संस्मरण.
नानी का गाँव ; स्मृतियों की छाँव
मन पाखी अभी भी उड़ता है ..नानी बनने के बाद भी नानी का घर याद आता है । घर का ज़िक्र हो तो सिर्फ स्त्री का ही घर कहलाता है ।बड़ो के अनुसार जो भी हो पर निश्छल बच्चों के लिए घर नानी का ही होता है ।भले ही ये आधा सच हो । घर तो नानी का , दादी का ,बुआ का ,मौसी का ही होता है ।कभी ये नही कहते कि नाना के ,दादा के ,फूफा के या मौसा के घर जा रहे । असल में तो बाल मन पर स्त्री सत्ता ही काबिज़ होती है ।
हम भोपाल में रहते थे पर नानी का घर गाँव में ,जिसका नाम बिहार (कोटरा ) था जो भोपाल से लगभग 80 किलोमीटर दूर देवगढ़ से अंदर की ओर कुछ किलोमीटर दूर था ।आसपास ऐतिहासिक जगह थी । हाजीबली की मज़ार ,चिड़ि खों का जंगल और तालाब (जहाँ ‘आन’ फ़िल्म की शूटिंग हुई थी ) तथा कोटरा में श्याम जी का प्राचीन मंदिर और करोटिया ( गुफा ) था ।
मालवा के अंचल का एक सुंदर गाँव बिहार । घर -घर में मांडणे बने होते । हर त्योहार की खुशबू से महकता हर घर । चौपाल पर बैठक ,पनघट पर खनकती हँसी । ताजा हवा और आत्मीयता की मिठास । रात होती तो आँगन में बिस्तर लग जाते ।तारों को देखते कहानी सुनते । तारों के बारे में बातें होती .. सप्त ऋषि ,काल पुरुष , हिरनी , शुक्र ,हाथीपांव,ध्रुव तारा आदि । सभी एक दूसरे से पहेलियाँ और सवाल पूछते । तारों की स्थिति देखकर नानी समय बता देती की कितना बजा होगा इस समय । हमें अचरज होता ।
लोक कथाएं ,लोक बाल कथाएं , छोटे छोटे तुकबंदी वाले गीत अपनी बोली की मिठास लिए होते साथ ही खेल खेल में जानकारी भी मिलती । उच्चारण का कौशल विकसित होता । बच्चों के सवाल जवाब प्रफुल्लित करते । कुछ इस तरह होते –
” – थारो नाम कईं ?
– आलम तुर्रा
– खातो कईं ?
– भाजी का भुर्रा
– सोवे काँ ?
-चूला के पीछे
थारी बउ काँ है ?
– माँ के पास
-लाता क्यों नीं ?
-भग भग जाय
-मारता क्यों नीं ?
-नई बाबा म्हारो घर बिगड़ जाय । ”
इस तरह बात बात में समझा दिया जाता कि पत्नी को मारने से घर बिगड़ता है । पर आज तक नही समझ पाये कुछ लोग ।
नानी के कच्चे घर में एक छोटा सा मंदिर था ,जहाँ सुबह शाम आरती पूजन होती थी। छोटे मामाजी बड़े मनोयोग से पूजन करते ।आरती के समय गाँव के कुछ लोग भी आ जाते थे ।मुझे तो सबसे बड़ा लालच प्रसाद का होता इसलिए मामाजी के आसपास मंडराती रहती ।
एक बड़ा मंदिर भी था जिसमे सुबह शाम आरती होती थी ।हम जितने दिन रहते आरती के समय घण्टा बजाने बड़े मंदिर जरूर जाते ।घण्टा बजा लेना अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते थे । एन आरती के समय गाँव के सभी कुत्ते भी इकठ्ठा होकर सिर ऊंचा करके एक सुर में आवाज़ निकालते थे । बड़ा आश्चर्य होता ।हमे लगता वो भी हमारे साथ आरती गा रहे । कभी रात में वही कुत्ते आवाज़ निकालते तो नानाजी कहते- ‘ कुत्तों को यमराज दिखते है । यमराज किसी को लेने आये है ।’
सुन कर हम डर जाते । मन ही मन प्रार्थना करते -‘हमारे घर से किसी को मत ले जाना यमराज । ‘ माँ कहती – ‘बच्चो की प्रार्थना भगवान जरूर सुनते है।’ हमारी प्रर्थना सुन ली भगवान ने ….ये सोचकर निश्चिंत होकर सो जाते ।
गर्मियों में आम खूब आते ।आम के बगीचे में पुरखों के लगाए पेड़ थे ।
छोटे मामाजी अपने कंधे पर बिठाकर खेत और आम का बगीचा घुमाते ।
कभी नीचे उतर के दौड़ते ।थक जाते तो फिर मामा के कंधे की सवारी । घुमाते हुए मामाजी खेतो के नाम बताते -ये बाबर वालों ,नयो कुओं, हर दोनलाल वालौ खेत ,दरियाववालो खेत, पाल तलाब ,चरोखड ,बीड आदि ।
आम के बगीचे में भी आम के बारे में बताते –
लिल्यो ,गोल्यौ , पक्की केरी ,काले,आम ,गुडल्यो ,सन्दूरियो,
भूरियौ, जटालियो,नुकली आम ,छीरसागर, बडीआमन, काल्यो,चपटियो, पुनिया वाला, सावनियो ,आदि । साथ ही बताते की कौन सा पेड़ किसके हाथ का लगाया हुआ है साथ ही समझाते भी कि — ‘ पुरखों के लगाए पेड़ आज हमे फल दे रहे। हम लगाएंगे तो अगली पीढ़ी को मिलेगें ।
‘पेड़ हमारे पुरखे है ।ये आशीर्वाद देते है । ‘
कुछ न समझते हुए भी बहुत सी बात समझ जाते । दृश्य- अदृश्य के प्रति आस्थावान होते जाते । आस्था हमें मजबूत बनाती है ।
गाँव में नानी का बड़ा मान था । बहुत हिम्मत वाली वाली थी ।
जब कभी पास के कस्बे नरसिंहगढ़ जाना होता और बस से जाना होता तो सुबह 5 बजे बस मिलती थी ।तब नानी स्टॉप तक नाना या मामा को छोडने जाती लालटेन लेकर । दो बार उनका शेर से भी सामना हुआ … । हम नानी से ये किस्सा बार बार सुनते… डरते भी और नानी पर गर्व भी करते । हुआ यूं था कि शेर शिकार करके पानी पीने गाँव के पास की नदी में आता और उसी समय नानी कभी कभी नाना या मामा को स्टॉप तक छोड़कर लौटती । नानी के पास जलती हुई लालटेन थी ।एक बार बीच रास्ते शेर और नानी आमने सामने थे । नानी ने शेर से कहा – ‘खाय कईं मोय ? खानों हो खाले’ । पता नही रोशनी के डर से या पेट भरा होने कारण आराम से बगल से निकल गया शेर । और नानी अपने रास्ते ।ऐसा दो बार हुआ उनके साथ ।
एक बार की बात है । मामाजी के लाड़ में तो बिगड़े हुए थे हम । मझले मामाजी के साथ बैलगाड़ी पर जरूर जाते । एक बार ज़िद कर बैठे की हम बैल गाड़ी चलाएंगे । उन्होंने भी मना नहीं किया । वे उतरकर बगल में पैदल चलने लगे ।वो जानते थे कि बैल बड़े समझदार होते है । हमने हाँकना शुरू किया । उल्टी सीधी आर लगा दी । बैल बिदक गए ।
वो मुड़ गए जिधर एक स्त्री काम कर रही थी । कुछ दूर पर ही उसका छोटा सा शिशु सो रहा था। बैल उस शिशु के करीब पहुंच गए ।घबराहट में मैंने बैलों की रस्सी खींच दी । वो शायद समझ गए कि हाँकने वाला कोई और है मालिक नही । रुके ही नही। उधर वो स्त्री भागी अपने बच्चे को बचाने । दौनो बैल बच्चे के आसपास से गुजरे और गाड़ी उस बच्चे को नुकसान पहुंचाए बिना ठीक उसके ऊपर छाया करते हुए खड़ी हो गई ।घबराहट के मारे बुरा हाल था मेरा ।वो स्त्री मुझे गरिया रही थी । मैं सिर झुकाए सुन रही थी अपराधबोध लिए । बाद में मामाजी ने बताया गाय -बैल कभी भी निर्दोष को नुकसान नहीं पहुंचाते ।
उनकी ये बात और साबित हो गई जब कुछ वर्षों बाद एक गाय मेरे जमीन पर सोये बच्चे को सावधानी से पार कर निकल गई ।
नानी कठोर स्वभाव की थी ।डांटने में कभी नही झिझकती ।मामी बहुत प्यार करने वाली कोमल स्वभाव की थी इसलिए मामी ज्यादा अच्छी लगती । एक बार नानी ने मेरी किसी ज़िद पर कह दिया कि ‘खाल खींच दूंगी ज़िद करेगी तो ।’
बचाव के लिए माँ ,मामी और मामा जी की तरफ देखा तो उनका निर्लिप्त चेहरा देखकर नानी की सत्ता पर विश्वास हो गया और उनसे डर लगने लगा ..
उस दिन कल्पना करती रही कि नानी खाल खींच रही …मुझे बहुत दर्द हो रहा । माँ ,मामा , मामी ,नाना कोई नही बचा पा रहा ।तब से उनके प्रति ऐसा भय बैठा कि आज सच जानते हुए भी उनसे बहुत आत्मीय स्मृति नहीं खोज पाती ।
मामा जी ने गाँव के स्कूल में नाम लिखा दिया कि जितने दिन रहेगी कुछ तो पढ़ेगी । मैं न जाने की ज़िद करती । मामी कहती स्कूल से आएगी तो शक्कर रोटी दूंगी । ये मेरा सबसे प्रिय भोजन था । गाँव मे घर का गुड़ ही खाया जाता था ।शक्कर विशेष अतिथि के लिए ही थोड़ी सी आती थी ।तो शक्कर रोटी के लालच में स्कूल जाती । स्कूल से लौटती तो मामी एक पुड़िया में थोड़ी शकर देती की दो आने की सिर्फ तुम्हारे लिए ही मंगाई है इससे रोटी खालों। बाद में बड़े होने पर पता चला कि शक्कर बहुत खाती थी फिर चिनोने काटते थे तो माँ के कहने पर ऐसी साज़िश रची जाती थी इस मासूम नन्ही बच्ची के साथ ।
गाँव के कई छोटे बड़े लोगो मेरी स्मृति में है ।कुछ नाम है जो मेरी कविताओ के आएं है जैसे – गज्जू, ग्यारसी , विष्णु ,गोपी , कृष्णा,भंवरी ,जमुना आदि ।
घर के सामने ही मीठे पानी की कुंडी ( छोटा कुंआ ) थी ।
सब पानी भरने आते और विशेष सम्मान देते । पूरे गाँव की भांजी याने सो ब्राह्मण के बराबर सम्मानित । इतराना जरूरी था फिर तो ।
मीठे आम , अमृस , बियाँ ( सिवइयां ) , गन्ने का रस ,राब , राबड़ी ,
ज्वार की रोटी , खींच, गुड़ ,घी सब का स्वाद आज भी बना हुआ है ।
आज नाना ,नानी , बड़े और मझले मामा जी, माँ, बाबूसाहब , मौसी कोई नही है …सिर्फ स्मृतियों का सैलाब है जो कभी मुस्कान तो कभी आँसू ले आते है । कहने को तो बहुत बचा है ।जीवन समेटने लायक अभी तक न कोई कागज़ है न डायरी न कोई किताब ।हम है जब जब तो वो हमारे साथ…. जीवित है हमारे अंदर । नमन सभी पुरखों को ।उनकी स्मृतियां हमे ऊर्जा देती रहें ।
नीलिमा करैया,होशंगाबाद
प्रिय मधु! स्वागत तुम्हारे संस्मरण का।
वाह!हम तो कविताओं के इंतजार में थे ,पर संस्मरण पढ़कर आनन्द आ गया।।हमारा बचपन ऐसा नहीं बीता पर वह समय याद रहता है। पहले लोग स्वयं भी मर्यादा में रहते और वही देखना सुनना पसंद करते थे।हम ने नानी को नहीं देखा पर दादी को देखा।बहुत प्रेमिल थीं । पहले नाम बहुत उटपटाँग होते थे आज सुनो तो हँसी आती है।
कुत्तों का रोना अपशगुन होता है। यह अभी भी प्रचलित है। हमारा घर सड़क के किनारे है।कुत्ते के रोने की आवाज पर आधी रात को भी उठ कर भगाते हैं ।
शेर वाला प्रसंग तो बड़ा रोमांचक लगा।
“खाय कईं मोय?खाने हो खाले?”
यह बहुत हिम्मत की बात है।वर्ना तो घिघ्घी बँध न जाती है।शरीर हिलना- डुलना ही भूल जाता है।
बैलगाड़ी का प्रसंग भी स्तब्ध कर गया। स्त्री का गरियाना स्वाभाविक था भई।
बैलगाड़ी हमारे यहाँ भी थी। ससुराल में खेत थे। नए बैलों की जोड़ थी और इमरत दादा ने(जो खेत देखते थे) हिदायत दी थी कि -मरखने हैं कोई पास न जाए।संयुक्त परिवार और ढेर बच्चे घर मोहल्ले के मिलाकर ।सब सावधान। हमारा बड़ा बेटा डिम्पी 3 या 4 साल का था अचानक बाहर निकलकर पूँछ पकड़ कर खेलने लगा। वो पूँछ पकड़ ने की कोशिश करता बैल पूँछ हटाकर देखते रहे पर कुछ किया नहीं । शोर मचा तब दादा आए और हटाया।
बाल मन बहुत कोमल होता है वह लहजे को बेहतर समझता है प्यार का प्रभाव भय से अधिक ताकत वर होता है। नानी के प्रति भय स्वाभाविक ही था। खाल खींचना तो राजा महाराजाओं के काम रहे। खाल उधेड़ना ज्यादा चलता है।
चुनमुने(कृमि) का आतंक तो हमने भी देखा भतीजी बहुत गुड़ खाती ती बचपन में। बच्चों ने नाम ही गुड़ पतला रख दिया था 😂पर घरेलू उपचार था मिट्टी के तेल का फूहा।😂
सच में आज भी भांजे या भांजी को 100 बाम्हन के बराबर यहाँ भी मानते हैं ।
मधु आज तुम्हारा संस्मरण बचपन में ले गया ।
कुछ वाक्य सूत्र वाक्य की तरह लगे👇
1- पत्नी को मारने से घर बिगड़ता है
पेड़ हमारे पुरखे होते हैं
आस्था हमें मजबूत बनाती है
तीनों ही महत्वपूर्ण और गहरा अर्थ रखते हैं ।
कविता से हटकर कुछ नया पढ़वाने के लिये। शुक्रिया मधु!मालवा खण्ड की मालवी बोली का माधुर्य ही अलग है।
🔵
2.
नमस्कार ,
मधु जी🙏🏻💐
लेखनी का बेहद रपटीला और प्रवाह मय बहाव जो अपने साथ लंबी यात्रा में लेे निकलता है पाठक को।
बचपन के यादगार दिन वो भी ननिहाल के और भी रोमांचकारी होते है। बचपन के मधुर दिनों को ननिहाल के केनवास में बखूबी उतारा है आपने। वो गांव के लोगो के नाम, खेतों के नाम, और आमों के अजीबो गरीब नामों ने हमें अपने गांव और बीते दिनों की की सैर करा दी। बातों – बातों में “सौ गंगा और एक भानेंज”, “पत्नी को मारने से घर बिगड़ जाता है ” जैसी अनमोल सीख इस संस्मरण के जरिए हमें दे दिया। सुंदर साहित्यिक चित्र और सुंदर संस्मरण।
शुभकामनाएं🙏🏻💐
आभार मंच🙏🏻💐
०आशीष मोहन
🔵
ब्रज श्रीवास्तव.
🔵
हमारे मन के छोटे से हिस्से में यादों का बड़ा अंबार जमा रहता है। अगर कोई किस्सागो है तो वह वाचिक से इन्हें पीढ़ियों तक पहुंचा सकता है, यदि कोई लिख्खागो हो तो वह भी लिपि से ज़रिये इस दौर की बातें उस दौर तक पहुंचा देता है।जिस दौर में या जिस वक्फ़े में हम हों और उसे महसूस करना हमें थोड़ा अलग तरह से आता है तो उसे लिखा जा सकता है।जैसे मधु जी ने यहां लिखा और हमें इस तरह पूरा एक ज़माना दिखा।
अतीत हमेशा मन को भाता है।चाहे उसमें कितने ही अभाव क्यों न हों।हम अपने अभावों वाले उन दिनों के भी आभारी होते हैं,गोया उनकी पीठ मिली जिस पर से गुजर कर हम मौजूदा में दाखिल होते हुए चले जा रहे होते हैं मुस्तकबिल की जानिब।मधु जी ने शुरुआत ही अच्छी व्यंजना से की नानी होकर भी नानी का घर याद आ रहा है।
यह संस्मरण एक भरापूरे आम के वृक्ष की तरह है।जिसमें समृद्ध गुजिश्ता है,जिसमें प्रेम भाव है।पारिवारिक वातावरण है।बाल बच्चों के लिए लाड़ दुलार है।औरतों के लिए सम्मान है।पेड़ नदी तालाब हैं,पुरखे हैं,चुहल है,पढ़ाई लिखाई है,बस की यात्रा है और एक फ्राक पहने हुए लड़की है जो अब दिन रात लिखने, पढ़ने,गाने,प्यार बांटने में मुब्तिला है,वह लेखिका भी है।उन को ही हम लोग मधु सक्सेना पुकारते हैं।
अभिनंदन।
कृष्णा कुमारी
मधु जी, आपने तो मेरा बचपन याद दिल दिया, मैं तो बचपन में 10 साल रही हूं । ये सब हमारे गाँव सावन भादों में होता था। सब जिया हुआ है मेरा, किया हुआ भी। आपने बहुत सहज, सरल भाषा में, प्रवाह के साथ लिखा है। पूरे गांव की संस्कृति साकार हो गई। असल में बसल मन पर स्त्री सत्ता ही काबिज होती है, ये आपकी मौलिक सोच दर्शाती है। मैंने ये बात पहली बार पढ़ी है। बहुत सुंदर लिखा है।
बधाइयाँ, शुभकामनाएं, 👌👌🙏🙏🌷👏🌷💐
माया मृग
🔷
मधु सक्सेना जी का यह संस्मरण या कहें शब्दचित्र किसी एक व्यक्ति के जीवन के लेखे में दर्ज दिनों का ब्यौरा भर नहीं बल्कि लोकजीवन की खूबसूरत झलकियां हैं। हालांकि लोक की मान्यताओं और कहन में सब निर्दोष नहीं होता लेकिन अपने समय को व्यक्त करना रचनाकार का धर्म है। बधाई और शुभकामनाएं
मिथिलेश राय
संस्मरण को पढ़कर मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए, सारे लोग नाना नानी बुआ फूफा उनके साथ बिताए दिन आंखों के सामने तैरने से लगे,
साथ ही याद आ गए खुशवन्त सिंह उनकी दादी, एलन लैम्ब, अब तक बच्चों को पढ़ाते हुए इन दो लेखको का नाम और इनके संस्मरणों का न जरूर लेता, आप अब इस सूची आज से शामिल कर लिया। आप जब इस संस्मरण में नानी का शब्द चित्र रखती है। तो लगता है, तब आप कहीं खुशवन्त सिंह लगती है और जब बचपन के दृश्यों को लाती है तो एलन लैम्ब की तरह लगने लगती,। भाषा भाव, तमाम स्मृति में बसे बचपन को जब आप शब्द चित्र में बांधती है, तो रस से मन भर उठता है। मानो मन को जलेबी की तरह सीरे में डूबा दिया किसी ने, आज स्कूल में बच्चों के वार्तालाप वाली पंक्तियों को सभी शिक्षकों को सुनाया हिदायत भी दी पत्नी को नही मारे। मेरी पत्नी मालवीय है, उसकी भाषा से मुझे आपकी बाल संवाद (कवितानुमा) पढ़ने के बाद वैसा ही अनुराग हुआ जैसा कि अपनी भोजपुरी से,
इस संस्मरण में जब आप प्रकृति का वर्णन कर रही होती है तब केदारनाथ राय के निबंध की याद ताजा हो उठती है।
आम के नामों में बनारस का लगड़ा आम और जोश मलीहाबादी के मलिहाबाद के नाम जेहन में आते थे आज आम केइतने नाम पहली बार पढ़ा वो भी मालवा के,
गाड़ी वाले दृश्य को पढ़ते पढ़ते लगा गाड़ी या तो बच्चे के ऊपर से गुजरेगी या उसके मां के ऊपर से पर कभी कभी कुछ ऐसे पल भी होते है जो हमारी गलतियों में भी हमे बचा लेते उनकी सुखद याद हमारे जीवन मे हमेशा बनी रहती है।
मिथलेश राय