चुनावों के दौरान उसे 3.5 से लेकर 8.97 प्रतिशत मत मिलते रहे हैं. मध्य प्रदेश में वो कभी दलितों की पार्टी के तौर पर भी नहीं उभर पाई. 2013 के चुनाव में उसे 6.29 प्रतिशत मत मिले थे और उसने जो चार सीटें जीती थीं, उनमें से अनुसूचित जाति वर्ग की केवल एक सीट थी. जबकि मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए 35 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं, जिसमें से 27 सीट भाजपा के खाते में गई थीं.

कांग्रेस की नई रणनीति

मायावती ने जिस तरह से दिग्विजय सिंह के सिर पर ठीकरा फोड़कर मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, उससे ऊपरी तौर पर यह कांग्रेस के लिए चिंता बढ़ाने वाला कदम लग सकता है. लेकिन कांग्रेस के पीछे हटने का प्रमुख कारण कांग्रेस का एक आंतरिक सर्वे भी बताया जा रहा है, जिसमें निकल कर आया था कि महागठबंधन के लिए कांग्रेस को दूसरे दलों के लिए करीब नब्बे सीटें छोड़नी पड़ती, अगर कांग्रेस ऐसा करती तो इसका कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश की राजनीति में दूरगामी असर पड़ता.

इससे मध्य प्रदेश में उसके पैर उखड़ जाते. गठबंधन के दौरान कांग्रेस पार्टी सहयोगी दलों के लिए अगर इतनी बड़ी संख्या में सीटें छोड़ती, तो इसका गलत संदेश तो जाता ही, साथ ही इन सीटों पर उसके कार्यकर्ता हमेशा के लिए भाजपा या अन्य दलों में जा सकते थे. तात्कालिक रूप से उसे कुछ फायदा जरूर हो जाता, लेकिन लॉन्ग टर्म में उसे जमीन खिसक जाने का खतरा था. इसीलिए कांग्रेस महागठबंधन से पीछे हट गई.

दरअसल, इससे पहले कांग्रेस उत्तर प्रदेश में ऐसी ही गलती दोहरा चुकी है, जिसके बाद से कांग्रेस वहां हाशिए पर पहुंच गई है. शायद इसीलिए कांग्रेस के रणनीतिकारों को एहसास हो चुका था कि अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस बसपा को वो सीटें दे देती, जहां उसे छह प्रतिशत वोट भी नहीं मिलते हैं, तो फिर उन सीटों पर कांग्रेस अपने वोटरों को हमेशा के लिए खो सकती थी. कांग्रेस को एहसास हो चुका था कि महागठबंधन की कीमत पर इतनी बड़ी संख्या में दूसरी पार्टियों के लिए सीटें छोड़ने का सौदा उसके लिए आत्मघाती साबित होगा.

इसके बाद से कांग्रेस का जोर इस बात को लेकर था कि किसी भी तरह से महागठबंधन को खत्म करने का दोष बीएसपी पर मढ़ दिया जाए. मायावती के मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने के ऐलान पर कमलनाथ ने पलटवार करते हुए कहा कि गठबंधन न होने से कांग्रेस को कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि बसपा ने जो 50 सीटें मांगी थी, उनमें से 11 सीटों पर ही बसपा का प्रभाव है, जबकि उनमें से 14 सीटों पर कांग्रेस और 25 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार जीतते आए हैं.

ऐसी सीटें अगर बसपा को दी जातीं, तो इसका फायदा बीजेपी को ही होता. गठबंधन न हो पाने के लिए मायावती द्वारा दिग्विजय सिंह को दोषी ठहराने को लेकर भी कमलनाथ का कहना था कि मायावती को कुछ न कुछ कहना था, लेकिन दिग्विजय पर आरोप लगाना सही नहीं है.

कांग्रेस के पीछे हटने का एक और कारण सवर्ण का भाजपा के खिलाफ गुस्सा भी है. प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 35 सीटों में से 28 पर भाजपा का कब्जा है. इस परिस्थिति में कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि बसपा के साथ गठबंधन न होने की दशा में सवर्ण मतदाता कांग्रेस के पक्ष में आ सकता है.

करो या मरो की स्थिति

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए सेमीफाइनल की तरह हैं. इन तीनों राज्यों में देश की दोनों प्रमुख पार्टियां सीधे तौर पर आमने-सामने हैं. राजस्थान में हर पांच साल बाद सत्ता बदलने का चलन रहा है. लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा पिछले पंद्रह सालों से सत्ता में है.

इन तीनों राज्यों के चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए बहुत अहमियत रखते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने इन तीनों राज्यों की कुल 65 लोकसभा सीटों में से 62 सीटों पर चुनाव जीता था. कांग्रेस के लिए तो यह एक तरह से अस्तित्व से जुड़ा हुआ मसला है और अगर वो इन तीनों राज्यों में से दो राज्य भी जीत लेती है, तो यह जीत उसके लिए लाइफ लाइन की तरह होगी, जिसके सहारे वो 2019 के आम चुनाव में नए जोश और तेवर के साथ उतरेगी.

इससे राहुल गांधी के विपक्ष में चेहरे के तौर पर स्वीकार्यता भी बढ़ेगी. लेकिन अगर कांग्रेस तीनों राज्य हार जाती है, तो फिर उसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा और उसे दूसरी पार्टियों के साथ झुक कर समझौता करने को मजबूर होना पड़ेगा. ऐसे में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की एकला चलो नीति बहुत सोच-समझ कर उठाया गया कदम है. हालांकि यह एक जोखिम भरा फैसला है, लेकिन इसका विकल्प ज्यादा घातक हो सकता था.

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