होली हो या दीवाली. रंग हो, पिचकारी हो, पटाखे हों, बच्चों के खिलौने हों या बड़ों के मोबाइल फोन हों या फिर मोबाइल के ईयरफोन, चार्जर या बैटरियां हों, इन सबमें एक खास बात है. ये सब आम भारतीयों के इस्तेमाल की वस्तुएं हैं और आम तौर पर ये सब मेड इन चाइना होती हैं. कुल मिलाकर आप भले ही चीन से आने वाले सामान से मुंह मोड़ना चाहें, ये आपके सामने किसी न किसी रूप में आएंगी ज़रूर. अब सवाल है कि जिस चीन से हम अभी हर साल अरबों डॉलर का सामान आयात कर रहे हैं, क्या नई सरकार आने के बाद उसमें कोई कमी आएगी या फिर बढ़ोतरी होगी? सवाल यह भी है कि नरेंद्र मोदी बार-बार मैन्यूफैक्चरिंग की बात कर रहे हैं, वह मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर इन चीनी सामानों के कहर से मुकाबला कैसे करेगा? नई सरकार विनिर्माण पर जोर देने की बात कह रही है और उसके सहारे रोज़गार सृजन की बात कर रही है, तो उसमें एक बड़ी बाधा के तौर पर इन चीनी सामानों की डंपिंग भी है. अभी हम क़रीब 48 अरब डॉलर का स़िर्फ सेल फोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक सामान का आयात कर रहे हैं. सवाल है कि क्या हम भारत में ऐसे सस्ते सेल फोन या अन्य सामान नहीं बना सकते, जो चीनी प्रोडक्ट्स का मुकाबला कर सकें. ध्यान देने की बात यह है कि हम जो भी सामान आयात करते हैं, उसके लिए डॉलर में भुगतान करते हैं.
क़रीब 14 साल पहले तक भारत में चीन का व्यापार महज 2.9 अरब डॉलर का था, लेकिन 2014 आते-आते यह बढ़कर क़रीब 80 अरब डॉलर का आंकड़ा पार कर गया है. इसके मुकाबले, जितना माल हम चीन को भेजते हैं, उससे कई गुना वहां से आयात करते हैं. भारत और चीन के बीच व्यापारिक रिश्ते की शुरुआत 1978 से हुई थी. शुरू में यह बहुत ही कम था. दोनों देशों के बीच 2000 में आपसी व्यापार महज तीन अरब डॉलर का था, लेकिन अब यह 80 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है. इसके अलावा, भारत और चीन यह मानकर चल रहे हैं कि इनके बीच साल 2015 तक आपसी व्यापार का यह आंकड़ा 100 अरब डॉलर को छू लेगा. लेकिन, भारत के हिस्से में इस बढ़ते आपसी व्यापार से ज़्यादा खुश होने लायक कुछ भी नहीं है, क्योंकि इस आपसी व्यापार की वजह से भारत का व्यापार घाटा बढ़ता ही जा रहा है. इसकी वजह यह है कि 2013 में चीन ने भारत को लगभग 48 अरब डॉलर का सामान निर्यात किया, वहीं भारत ने चीन को केवल 18 अरब डॉलर का सामान निर्यात किया और यह व्यापार असंतुलन हर साल बढ़ रहा है.
जाहिर है, चीन से आयात की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है. व्यापार असंतुलन या व्यापार घाटे के अलावा और भी कई स्तरों पर नुकसान हो रहा है. भारत के लघु/कुटीर एवं मझोले उद्योग भी इससे प्रभावित हो रहे हैं. लघु/कुटीर उद्योग एवं कई पारंपरिक हस्तकला वाले व्यापार की हालत यह है कि आज वे सब बंदी के कगार पर हैं. देशी कालीन उद्योग हो या फिर शिवकाशी का पटाखा उद्योग, ये सब क़रीब-क़रीब बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं. नतीजतन, हज़ारों-लाखों लोग, जो इन उद्योगों में लगे हुए थे, बेरोज़गार हो चुके हैं. अब सवाल यह है कि इस देश की नई सरकार ऐसी कौन सी नीति अपनाएगी, जिससे देश के भीतर विनिर्माण क्षेत्र में लगे हुए लोग ऐसे उत्पाद बना सकें, जो चीनी उत्पादों से सस्ते हों, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इन चीनी उत्पादों का मुकाबला कर सकें? सवाल यह है कि जब तक ऐसा संभव नहीं होगा, तब तक भले ही लाख विनिर्माण क्षेत्र पर जोर दिया जाए, लेकिन उसका कोई वास्तविक फ़ायदा भारत के लोगों को व्यापार या रोज़गार के रूप में नहीं मिलने वाला.
मेड इन चाइना से कैसे निपटेगा मेड इन इंडिया
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